वेदांत दर्शन
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(२५ मार्च, १८९६ ई० को हॉवर्ड विश्वविद्यालय की स्नातक दर्शन परिषद् में दिया
गया भाषण)
भारत में संप्रति जितने दार्शनिक संप्रदाय हैं, वे सभी वेदांत दर्शन के
अंतर्गत आते हैं। वेदांत की कई प्रकार की व्याख्याएँ हुई हैं और मेरे विचार से
वे सभी प्रगतिशील रही हैं। प्रारंभ में व्याख्याएँ द्वैतवादी हुई, अंत में
अद्वैतवादी। वेदांत का शाब्दिक अर्थ है 'वेद का अंत'। वेद हिंदुओं के आदि
धर्मग्रंथ हैं।[1] कभी कभी
पाश्चात्य देशों में 'वेद' को केवल ऋचाएँ और कर्मकांड ही समझा जाता है। किंतु
अब इनको अधिक महत्व नहीं दिया जाता, और भारत में साधारणत: वेद शब्द से वेदांत
ही समझा जाता है। यहाँ के टीकाकार जब धर्मग्रंथों से कुछ उद्वृत करना चाहते
हैं, तो साधारणत: वे वेदांत से ही उद्वृत करते हैं। ये लोग वेदांत को श्रुति [2] करते हैं। ऐसी बात नहीं है
कि ग्रंथ वेदांत के नाम से विख्यात हैं, उनकी रचना वैदिक कर्मकाण्ड के बाद
हुई। ईशोपनिषद् जो जयुर्वेद का चालीसवाँ अध्याय हैं, वेदों के प्राचीनतम अंशो
में एक है। ऐसे भी उपनिषद् हैं, जो ब्राह्मणों के अंश हैं। अन्य उपनिषद् [3] न तो ब्राह्मणों के, न वेद
के अन्य भागों के ही अंतर्गत हैं। किंतु इससे यह नहीं समझना चाहिए कि वे वेद
के अन्य भागों से पूर्णत: स्वतंत्र हैं। यह तो हम जानते हैं कि वेद के अनेक
भाग सर्वथा अप्राप्त हैं तथा अनेक ब्राह्मण भी नष्ट हो चुके हैं। अत: यह संभव
है कि जो उपनिषद् अब स्वतंत्र ग्रंथ जैसे प्रतीत होते हैं, वे ब्राह्मणों के
अंतर्गत रहे हों। ऐसे ब्राह्मण-ग्रंथ लुप्त हो गए हैं, मात्र उपनिषद् अवशिष्ट
हैं। इन उपनिषदों को आरण्यक भी कहते हैं।
व्यावहारिक रूप में वेदांत ही हिंदुओं का धर्मग्रंथ है। जितने भी आस्तिक दर्शन
हैं, सभी इसी को अपना आधार मानते हैं। यदि उनके उद्देश्य के अनुकूल होता हैं,
तो बौद्ध तथा जैन भी वेदांत को प्रमाण मानकर उससे एक उद्धरण प्रस्तुत करते
हैं। यद्यपि भारत के सभी आस्तिक दर्शन वेदों पर आधारित हैं, फिर भी उनके नाम
भिन्न भिन्न हैं। अंतिम दर्शन जो व्यास का है, पूर्व प्रतिपादित दर्शनों की
अपेक्षा वैदिक विचारों पर अधिक आधारित है। इसमें सांख्य और न्याय जैसे प्राचीन
दर्शनों का वेदांत के साथ यथासंभव सामंजस्य स्थापित करने का प्रयत्न किया गया
हैं। इसलिए इसे विशेष रूप से वेदांत कहा जाता हैं। आधुनिक भारतीयों के अनुसार
व्यास-सूत्र ही वेदांत दर्शन का आधार माना जाता है। विभिन्न भाष्यकारों ने
व्यास के सूत्रों की व्याख्या विभिन्न प्रकार से की हैं। सामान्यत: अभी भारत
में तीन प्रकार के व्याख्याकार हैं। [4] उनकी व्याख्याओं से तीन
दार्शनिक पद्धतियों एवं संप्रदायों की उत्पत्ति हुई है - द्वैत, विशिष्टाद्वैत
तथा अद्वैत। अधिकांश भारतीय द्वैत एवं विशिष्टाद्वैव के अनुयायी हैं।
अद्वैतवादियों की संख्या अपेक्षाकृत कम हैं। मैं इन तीन संप्रदायों की
विचार-पद्धतियों की चर्चा तुम्हारे सम्मुख करना चाहता हूँ। इसके पहले कि मैं
ऐसा करूँ, मैं तुमकों यह बतला देना चाहता हूँ कि इन तीनों वेदांत दर्शनों की
मनोवैज्ञानिक न्याय एवं वैशेषिक दर्शनों के मनोविज्ञानों के सदृश है। इनके
मनोविज्ञानों में केवल गौण विषयों में भेद पाया जाता है।
सभी वेदांती तीन बातों में एक मत हैं। ये सभी ईश्वर को, वेदों के श्रुति रूप
को तथा सृष्टि-चक्र को मानते हैं। वेदों की चर्चा तो हम कर चुके हैं। सृष्टि
संबंधी मत इस प्रकार हैं। समस्त विश्व का जड़ पदार्थ आकाश नामक मूल जड़-सत्ता से
उद्भूत हुआ है।[5]
गुरुत्वाकर्षण, आकर्षण या विकर्षण, जीवन आदि जितनी शक्तियाँ हैं, वे सभी आदि
शक्ति प्राण से उद्भूत हुई हैं। आकाश पर प्राण का प्रभाव पड़ने से विश्व का
सर्जन या प्रक्षेपण[6] होता
है। सृष्टि के प्रारंभ में आकाश स्थिर तथा अव्यक्त रहता है। बाद में प्राण
ज्यों-ज्यों अधिकाधिक क्रियाशील होता है, त्यों-त्यों अधिकाधिक स्थूल पदार्थ
उत्पन्न होते जाते हैं, यथा पेड़, पौधे, पशु, मनुष्य, नक्षत्र आदि। कालांतर में
सृष्टि की प्रगति समाप्त हो जाती है और प्रलय प्रारंभ होता है। सभी पदार्थ
सूक्ष्मातिसूक्ष्म रूपों को प्राप्त करते हुए मूलभूत आकाश एवं प्राण के परे भी
एक सत्ता है, जिसे महत् कहते हैं। महत् आकाश एवं प्राण का निर्माण नहीं करता,
स्वयं उनका रूप धारण कर लेता है।
अब मैं मन, आत्मा तथा ईश्वर के संबंध में चर्चा करूँगा। सर्वमान्य सांख्य
दर्शन के अनुसार चाक्षुष प्रत्यक्ष के लिए चक्षु जैसे उपकरणों की आवश्यकता
होती हैं। इन उपकरणों के पीछे चाक्षुष स्नायु-तंतु तथा उसके स्नायु-केंद्र-
दर्शनेंद्रिय हैं। ये बाह्य उपकरण नहीं है, फिर भी इनके बिना आँखे देख नही
सकती। प्रत्यक्ष के लिए अन्य उपकरण की भी आवश्यकता होती है। इंद्रिय के साथ मन
का संयोग भी आवश्यक हैं। फिर बुद्धि से भी संवेदना का संयोग आवश्यक है,
क्योंकि मन की वह शक्ति जिससे रूप निर्धारण करने वाली प्रतिक्रिया उत्पन्न
होती है, बुद्धि ही है। बुद्धि के कारण जब प्रतिक्रिया उत्पन्न होती है, तब
साथ ही साथ बाह्य जगत् तथा अहंकार प्रतिभासित हो उठते हैं। और तब इच्छा
उत्पन्न होती है। मन के स्वरूप का वर्णन यहीं पूरा नहीं होता। जैसे प्रकाश
के आनुक्रमिक संवेगो से रचित चित्र को संपूर्ण बनाने के लिए उसका किसी स्थिर
आधार पर संघटित होना आवश्यक है, उसी प्रकार मन के लिए यह आवश्यक है कि उसके
सभी प्रत्यय सम्मिलित हों और शरीर एवं मन से अपेक्षाकृत अधिक स्थिर सत्ता पर
उनका प्रक्षेपण हो। ऐसी स्थिर सत्ता को पुरुष या आत्मा करते हैं।
सांख्य दर्शन के अनुसार मन की प्रतिक्रियात्मक शक्ति, जिसे बुद्धि की संज्ञा
दी जाती है, महत् से उद्भूत होती है। ऐसा कहा जा सकता है कि बुद्धि महत् का
परिवर्तित रूप है या उसकी अभिव्यक्ति है। महत् स्पदंनशील बुद्धि में
परिवर्तित होता है। बुद्धि का एक अंश इंद्रियों में तथा दूसरा अंश तन्मात्राओं
में परिवर्तित होता है। इन सबके संयोग से विश्व का निर्माण होता है। सांख्य के
अनुसार महत् के परे भी सत् की एक अवस्था है, जिसे अव्यक्त कहते हैं। इस
अवस्था में मन का अस्तित्व नहीं रहता, केवल इसके कारण विद्यमान रहते हैं।
सत् की इस अवस्था को प्रकृति भी कहते हैं। प्रकृति से पुरुष सतत भिन्न होता
है। सांख्य के अनुसार पुरुष ही आत्मा है, जो निर्गुण तथा सर्वव्यापी होता है।
पुरुष कर्ता नहीं, द्रष्टा मात्र है। पुरुष का स्वरूप समझाने के लिए स्फटिक का
उदाहरण दिया जाता है, स्फटिक स्वयं बिना रंग का होता है, किंतु यदि किसी
प्रकार का रंग उसके समीप रखा जाता है, तो वह उसी प्रकार के रंग में रंगा दीख
पड़ता है। वेदांती सांख्य के आत्मा एवं जगत् संबंधी मतों को नहीं मानते। सांख्य
के अनुसार पुरुष एवं प्रकृति के बीच बड़ा पार्थक्य है। इस प्रार्थक्य को दूर
करना आवश्यक है। सांख्य इसे दूर करना चाहता है, पर सफल नहीं होता। जब पुरुष
वास्तव में रंगहीन है, तो उस पर प्रकृति का रंग कैसे चढ़ सकता है? इसलिए
वेदांती मौलिक स्तर पर ही यह मानते हैं कि पुरुष और प्रकृति अभिन्न है। [7] द्वैतवादी भी यह स्वीकार
करते हैं कि आत्मन् या ईश्वर संसार का केवल निमित्त कारण ही नहीं, उपादान कारण
भी है। किंतु यथार्थं में वे ऐसा केवल कहते हैं। उनके कहने का अभिप्राय दूसरा
होता है, क्योंकि उनके विचारों से जो सही परिणाम निकलते हैं, उनको वे स्वीकार
नहीं करना चाहते। वे कहते हैं कि विश्व में तीन प्रकार की सत्ताएँ हैं - ईश्वर, आत्मा और प्रकृति। प्रकृति और आत्मा
मानो ईश्वर का शरीर हैं। इस कारण यह कहा जा सकता है कि ईश्वर और प्रकृति
अभिन्न हैं। किंतु पारमार्थिक दृष्टि से तो प्रकृति और आत्माओं में भिन्नता
रह जाती है। सृष्टि-चक्र के प्रारंभ होने पर वे व्यक्त रूप धारण करती हैं और
जब सृष्टि-चक्र का अंत होता है, तो वे सूक्ष्म रूप धारण कर लेती हैं और
सूक्ष्मावस्था में ही रहती हैं। अद्वैत वेदांती आत्मा की इस व्याख्या को नहीं
मानते और इसके मत का समर्थन तो प्राय: सभी उपनिषदों में पाया जाता हैं।
उपनिषदों के आधार पर ही वे अपने दर्शन का प्रतिपादन करते हैं। सभी उपनिषदों का
विषय एक है, उद्देश्य एक है - निम्नलिखित विचार को स्थापित करना : 'मिट्टी के
एक टुकड़े के बारे में ज्ञान प्राप्त कर लेने से हम संसार की सभी मिट्टी के
बारे में ज्ञान प्राप्त कर लेते हैं। इसी प्रकार अवश्य ऐसा कोई तत्त्व है,
जिसको जान लेने से हम संसार की सभी वस्तुओं का ज्ञान प्राप्त कर ले सकते हैं।
वह तत्त्व क्या हैं?'[8]
अद्वैतवादी समस्त विश्व को एक सामान्य रूप देना चाहते हैं, विश्व के एकमात्र
तत्त्व को बतलाना चाहते हैं। कि उनका मूल सिद्धांत यह हैं कि सारा विश्व एक है
और एक ही सत् नानारूपों में प्रतिभासित होता है। उनके अनुसार सांख्य की
प्रकृति का अस्तित्व तो है, परंतु प्रकृति ईश्वर से अभिन्न है। विश्व, मनुष्य,
जीवात्मा तथा जितनी भी अन्य सत्ताएँ है, सभी सत् के ही भिन्न रूप हैं। मन तथा
महत् उसी सत् के व्यक्त रूप है। इस मत के विरोध में कहा जा सकता है कि यह तो
सर्वेश्वरवाद (pantheism) है। यह भी प्रश्न उठ सकता है कि अपरिवर्तनशील सत्
(वेदांती सत् को ऐसा ही मानते हैं, क्योंकि जो निरपेक्ष है, वह अपरिवर्तनशील
है) परिवर्तनशील तथा नाशवान में कैसे परिवर्तित हो सकता है? इस समस्या के
समाधान में (अद्वैत) वेदांती विवर्तवाद के सिद्धांत को प्रस्तुत करते हैं।
सांख्य मतानुयायियों तथा द्वैतवादियों के अनुसार सारा विश्व प्रकृति से उद्भूत
हुआ है। कुछ अद्वैतवादियों तथा कुछ द्वैतवादियों के अनुसार, सारा विश्व ईश्वर
से उत्पन्न हुआ है। किंतु शंकाराचार्य के अनुयायियों के अनुसार (सही अर्थ में
ये ही अद्वैतवादी हैं) समस्त विश्व ब्रह्म का प्रतिभासिक रूप है। ब्रह्म विश्व
का वास्तविक नहीं, केवल आभासी उपादान कारण हैं, इस संबंध में रज्जु और सर्प का
प्रसिद्ध उदाहरण दिया जाता है। रज्जु सर्प जैसी आभासित होती है, वह वास्तव में
सर्प नहीं है। उसका सर्प में परिवर्तन नहीं होता। इसी तरह सारा विश्व वास्तव
में सत् है। सत् का परिवर्तन नहीं होता। हम इसमें जितने भी परिवर्तन पाते
हैं, सभी आभास मात्र हैं। ये परिवर्तन देश काल तथा निमित्त के कारण होते हैं ;
मनोवैज्ञानिक सिद्धांत की दृष्टि से नाम - रूप के कारण होते हैं। नाम और रूप
के द्वारा ही एक वस्तु की दूसरी वस्तु से भेद किया जाता है। अत: नाम और रूप
ही उन वस्तुओं के भेद के कारण हैं। वास्तव में दोनों वस्तुएँ एक हैं। (अद्वैत)
वेदांतियों के अनुसार सत् और जगत् (phenomenon) परस्पर भिन्न सताएँ नहीं
हैं। रज्जु का सर्प जैसा दीखना भ्रमात्मक हैं। भ्रम के समाप्त होने पर सर्प का
दिखना भी समाप्त हो जाता है। अज्ञानवश व्यक्ति जगत् नहीं होता। अज्ञान, जिसे
माया कहते हैं, जगत् का कारण हैं, क्योंकि इसी के कारण निरपेक्ष अपरिवर्तनशील
सत् व्यक्त जगत् के रूप में प्रतिभासित होता है। माया शून्य या असत् नहीं है।
यह सत् भी नहीं है, क्योंकि निरपेक्ष अपरिवर्तनशील तत्त्व ही एकमात्र सत् है।
परमार्थिक दृष्टि से तो माया को असत् कहा जाना चाहिए, किंतु असत् भी नहीं कहा
जा सकता , क्योंकि तब तो इसके कारण जगत् का प्रतिभासित होना भी संभव नहीं हो
सकता। अत: यह न तो सत् है, न असत् है। वेदांत में इस अनिर्वचन करते हैं। यही
जगत् का यथार्थ कारण है। ब्रह्म उपादन कारण है और माया नाम - रूप का कारण है।
ब्रह्म नाना रूपों में परिवर्तित जैसा प्रतिभासित होता है। इस प्रकार
अद्वैतवादियों के लिए जीवात्मा का स्वतंत्र अस्तित्व नहीं है। उनके अनुसार
माया ही जीवात्मा के अस्तित्व का कारण है। पारमार्थिक दृष्टि से उसका अपना
कोई अस्तित्व नहीं है। इस प्रकार सत्ता यदि केवल एक है, तो यह कैसे संभव हो
सकता है कि मैं एक पृथक सत्ता हूँ और तुम एक पृथक सत्ता हो? यथार्थ में हम लोग
सभी एक हैं। हमारी द्वैत दृष्टि ही सभी अनिष्ट का कारण है। जभी मैं यह समझता
हूँ कि मैं संसार से पृथक हूँ, तभी पहले भय उत्पन्न होता है और तब दु:ख का
अनुभव होता है। जहाँ व्यक्ति दूसरे से सुनता है, दूसरे को देखता है, वह अल्प
है। जहाँ व्यक्ति दूसरे को देखता नहीं, दूसरे को सुनता नहीं, वह भूमा है; वह
ब्रह्म है। भूमा में परम सुख है, अल्प में नहीं? [9]
अद्वैत दर्शन के अनुसार परम तत्त्व के विघटन से सांसारिक नाम रूपों के
प्रतिभासित होने के कारण मनुष्य का पारमार्थिक स्वरूप छिप जाता है। पर उसमें
वास्तविक परिवर्तन कदापि नहीं होता। निम्न से निम्न कीट में तथा उच्च से
उच्च मनुष्य में एक ही आध्यात्मिक तत्त्व विद्यमान है। कीट निम्न कोटि का
इसलिए है कि उसके देवत्व पर मायाजनित अध्यास अधिक रहता है। जिस पदार्थ में
इस तरह का अध्यास सबसे कम रहता है, वह सबसे ऊँची कोटि का होता है। सभी
वस्तुओं के पीछे उसी देवत्व का अस्तित्व है, और इसी से नैतिकता का आधार
प्रस्तुत होता है। दूसरों को कष्ट नहीं देना चाहिए। प्रत्येक व्यक्ति को
अभिन्न समझकर उसके साथ प्रेम करना चाहिए, क्योंकि समस्त विश्व मौलिक स्तर
पर एक है। दूसरे को कष्ट देना अपने आप को कष्ट देना है। दूसरे के साथ प्रेम
करना अपने आपसे प्रेम करना है। इसी से अद्वैत नैतिकता का वह सिद्धांत उद्भूत
होता है, जिसका समाहार एक आत्मोत्सर्ग शब्द में किया गया हैं। अद्वैत
वादियों के अनुसार जीवात्मा ही दु:खों का कारण है। व्यक्ति-सीमित जीवात्मा
के कारण मैं अपने को अन्य वस्तुओं से भिन्न समझता हूँ। अत: यही घृणा,
ईर्ष्या, दु:ख, संघर्ष आदि अनिष्टों का कारण है। इसके परिहार से सभी संघर्ष,
सभी दु:ख समाप्त हो जाते हैं। अत: इसका परिहार आवश्यक है। निम्न से निम्न
सत्ताओं के लिए भी हमें अपने जीवन का उत्सर्ग करने को तत्पर रहना चाहिए।
मनुष्य जब एक लघु कीट के लिए अपने जीवन तक का उत्सर्ग करने को तत्पर हो
जाता है, तो वह पूर्णत्व को प्राप्त कर लेता है। अद्वैतवादियों के अनुसार
पूर्णत्व ही जीवन का अभीष्ट है। मनुष्य जब उत्सर्ग के योग्य हो जाता है,
तो उसके अज्ञान का आवरण दूर हो जाता है और वह अपने को पहचान लेना है। जीवन -
काल में ही उसे यह अनुभव हो जाता है कि उसमें और संसार में कोई अंतर नहीं है।
कुछ समय के लिए तो ऐसे व्यक्ति के लिए जगत का नाश हो जाता है और वह समझ लेता
है कि उसका वास्तविक स्वरूप क्या है। किंतु जब तक उसके वर्तमान शरीर का
कर्म अवशिष्ट रहा है, तब तक उसे जीवन धारण करते रहना पड़ता है। ऐसी स्थिति
में अविद्या का आवरण तो नष्ट हो चुका रहता है, पर शरीर को कुछ अवधि के लिए
रहना पड़ता है। इसे वेदांती जीवन्मुक्ति कहते हैं। मनुष्य मरीचिका को देखकर
कुछ समय के लिए भ्रम में अवश्य पड़ जाता है, किंतु एक दिन मरीचिका विलीन हो
जाती है। बाद में मरीचिका के सम्मुख आने पर भी मनुष्य भ्रम में नहीं पड़ता।
मरीचिका जब पहली बार घटित होती है,मनुष्य सत्य और मिथ्या में भेद नहीं कर
सकता। किंतु जब वह एक बार नष्ट हो जाती है, तब नेत्रादि इंद्रियों के वर्तमान
रहनें के कारण मनुष्य उसे देखता तो है, पर उसकें कारण भ्रम में नहीं पड़ता।
अब तो उसे मरीचिका तथा वास्तविक जगत के भेद का ज्ञान प्राप्त रहता है।
इसीलिए वह मरीचिका के कारण भ्रम में नहीं पड़ता। इस प्रकार अद्वैत वेदांतियों
के अनुसार व्यक्ति जब अपने आपका यथार्थ ज्ञान प्राप्त कर लेता है, तो उसके
लिए संसार का मानो लोप हो जाता है। संसार का फिर से प्रत्यक्ष तो होता है,
किंतु अब वह दुख:मय नहीं रह जाता। जो संसार पहलें दु:खमय कारागार था, अब वह
सच्चिदानन्द हो जाता है। अद्वैत के अनुसार सच्चिदानन्द की अवस्था को
प्राप्त करना ही जीवन का अभीष्ट है।
वेदांत दर्शन - २
वेदांती कहता है कि मनुष्य न तो जन्म लेता है और न मरता या स्वर्ग जाता है ।
आत्मा के संबंध में पुनर्जन्म एक कल्पना मात्र है। पुस्तक के पन्ने उलटने
का उदाहरण लो। उलट-पुलट पुस्तक में हो रही है, उलटने वाले मनुष्य में नहीं।
प्रत्येक आत्मा सर्वव्यापी है, तब वह कहाँ आ-जा सकती है? ये जन्म और मरण
प्रकृति में होने वाले परिवर्तन हैं, जिन्हें हम प्रमादवश अपने में ही घटने
वाले परिवर्तन समझ रहे हैं।
पुनर्जन्म प्रकृति का क्रम-विकास तथा अंत:स्थित परमात्मा की अभिव्यक्ति
है।
वेदांत कहता है कि प्रत्येक जीवन अतीत का प्रतिफलस्वरूप है, और जब हम
संपूर्ण अतीत पर दृष्टि डाल सकने में सक्षम हो सकेंगे, तब हम मुक्त हो
जाएंगें। मुक्त होने की इच्छा बचपन से ही धार्मिक प्रवृत्ति का रूप धारण कर
लेती है। और कुछ वर्ष का समय मानो मानव की आँखों में सत्य को स्पष्ट कर
देता है। यह जीवन छोड़ने के बाद जब मनुष्य दूसरे जन्म की प्रतीक्षा में
रहता है, तब भी वह प्रपंचमय जगत के अंतर्गत ही है।
आत्मा का हम इन शब्दों में वर्णन करते हैं : इसे न तलवार काट सकती है, न
भाला छेद सकता है ; न आग जला सकती है, न पानी घुला सकता है; यह अविनाशी और
सर्वव्यापी है। अतएव इसके लिए रोना क्यों?
यदि यह अत्यंत पतित रही है, तो कालक्रम से उन्नत बन जाएगी। मूल सिद्धांत यह
है कि शाश्वत मुक्ति पर सबका अधिकार है। उसे सभी अवश्य प्राप्त करेंगे।
मोक्ष की इच्छा से प्रेरित होकर हमें प्रयत्न करना पड़ता है। मोक्ष की इच्छा
को छोड़कर अन्य सभी इच्छाएँ भ्रमात्मक हैं। वेदांती कहता है कि प्रत्येक
शुभ कार्य इस मुक्ति की ही अभिव्यक्ति है।
मैं यह नहीं मानता कि एक ऐसा भी समय आएगा, जब संसार से समस्त अशुभ लुप्त हो
जाएगा। यह कैसे हो सकता है? यह प्रवाह तो चलता ही रहेगा। जलराशि एक छोर से
निकलती रहती है, पर दूसरे छोर से जलसमूह आता भी रहता है।
वेदांत कहता है कि तुम पवित्र और पूर्ण हो। एक अवस्था ऐसी भी है, जो कि पाप
और पुण्य से परे है, और वही तुम्हारा प्रकृत स्वरूप है। वह अवस्था पुण्य
से भी ऊँची है। पुण्य में भी भेद-ज्ञान है, किंतु पाप से कम।
हमारे यहाँ पाप विषयक कोई सिद्धांत नहीं। हम तो उसे अज्ञान कहते हैं।
जहाँ तक नीतिशास्त्र, अन्य लोगों के प्रति व्यवहार आदि का संबंध है- यह सब
प्रपंचमय जगत के अंतर्गत है। सत्य तो यह है कि परमात्मा में अज्ञान जैसी
किसी वस्तु के आरोप करने की बात सोची ही नहीं जा सकती। उसके संबंध में हम
कहते हैं कि वह सत-चित-आनंदस्वरूप है। उस अतींद्रिय, निरपेक्ष सत्ता को विचार
और वाणी द्वारा व्यक्त करने का हमारा प्रत्येक प्रयत्न उसे इंद्रियग्राह्य
और सापेक्ष बना देगा, और इस तरह उसके वास्तविक स्वरूप को नष्ट कर देगा।
एक बात हमें ध्यान में रखनी होगी, और वह यह कि इंद्रियग्राह्य जगत् में 'मैं
ब्रह्म हूँ ' इस प्रकार का कथन नहीं किया जा सकता। यदि तुम इस नामरूपमय जगत
में आबद्ध हो और साथ ही अपने को ब्रह्म होने का भी दावा करो, तो तुम्हें
अनाचार करने से कौन रोक सकता है? अतएव तुम्हारे ब्रह्म होने की बात
इंद्रियातीत जगत के विषय में ही लागू हो सकती है। यदि मैं ब्रह्म हूँ, तो
इंद्रियवृत्तियों से मैं परे हूँ और पाप कर ही नहीं सकता। निश्चय ही, नैतिकता
मनुष्य का चरम लक्ष्य नहीं है, वह तो मोक्ष-प्राप्ति का साधन मात्र है।
वेदांत कहता है कि इस ब्रह्म-तत्त्व की अनुभूति का एक मार्ग 'योग' है। योग
अपने आंतरिक मुक्त स्वभाव की अनुभूति से होता है, और इस अनुभूति के सामने
सभी वस्तुएँ पराभूत हो जाती है। नैतिकता और आचार सभी अपने सम्यक स्थान में
विन्यस्त हो जाएँगे।
अद्वैत दर्शन के विरोध में जितनी भी आलोचनाएँ की गई हैं, उन सबका सारांश यह है
कि इंद्रिय-सुखों के भोग में बाधा पहुँचती है। हम हर्षपूर्वक इस बात को
स्वीकार करते हैं।
वेदांत दर्शन परम निराशावाद को लेकर प्रारंभ होता है और उसकी समाप्ति होती है
यथार्थ आशावाद में। हम ऐंद्रिक आशावाद को अस्वीकार करते हैं, परंतु
इंद्रियातीत आत्मानुभूति पर आधारित सच्चे आशावाद को स्वीकार करते हैं।
यथार्थ सुख इद्रियों में नहीं, इंद्रियों से परे है, और प्रत्येक व्यक्ति
में वह विद्यमान है। संसार में हम जो तथाकथित आशावाद देखते हैं, वह हमें
इंद्रियपरायण बनाकर विनाश की ओर ले जाता है।
हमारे दर्शन में निषेध (नेति-नेति) का बहुत बड़ा महत्त्व है। निषेधीकरण में
वास्तविक आत्मा का अस्तित्व-बोध निहित है। ऐंद्रिक जगत को अस्वीकार करने
के दृष्टिकोण से वेदांत निराशावादी है, पर इंद्रियातीत सच्चे जगत को स्वीकार
करने के दृष्टिकोण से वह आशावादी है।
यद्यपि वेदांत कहता है कि बुद्धि से भी परे कोई वस्तु है, तो भी यह मनुष्य
की तर्क-शक्ति को उचित मान्यता प्रदान करता है, उसकी अवहेलना नहीं करता;
क्योंकि उस वस्तु की प्राप्ति का मार्ग बुद्धि से होकर ही जाता है।
समस्त पुराने अंधविश्वासों को भगा देने के लिए हमें तर्क-बुद्धि की
आवश्यकता है; और अंत में जो बचा रहता है, वही वेदांत है। संस्कृत में एक
सुंदर कविता है, जिसमें एक साधु पुरुष अपने आप से कहता है,'मेरे मित्र, तू
कयों रोता है। तेरे लिए न भय है, न मृत्यु, तो क्यों रोता है? तेरे लिए कोई
दु:ख-कष्ट नहीं है, क्योंकि तू तो इस अनंत नीलाकाश की भाँति स्वभावत:
अपरिवर्तनशील है। नील गगन के सामने रंग-बिरंगे बादल आते हैं, क्षणभर खेल करते
हैं और फिर चले जाते हैं, पर आकाश ज्यों का त्यों ही रहता है। तुझे भी केवल
अज्ञानरूपी बादलों को भगा देना है।'
हमें केवल द्वार खोलकर रास्ता साफ कर देना है। पानी अपने आप वेग से आकर भर
जाएगा, क्योंकि वह वहाँ पहले ही से विद्यमान है।
मानव मन का अधिकांश चेतन एवं कुछ अंश अचेतन होता है, और उसके लिए चेतन से परे
चले जाना संभव है। यथार्थ मनुष्य बन जाने पर ही हम तर्कबुद्धि से अतीत हो
सकते हैं। 'उच्चतर' और 'निम्नतर' शब्दों का प्रयोग हम केवल प्रपंचमय जगत
में ही कर सकते हैं। इनका अतींद्रिय जगत के विषय में प्रयोग करना सहज ही
विरोधाभास है, क्योंकि वहाँ विभेद नहीं है। इस प्रपंचमय जगत में मनुष्य-योनि
उच्चतम है। वेदांती कहता है कि मानव देवता से भी ऊँचा है। समस्त देवताओं को
एक न एक दिन मरना ही होगा, और पुन: मनुष्य-जन्म लेना होगा-केवल मनुष्य शरीर
में ही वे पूर्णत्व लाभ कर सकेंगे।
यह सत्य है कि हम एक विचार-प्रणाली की-एक मत या वाद की-सृष्टि करते हैं,
किंतु हमें यह मानना पड़ेगा कि वह पूर्ण नहीं है, क्योंकि सत्य सभी
प्रणालियों से परे की चीज है। हम अपने उस मत की अन्य मतों से तुलना करने को
तैयार हैं, पर वह पूर्ण नहीं है, क्योंकि युक्ति स्वयं अपूर्ण है। तो भी,
वही एकमात्र युक्तिसंगत विचार-प्रणाली है, जिसकी धारणा मानव मन कर सकता है।
यह कुछ अंशों में सत्य है कि किसी भी मत के परिपुष्ट होने के लिए उसका
प्रचार होना चाहिए। किसी भी मत का उतना प्रचार नही हुआ, जितना कि वेदांत का।
अभी भी शिक्षा व्यक्तिगत संपर्क द्वारा ही होती है। बहुत सा पढ़ लेने से ही
'मनुष्य' का निर्माण नहीं होता। जितने भी यथार्थ मनुष्य हो चुके हैं, वे सब
व्यक्तिगत संपर्क द्वारा ही बने थे। यह सत्य है कि ऐसे यथार्थ मनुष्य बहुत
कम संख्या में हैं, पर उनकी संख्या बढ़ेगी। तो भी यह विश्वास नहीं किया जा
सकता कि एक ऐसा भी दिन आएगा,जब हम सबके सब दार्शनिक बन जाएंगे। हमारा इस बात
में विश्वास नहीं कि कभी ऐसा समय आएगा, जब केवल सुख ही सुख रहेगा और दु:ख
सर्वथा अभाव हो जाएगा।
हमारे जीवन में कुछ क्षण ऐसे आते हैं, अजब हमें परमानंद की झलक मिल जाती है,
और उस समय हम न कुछ लेना चाहते हैं, न देना -उस महदानंद की अनुभूति की अवस्था
में हम उस आनंद को छोड़ भी अनुभव नहीं करते। पर ये क्षण लुप्त हो जाते हैं और
पुन: हम विश्व के प्रपंच को अपने सामने चलते-फिरते देखते हैं। हम जानते हैं
कि यह सब सभी वस्तुओं के आधारस्वरूप ईश्वर पर चित्रित रंग-बिरंगी
पच्चीकारी मात्र है।
वेदांत शिक्षा देता है कि निर्वाण-लाभ यहीं और अभी हो सकता है, उसके लिए हमें
मृत्यु की प्रतीक्षा करने की आवश्यकता नहीं। निर्वाण का अर्थ है
आत्म-साक्षात्कार कर लेना; और यदि एक बार कभी, वह चाहे क्षणभर के लिए ही
क्यों हो, हमें यह अवस्था प्राप्त हो गई, तो फिर कभी भी हम व्यक्तित्व की
भ्रांति से विमोहित न हो सकेंगे। हमारे चक्षु हैं, अत: हम प्रतीयमान वस्तु को
ही देखते हैं, पर हमने इसके वास्तविक स्वरूप को जान लिया है और हमें सदैव यह
ज्ञान रहता है कि वह है क्या; हमने उसके वास्तविक स्वरूप को जान लिया है। यह
वह आवरण है, जिसने अपरिणामी आत्मा को ढक रखा है। आवरण खुल जाता है और तब हम
इसके पीछे अवस्थित आत्मा को देख देख पाते हैं। सभी परिवर्तन या परिणाम आवरण
में ही होते हैं। साधु पुरुष में यह आवरण इतना महीन होता है कि उसमें आत्मा
की हमें स्पष्ट झलक दिखाई पड़ती है; पर पापी में यह आवरण इतना मोटा होता है
कि हम इस सत्य में संशय करने लग जाते हैं कि पापी के पीछे भी वही आत्मा है,
जो साधु पुरुष के पीछे विद्यमान है। जब संपूर्ण आवरण हट जाता है, तब हम देखने
लगते हैं कि वास्तव में आवरण का अस्तित्व किसी काल में नहीं था - हम सदैव
आत्मा ही थे, अन्य कुछ भी नहीं; यहाँ तक कि आवरण की बात ही भूल जाती है।
जीवन में इस विभेद के दो चरण हैं : पहला तो यह कि जो मनुष्य आत्मज्ञानी है,
उस पर किसी भी बात का प्रभाव नहीं पड़ता और दुसरे, ऐसा ही मनुष्य संसार का
हित कर सकता है। केवल वही मनुष्य परोपकार का वास्तविक उद्देश्य समझ सकता है,
क्योंकि वह जानता है कि ब्रह्म-अतिरिक्त अन्य कुछ है ही नहीं। इस उद्देश्य
को हम अहंवादिता नहीं कह सकते, क्योंकि ऐसा होने से तो उसमें भेद-ज्ञान आ
जाएगा। यही एकमात्र नि:स्वार्थपरता है। इस अवस्था में व्यक्ति का बोध नहीं
होता, सर्वगत आत्मा का बोध होता है। प्रेम और सहानुभूति का प्रत्येक कार्य
इसी सर्वव्यापी तत्त्व की पुष्टि करता है। 'मैं नहीं, तू।' दार्शनिक ढंग से
इसे यों कह सकते हैं कि दूसरों की सहायता इसलिए करो कि तुम उसमें और वह तुममें
है। केवल सच्चा वेदांती ही बिना किसी दु:ख या हिचकिचाहट के दूसरे के लिए अपना
जीवन दे सकता है, क्योंकि वह जानता है कि वह अमर है। जब तक संसार में एक कीड़ा
भी जीवित है, अत: वह दूसरों का हित करता जाता है; और शरीर - रक्षा के इन
आधुनिक विचारों की तनिक भी परवाह नहीं करता। जब मनुष्य इस त्याग की अवस्था
में आरूढ़ हो जाता है, तब वह नैतिक संघर्ष के समस्त वस्तुओं के परे चला जाता
है। तब, वह महापंडित, गाय, कुत्ते और घृणित से घृणित पदार्थों में विद्वान,
गाय, कुत्ता घृणित पदार्थ नहीं देखता, किंतु सर्वभूतों में उसी देवत्व का
प्रकाश देखता है। केवल वही सुखी है। और जिसने इस एकत्व का अनुभव कर लिया है,
उसने इस जीवन में ही संसार पर विजय प्राप्त कर ली है। परमात्मा पवित्र है;
अत: ऐसा व्यक्ति परमात्मा में अवस्थित कहा जाता है। ईसा मसीह ने कहा है,'मैं
अब्राहम'[10] के भी पहले से
हूँ।' इसका अर्थ यह है कि ईसा और उनकी तरह के अन्य लोग मुक्त आत्माएँ हैं।
ईसा ने पूर्व कर्मों से बाध्य होकर मनुष्य-शरीर ग्रहण नहीं किया, किंतु केवल
मानव जाति का हित करने के लिए उन्होंने नर-देह धारण की। यह बात नहीं है कि
मुक्त होने पर मनुष्य कर्म करना छोड़ दे और निर्जीव मिट्टी का ढेर बन जाए,
प्रत्युत वह अन्य लोगों की अपेक्षा अधिक कर्मशील होता है, क्योंकि अन्य
लोग तो केवल बाध्य होकर कर्म करते हैं, पर वह स्वतंत्र होकर।
यदि हम ईश्वर से अभिन्न हैं, तो क्या हमारा पृथक व्यक्तित्व नहीं है?
हाँ, है, और वह है ईश्वर। हमारा व्यक्तित्व देख रहे हो, वह तुम्हारा
यथार्थ व्यक्तित्व नहीं-तुम यथार्थ व्यक्तित्व की ओर अग्रसर हो रहे हो।
'इंडिविजुअल्टी' (व्यक्तित्व) का अर्थ है जिसका 'डिवीजन'(विभाजन) न हो सके।
तुम वर्तमान व्यक्तित्व को व्यक्तित्व कैसे कह सकते हो? अभी तुम एक तरह से
सोच रहे हो, घंटे भर बाद कुछ दूसरी तरह से चिंता करने लगते हो, और दो घंटे बाद
कुछ तीसरी ही तरह से। व्यक्तित्व तो वह है, जो बदलता नहीं-वह समस्त
वस्तुओं से परे है,अपरिणामी है। यदि यह वर्तमान स्थिति ही चिरकाल तक बनी रहे,
तो यह बड़ी ही भयानक बात होगी; क्योंकि तब तो चोर या दुष्ट सदैव चोर या
दुष्ट ही बना रहेगा। यदि किसी बच्चे की मृत्यु हो जाए, तो वह सदा बच्चा ही
बना रहेगा। यथार्थ व्यक्तित्व वह है, जिसमें कभी भी परिवर्तन नहीं होता, और
न होगा-और वह है अंत:स्थित परमात्मा।
वेदांत वह विशाल सागर है, जिसके वक्ष पर युद्ध-पोत और साधारण बेड़ा दोनों पास
पास रह सकते हैं। वेदांत में यथार्थ योगी, मूर्तिपूजक, नास्तिक इन सभी के लिए
पास पास रहने को स्थान है। इतना ही नहीं, वेदांत-सागर में हिंदू, मुसलमान,
ईसाई या पारसी सभी एक हैं - सभी उस सर्वशक्तिमान परमात्मा की संतान हैं।
क्या वेदांत भावी युग का धर्म होगा
?
(सैनफ्रांसिस्को में ८ अप्रैल, १९०० ई. को दिया गया भाषण)
इधर लगभग महीने भर मेरे व्याख्यानों में उपस्थित रहने से तुम लोगों को अब तक
वेदांत दर्शन के आधारभूत सिद्धांतों का थोड़ा-बहुत परिचय मिल चुका होगा। संसार
भर में प्राचीनतम धर्म-दर्शन है वेदांत, लेकिन वह लोकप्रिय हुआ है, ऐसा कदापि
नहीं कहा जा सकता। इसलिए 'क्या वेदांत भावी युग का धर्म होगा?' इस प्रश्न का
उत्तर दे सकना बड़ा कठिन है।
मैं यह पहले ही बता दूँ कि अधिकांश मानवता कभी इसे अपना धर्म मानेगी, इसका मैं
अनुमान नहीं लगा पाता। क्या संयुक्त राज्य अमेरिका जैसे एक समग्र राष्ट्र
को वह कभी प्रभावित कर सकेगा? शायद वह कर सके। जो भी हो, आज की संध्या का
प्रतिपाद्य विषय यही रहेगा।
वेदांत क्या नहीं है, इससे आरंभ कर, वेदांत क्या है, इसका परिचय दूँगा।
लेकिन यह याद रखो कि निरपेक्ष सिद्धांतों पर जोर देने के साथ साथ वेदांत का
किसी अन्य विचारधारा से विरोध नहीं है। हाँ, मौलिक सिद्धांतों का जहाँ तक
संबंध है, उसका किसी से समझौता या अपने सत्य पक्ष का त्याग संभव नहीं है।
तुम सबको मालूम है कि धर्म के निर्माण के लिए कुछ उपादान आवश्यक होते हैं।
इनमें ग्रंथ का स्थान सर्वोपरि है। ग्रंथ की शक्ति अद्भुत है। कारण जो भी
हों, ग्रंथ मानवीय श्रद्धा के ध्रुव केंद्र हैं। आज के जीवित धर्मों में ऐसा
कोई भी नहीं है, जिसका अपना ग्रंथ न हो। तर्कवाद और लंबी-चौड़ी बातों के
बावजूद मानवता ग्रंथों से चिपकी हुई है। आपके देश में ही ग्रंथरहित धर्म के
प्रचार का सारा प्रयास विफल हुआ है। भारत में संप्रदायों का आरंभ तो
सफलतापूर्वक हो जाता है, किंतु कुछ ही वर्षों में वे इसलिए दिवंगत हो जाते हैं
कि उनके पीछे कोई ग्रंथ नहीं होता। यही अन्य देशों में होता है।
एकत्ववादी (Unitarian) आंदोलन के उत्थान और पतन के इतिहास को लो। वह
तुम्हारे राष्ट्र के सर्वोच्च चिंतन का प्रतीक है। मेथाडिस्ट
(Methodist), बैप्टिस्ट (Baptist) और इतर ईसाई संप्रदायों की भाँति उसका
प्रचार क्यों नहीं हो सका? कारण स्पष्ट है। उसका अपना कोई ग्रंथ न था। ठीक
विपरीत यहूदियों को देखो। मुट्ठी भर लोग, हर राष्ट्र से खदेड़े जाने पर भी
संघटित हैं, क्योंकि उनका अपना धर्मग्रंथ है। पारसियों को लो, दुनिया भर में
वे केवल एक लाख ही होंगे। जैन संप्रदाय के अनुयायी भारत में दस ही लाख रह गए
हैं। क्या तुम जानते हो कि ये थोड़े से पारसी और जैनी केवल अपने धर्मग्रंथों
की बदौलत ही जीवित हैं? आज जितने भी जीवित धर्म हैं, उनमें से प्रत्येक का
अपना स्वतंत्र धर्मग्रंथ है।
धर्म की दूसरी आवश्यकता है व्यक्ति विशेष के प्रति पूज्य भाव। यह विशिष्ट
व्यक्ति विश्व के स्वामी या महान उपदेशक के रूप में पूजा जाता है। मनुष्य
के लिए किसी देहधारी मानव की उपासना करना अनिवार्य है। कई अवतारी पुरुष,
पैगंबर या महान नेता मानव को चाहिए ही। सारे धर्मों में अवतार की मान्यता है।
बौद्ध, इस्लाम, यहूदी आदि धर्मों में पैगंबर को गौरवपूर्ण स्थान प्राप्त
है। लेकिन लक्ष्य सबका समान है -उनकी पूजा-भावना किसी व्यक्ति या व्यक्ति
समुदाय पर केंद्रित है।
धर्म की तीसरी आवश्यकता यह है कि सबल और आत्म-विश्वासयुक्त होने के लिए
उसे केवल अपने को ही सत्य मानना चाहिए। अन्यथा जन-समाज पर उसका प्रभाव नहीं
के बराबर होगा।
उदारवादिता (Liberalism) मानव मन में धर्मांधता को जगा नहीं पाती, स्वयं अपने
को छोड़कर किसी अन्य के प्रति शत्रुता का भाव नहीं जगा सकती, अत: वह मर जाती
है। इसीलिए उदारता को बार बार पराभूत होना पड़ेगा उसका प्रभाव भी इने-गिनों तक
सीमित रहता है। इसका कारण भी स्पष्ट है। उदारवादिता हमें स्वार्थरहित बनाने
की चेष्टा करती है। लेकिन हम नि:स्वार्थी नहीं होना चाहते। उससे कोई
तात्कालिक लाभ नहीं होता। स्वार्थी बने रहने में ही हमारा अधिक हित है। जब
हम गरीब या साधनहीन होते हैं, हम उदारता की हामी भरते हैं। धन और शक्ति-संचय
के क्षणसे ही हम अतीव अनुदार हो जाते हैं। गरीब जनतंत्रवादी होता है। धनी बनते
ही वह सामंत बन जाता है। मानव - स्वभाव की यही प्रवृत्ति धर्मक्षेत्र में भी
दिखाई पड़ती है।
किसी पैगंबर का आविर्भाव होता है। वह अपने अनुयायियों को हर तरह कें
पुरस्कारों का वचन और अनुसरण न करने वालों को चिरंतन नरक की धमकी देता है। और
इस प्रकार वह अपने पंथ का प्रचार करता है। वर्तमान सारे प्रचारशील धर्म घोर
कट्टरपंथी हैं। कोई संप्रदाय अन्य संप्रदायों से जितनी घृणा करेगा, उतना ही
वह सफल होगा और अपने अनुयायियों की संख्या उत्तरोत्तर बढ़ाता जाएगा। संसार के
अधिकतर भागों में भ्रमण करने के उपरांत और विविध जातियों के मध्य रहने एवं
विश्व की वर्तमान स्थिति को ध्यान में रखते हुए हुए मैं इसी निष्कर्ष पर
पहुँचा हूँ कि विश्व-बंधुत्व के संबंध में इतनी बातें होते रहने पर भी
प्रस्तुत स्थिति चलती ही रहेगी।
वेदांत इनमें से किसी पर भी विश्वास नहीं करता। उसकी सबसे मौलिक कठिनाई यही
है कि किसी ग्रंथ पर उसकी आस्था नही है। एक ग्रंथ का दूसरे पर अधिकार उसे
मान्य नहीं। कोई भी ग्रंथ ईश्वर, जीव, परम तत्त्व आदि संबंधी सभी सत्यों का
आश्रय हो सकता है, इस दावे का वह प्रबल विरोध करता है। तुममें से जिन्होंने
उपनिषद पढ़े हैं, उन्हें मालूम होगा कि उनकी बार-बार यही घोषणा है -
नायमात्मा प्रवचनेन लभ्यो, न मेधया (इस आत्मा को प्रवचन से अथवा बुद्धि से
प्राप्त नहीं किया जा सकता)।
दूसरे, वह व्यक्तिविशेष की आराधना को और भी अधिक अग्राह्य मानता है। तुममें
से वेदांत के विद्यार्थी - वेदांत से आशय उपनिषद हैं - जानते हैं कि केवल यही
धर्म किसी व्यक्ति विशेष से चिपका नहीं है। कोई भी एक स्त्री या पुरुष
वेदांतियों की आराधना का पात्र नहीं बन सका है। यह संभव भी नहीं। कोई मानव
किसी पक्षी या कीट की अपेक्षा अधिक पूज्य नहीं होता। हम सब भाई हैं। अंतर
केवल परिमाण का है। जो क्षुद्र कीट है, बिल्कुल वही मैं भी हूँ । इस प्रकार
तुम देखतें हो कि वेदांत में, किसी व्यक्ति का हमारे आगे खड़ा होना, और हम
सबका उसकी आराधना करना, उसका हमें घसीटते हुए आगे बढ़ाना और हमारा उद्धार
करना, इसकी संभावना ही नहीं है। वेदांत आपको यह सब नहीं देता। कोई ग्रंथ नहीं,
पूजा के लिए कोई व्यक्ति नहीं, कुछ भी नहीं।
इससे भी अधिक कठिनता ईश्वर संबंधी है। इस देश में तुम जनतंत्रवादी रहना चाहते
हो? वेदांत जनतंत्रीय ईश्वर का ही उपदेश करता है ।
तुम्हारी सरकार है ; पर सरकार व्यक्ति-निरपेक्ष है। तुम्हारी कोई तानाशाही
सरकार नहीं, फिर भी दुनिया के किसी भी राजतंत्र की अपेक्षा अधिक शक्तिशाली है।
शायद यह कोई भी नहीं समझ पाता कि यथार्थ शक्ति, यथार्थ जीवन एवं वास्तविक बल
अदृश्य, निरपेक्ष तथा शून्य सत्ता में छिपे हैं। दूसरों से अलग मात्र
व्यक्तिकी हैसियत से तुम्हारी कोई सत्ता नहीं, लेकिन स्वशासित राष्ट्र की
अवैयक्तिक इकाई के रूप में तुम अतीव बलशाली हो। शासन- व्यवस्था में सम्मिलित
सदस्य समूह के नाते तो महान शक्तिशाली हो। किंतु यथार्थत : यह शक्ति है कहाँ?
हर व्यक्ति ही वह शक्ति है। कोई राजा नहीं। मैं सबको समान देखता हूँ। किसी के
सामने मुझे टोपी उतारना या सिर झुकाना नहीं पड़ा हे। फिर भी हर व्यक्ति में
अद्भुत शक्ति छिपी हुई है।
वेदांत पूर्णरूपेण यही है । उसका ईश्वर, सर्वथा सबसे दूर, एक ऊँचे सिंहासन पर
विराजने वाला महाराजा नहीं। ऐसे लोग भी हैं, जो अपना ईश्वर उसी रूप में देखना
चाहते हैं, जिससे सभी भयभीत हों और जिसको प्रसन्न रखा जाए। वे उसके सामने दीप
जलाते हैं और नाक रगड़ते हैं। वे एक राजा से शासित होना चाहते हैं और यहाँ की
भाँति स्वर्ग में भी शासित होने की बात पर विश्वास रखते हैं। कम से कम इस
राष्ट्र से तो राजा मिट ही गया है। अब स्वर्ग का राजा है कहाँ? केवल वहीं
जहाँ लौकिक राजा है। इस देश में राजा प्रत्येक मनुष्य में निहित हो गया हैं।
यहाँ तुम सब लोग राजा हो। यही वेदांत का भी ध्येय है। तुम सब ईश्वर हो। केवल
एक ईश्वर पर्याप्त नहीं। वेदांत का अभिमत है, तुम सब ईश्वर हो।
इससे वेदांत की कठिनाई और भी बढ़ जाती है। वह ईश्वर की पुरानी धारणा का
प्रतिपादन करता ही नहीं। सुरलोक में रहकर हमारी अनुमति के बिना ही संसार की
गतिविधि का आयोजन करने वाले, अपनी लीला के लिए शून्य से हमारा सर्जन करने
वाले और निज परितोष के लिए हमें आपदग्रस्त करने वाले ईश्वर की जगह वेदांत
सर्वांतर्यामी, सर्वव्यापक ईश्वर का निरूपण करता है। इस राष्ट्र से तो
राजराजेश्वर की विदाई हो चुकी है। लेकिन वेदांत से तो स्वर्ग का साम्राज्य
सहस्त्रों वर्ष पूर्व ही लुप्त हो गया था।
भारत लौकिक परम भट्टारक का परित्याग नहीं कर सकता। इसी कारण वेदांत भारत का
धर्म नहीं हो सकता। जनतंत्र के कारण वेदांत इस राष्ट्र का धर्म हो सकता है,
परंतु यह उसी हालत में संभव है जब तुम दिमाग में धुँधली विचारधाराओं एवं
अंधविश्वासों वाले मनुष्य न बनकर उसे भली भाँति समझ सको और समझो, जब तुम
सच्चे स्त्री-पुरुष बनो और जब तुम सच्चे अर्थों में आध्यात्मिक बनो,
क्योंकि वेदांत केवल अध्यात्म का ही विषय है।
स्वर्गस्थ ईश्वर की धारणा क्या है? भौतिकवाद। ईश्वरीय अनंत तत्त्व जो हम
सबमें समाविष्ट है, वेदांत की धारणा है। बादलों के ऊपर विराजने वाला ईश्वर !
इसकी निरी ईशतिरस्कारिता पर विचार करो। यह भौतिकवाद है, कोरा भौतिकवाद। यदि
शिशु ऐसा सोचें तो काई बात नहीं। लेकिन परिपक्व बुद्धि वाले ऐसी बातों की
शिक्षा देने लगें, तो यह अत्यधिक अरूचिकर है-यही उसका फल होता है। यह सब कुछ
जड़ है, देह-भाव है, स्थूल भाव है, इंद्रीयगोचर विषय है। उसका प्रत्येक अंश
मिट्टी है, कोरी मिट्टी है। यह भी कोई धर्म है? अफ़्रीका के मम्बो-फ़म्बो
'धर्म' की भाँति यह कोई धर्म नहीं है। ईश्वर आत्मा है और आत्मा एवं सत्य
के द्वारा ही उसकी उपासना होनी चाहिए। क्या आत्मा मात्र स्वर्ग-निवासी है?
आत्मा है क्या? हम सब आत्मा है। क्या कारण है कि हम इसकी अनुभूति नहीं
करते? कौन मुझसे तुम्हें अलग करता है? देह और कुछ नहीं। देह को भूलो, और सब
आत्मा ही है।
ये वे बातें है, जो वेदांत से अपेक्षित नहीं है। कोई धर्मग्रंथ नहीं। शेष
मनुष्य जाति से पृथक् कोई मनुष्य नहीं,'तुम कीट मात्र और हम जगदीश्वर' ऐसा
कुछ नहीं। यदि तुम जगदीश्वर प्रभु हो तो मैं भी जगदीश्वर प्रभु हूँ। अत:
वेदांत पाप नहीं मानता। भूलें जरूर हैं, लेकिन पाप नहीं। कालांतर में सब ठीक
होने वाला है। कोई शैतान नहीं -ऐसी कोई बकवास नहीं। वेदांत के अनुसार जिस क्षण
तुम अपने को या इतर जन को पापी समझते हो, वही पाप है। इसी से अन्य सब भूलों
का या उनका जिन्हें बहुधा पाप की संज्ञा दी जाती है, सूत्रपात होता है। हमारे
जीवन में अनेक भूलें हुई हैं। फिर भी आगे हम बढ़ते ही रहे हैं। हमसे भूलें
हुई, इसमें हमारा गौरव है। बीते जीवन का सिंहावलोकन करो। यदि तुम्हारी आज की
हालत अच्छी है, तो उसका श्रेय सफलताओं के साथ साथ पिछली भूलों को भी मिलना
चाहिए। सफलता भी गौरवशालिनी ! विफलता भी गौरवशालिनी ! बीते हुए की चिंता मत
करो। आगे बढ़ो !
इस तरह तुम देखते हो कि वेदांत पाप और पापी की स्थापना नहीं करता। वह
(ईश्वर) एक ऐसी सत्ता है, जिससे हम कदापि आतंकित नहीं होंगे; क्योंकि वह
हमारी अपनी आत्मा है। उसमें भीति जगाने वाले ईश्वर का आतंक नहीं। केवल एक ही
सत्ता है, जिससे हमें डर नहीं है, वह ईश्वर का आतंक नहीं। केवल एक ही सत्ता
है, जिससे हमें डर नहीं है, वह ईश्वर है। तो क्या ईश्वर से डरने वाला
प्राणी ही यथार्थ में सबसे बड़ा अंधविश्वासी नहीं है? निज छाया से कोई भयभीत
भले ही हो उठे, किंतु वह भी निज से संत्रस्त नहीं है। ईश्वर मानव की ही
आत्मा है। वही एक ऐसी सत्ता है, जिससे तुम कदापि भयभीत नहीं हो सकते। ईश्वर
का भय व्यक्ति के अंतराल में घर कर जाए, वह उससे थर्रा उठे, ये सब बातें
अनर्गल नहीं तो और क्या हैं? ईश्वर की कृपा कहो कि हम सब पागलखाने में नहीं
है ! यदि हममें से अधिकांश पागल न हों, तो हम 'ईश्वर-भीति' जैसी धारणा का
आविष्कार ही क्यों करें? भगवान बुद्ध का कथन था कि न्यूनाधिक मात्रा में
सारी मानवता विक्षिप्त है। लगता है कि यह पूर्णत: सत्य है।
कोई धर्मग्रंथ नहीं, कोई व्यक्ति (अवतार) नहीं, कोई सगुण ईश्वर नहीं। इन सभी
को जाना होगा। फिर इंद्रियों को भी जाना पड़ेगा। हम इंद्रियों के दास नहीं रह
सकते। अभी हम नदी में ठंड से ठिठुरकर मरने वालों की भाँति, आबद्ध हैं। सो जाने
की ऐसी बलवती ईप्सा द्वारा वे लोग आक्रांत हैं कि जब उनके साथी उन्हें
मृत्यु से सजग कर जाग्रत करना चाहते हैं, तो वे कहते हैं, "जान जाए बला से।
लेकिन नींद हराम न होने पाए।" हम इंद्रिय-सुख की सस्ती वस्तु के शिकार हैं,
भले ही उससे हमारा सर्वनाश ही क्यों न हो। हमने यह भुला दिया है कि जीवन में
और अधिक महान वस्तुएँ हैं।
एक हिंदू पौराणिक कथा है कि ईश्वर ने एक बार धरती पर शूकरावतार लिया। उनकी एक
शूकरी भी थी। कालांतर में उनके कई शूकर संतानें हुई। अपने परिवार वालों के बीच
वे बड़े चैन से रहे। कीचड़ में लोटते हुए वे खूब मस्त थे। वे अपनी दिव्य
महिमा एवं प्रभुता भूल बैठे। देवता बड़े चिंतित हुए। वे धरती पर उतर आए और
उनसे शूकर-शरीर त्याग कर देवलोक लौट चलने की विनती करने लगे। ईश्वर ने उनकी
एक न सुनी और उन सबको दुत्कार दिया। वे बोले,''मैं बड़ा प्रसन्न हूँ और इस
रंग में भंग देखना नहीं चाहता हूँ। "कोई चारा न देख देवताओं ने प्रभु का
शूकर-शरीर नष्ट कर दिया। तत्क्षण ईश्वर की दिव्य भव्यता लौट आई और वे
बड़े विस्मित थे कि शूकर स्थिति में वे प्रसन्न रहे कैसे !
मानवीय आचरण भी इसी प्रकार का है। जब कभी वे लोग निर्गुण ईश्वर की चर्चा
सुनते हैं, तो उनकी प्रतिक्रिया होती है कि 'मेरे व्यक्तित्व का क्या होगा?
व्यक्तित्व लुप्त ही हो जाएगा।' फिर कभी ऐसा विचार मन में उठे तो उस शूकर
की दशा याद कर लेना और तब देखना कि तुममें से प्रत्येक की प्रसन्नता का
पारावार कितना असीम है ! तुम अपनी वर्तमान स्थिति से कितने संतुष्ट हो। लेकिन
जब तुम्हें यह अनुभव हो जाएगा कि तुम यथार्थत: क्या हो, तो तुम यह देखकर
तत्क्षण आश्चर्यचकित हो जाओगे कि इंद्रिय-जीवन के परित्याग के प्रति तुम
अनिच्छुक क्यों हो। तुम्हारे व्यक्तित्व में रहा ही क्या है? वह
शूकर-जीवन से कहीं बढ़कर है? और क्या तुम इसको छोड़ना नहीं चाहते ! प्रभु
हमारा कल्याण करे !
वेदांत की शिक्षा क्या है? प्रथमत: यह शिक्षा देता है कि सत्य-दर्शन के लिए
तुम्हें अपने से भी बाहर जाने की जरूरत नहीं। सभी अतीत और सभी अनागत इसी
वर्तमान में निहित हैं। कभी किसी ने अतीत को नहीं देखा। क्या तुममें से किसी
ने अतीत को देखा है? जब यह सोचते हो कि तुम अतीत को जानते हो, तो तुम केवल
वर्तमान में ही अतीत की कल्पना करते हो। भविष्य को देखने के लिए तुम्हें
इसे वर्तमान में उतार लाना पड़ेगा, जो वर्तमान यथार्थ सत्य है - शेष सब
कल्पना है। वर्तमान ही सब कुछ है। केवल वही 'एक' है - एकमेवाद्वितीयम। जो
सत्य है सब इसी में है। अनंत काल का एक क्षण दूसरे प्रत्येक क्षण की ही
भाँति अपने में पूर्ण और सबको समाहित कर लेने वाला है। जो कुछ है, था और
होगा, सब इसी वर्तमान में है। इससे परे किसी कल्पना में कोई प्रवृत्त हो तो
वह विफल मनोरथ होगा।
क्या इस पृथ्वी से भिन्न स्वर्ग का चित्रण कोई धर्म कर सकता है? और यह सब
कला मात्र है, केवल इस कला का ज्ञान हमें धीरे-धीरे होता है। हम पंचेन्द्रियों
के सहारे इस सृष्टि को निरखते हैं और उसे रंग-रूप-शब्द आदि से युक्त स्थूल
ही पाते हैं। मान लो, विद्युत-चेतना का मुझमें स्फुरण हो जाए तो सब कुछ बदल
जाएगा। मान लो कि मेरी इंद्रियाँ सूक्ष्मतर हो जाएँ, तो तुम सब बदले नजर
आओगे। मैं ही बदल जाऊँ तो तुम भी बदल जाओगे। यदि मैं इंद्रियों की सीमा पार कर
लूँ, तो तुम सब आत्मरूप तथा ईश्वर-रूप देखोगे। जगत का दृश्य रूप सत्य नहीं
है।
हम इसको शनै:शनै: समझ सकेंगे और तब हम देखेंगे कि स्वर्ग आदि सब कुछ यहीं है;
इसी क्षण है और दिव्य सत्ता पर अध्यासों के अतिरिक्त और कुछ नहीं है। यह
सत्ता सभी-लोकों एवं स्वर्गों से बढ़कर है। लोगों का विचार है कि यह संसार
त्रुटिपूर्ण है और वे कल्पना करते हैं कि स्वर्ग कही अन्यत्र है। यह संसार
बुरा नहीं है तुम जानो तो यह साक्षात ईश्वर है। इसका बोध भी दूभर है और इस पर
विश्वास करना और भी दुष्कर है। कल फाँसी पर लटकाया जाने वाला हत्यारा भी
ईश्वर है, पूर्ण ब्रह्म है। अवश्य ही यह विषय जटिल है, पर वह बोधगम्य हो
सकता है।
इसीलिए वेदांत का प्रतिवाद्य है 'विश्व का एकत्व', विश्व-बंधुत्व नहीं।
मैं भी वैसा हूँ, जैसा एक मनुष्य है, एक जानवर है - बुरा, भला या और कुछ भी।
सब परिस्थितियों में यह एक ही देह, एक ही मन और एक ही आत्मा है। आत्मा का
अंत नहीं। कहीं कोई विनाश नहीं, देह का भी अंत नहीं। मन भी मरता नहीं है। देह
का अंत हो कैसे? एक पत्ती झड़ जाए तो क्या पेड़ का अंत हो जाएगा? यह विराट
विश्व ही मेरी देह है। देखो, कैसी इसकी अविकल परंपरा है। सारे मन मेरे मन
हैं। सबके पैरों से मैं ही चलता हूँ। सबके मुँह से मैं ही बोलता हूँ। सबके
शरीर में मेरा ही निवास है।
मैं इसका अनुभव क्यों नहीं कर पाता हूँ? इसका कारण है वही व्यक्तित्व
भाव, वही शूकरपना। इस मन से तुम आबद्ध हो चुके हो और तुम यहीं रह सकते हो,
वहाँ नहीं। अमरत्व है क्या? कितने कम लोग यह उत्तर देंगे कि 'वह हमारा यह
जीवन ही है !' बहुतेरों की धारणा है कि यह जीवन मरणशील है, प्राणहीन है -
ईश्वर यहाँ नहीं है, स्वर्ग पहुँचने पर ही वे अमर होंगे। उनकी कल्पना है कि
मृत्यु के बाद ही ईश्वर से उनका साक्षात्कार होगा। लेकिन यदि वे इसी जीवन
में और अभी उसका साक्षात्कार नहीं करते, तो मरने के बाद भी उसे नहीं देख
पाएंगें। यद्यपि अमरता पर उनकी आस्था है, तो भी उन्हें यह अज्ञात है कि
अमरता मरने और स्वर्ग जाने से नहीं, बल्कि व्यक्तिवाद की इस शूकर-प्रवृति और
क्षुद्र देह बंधन से अपने को आबद्ध न करने पर ही प्राप्त होती है। निज को
सबमें, सबको निज में जानने, समस्त मन से देखने की ही संज्ञा अमरता है। हमें
दूसरों के शरीर में भी आत्मदर्शन अवश्य ही मिलेगा। सहानुभूति या समानुभूति
है क्या? क्या सहानुभूति की भी सीमा निर्दिष्ट है? संभवत: एक ऐसा भी समय
आएगा, जब कि समस्त सृष्टि से मैं तादात्म्य अनुभव कर पाऊँगा।
इससे लाभ? इस शूकर-देह का परित्याग करना कठिन है। अपनी छोटी सी वासनामय देह
के आनंद के परित्याग से हमें पश्चाताप होता है। वेदांत का लक्ष्य
'देह-भाव-त्याग' नहीं, देह-भाव-अतिक्रमण' है। तपश्चर्या आवश्यक नहीं - दो
देहों का भी उपभोग भला - तीन का भी भला। एक से अधिक देहों में जीवन यापन करना
अच्छा ! जब मैं निखिल सृष्टि से तादात्म्य का सुख लूट सकता हूँ, तो संपूर्ण
सृष्टि ही मेरा शरीर है।
बहुत से ऐसे हैं जो यह उपदेश सुनते ही संत्रस्त हो जाते हैं। उन्हें यह
सुनना पसंद नहीं कि वे क्षुद्र पशु देहधारी नहीं, जिनका किसी निरंकुश भगवान ने
सर्जन किया है। मेरा उनसे अनुरोध है,'ऊपर उठो !' वे कहते हैं कि 'पाप में
हमारा जन्म हुआ, किसी के अनुग्रह के बिना वे अपना उद्धार नहीं कर सकते।' मैं
कहता हूँ, "तुम दिव्य तेजसंभूत हो।" उनका जवाब है, "आप नास्तिक हैं, ऐस बकवास
करने का आप साहस कैसे करते हैं। एक अति दु:खी जीव परमेश्वर कैसे हो सकता है?
हम सभी पापी हैं।" तुम्हें विदित है, कभी-कभी में बेहद निराश हो जाता हूँ।
सैकड़ों स्त्री-पुरुष मुझसे कहते हैं कि यदि कोई भी नरक नहीं है, तो कोई धर्म
कैसे हो सकता है? यदि ये लोग खुशी-खुशी नरक जाते हैं, तो इन्हें कौन रोक सकता
है !
तुम जिसका स्वप्न देखोगे, जो सोचोगे, उसी की सृष्टि करोगे। अगर यह नरक है,
तो मरते ही तुम्हें नरक दिखेगा। अगर वह असत् और शैतान है, तो तुम्हें शैतान
ही मिलेगा। अगर प्रेत है, तो प्रेत ही देखोगे। तुम जो कुछ सोचते हो, वही बनते
भी हो। अगर तुम्हें सोचना हो तो अच्छे-ऊँचे विचार मन में लाओ। मान लिया कि
तुम कमजोर क्षुद्र कीट हो। अपने को कमजोर घोषित करने से हम कमजोर बनेंगे,
हमारी हालत बेहतर न होगी। कल्पना करो कि हमने प्रकाश बुझा दिया, खिड़कियाँ
बंद कर दी और कमरे को अंधकारपूर्ण कहने लगे ! इससे बढ़कर प्रलाप क्या होगा !
अपने को पापी कहने से लाभ मुझे क्या मिलता है? यदि मैं अँधेरे में हूँ, तो
रोशनी कर लूँ। फिर सारी बला टली। फिर भी मानव स्वभाव कितना विचित्र है !
विश्व-मन को अपने जीवन का नित्य आधार जानकर भी लोग शैतान, अंधेरा, झूठ आदि
पर भी ज्यादा सोचते हैं। तुम उन्हें सही बताओ, उन्हें विश्वास नहीं होता।
उन्हें अँधेरा ही ज्यादा पसंद है।
यह वेदांत की ओर से उठाया गया एक महान प्रश्न है कि लोग इतने भयभीत क्यों
हैं? जवाब सीधा है कि उन्होंने अपने को असहाय और पराश्रित बना लिया है। हम
इतने आलसी हैं कि अपने लिए स्वयं कुछ करना नहीं चाहते। हम अपना प्रत्येक काम
कराने के लिए किसी सगुण ईश्वर की, किसी त्राता की या किसी पैगंबर की कामना
करते हैं। एक बड़ा अमीर आदमी कभी पैदल नहीं चलता, हमेशा सवारी पर घूमता है।
लेकिन कुछ वर्ष बाद वह पंगु बन जाता है, तो उसकी नींद खुलती है। वह महसूस करने
लगता है कि उसके जीने का ढंग अंतत: अच्छा न था। मेरे लिए दूसरा कोई नहीं चल
सकता है। जब कभी किसी ने मेरे लिए किया, तो उससे नुकसान मेरा ही होता था।
दूसरा कोई किसी का हर काम करने लगे तो उसके हाथ-पैर बेकार हो जाएँगे। जो कुछ
भी हो, हम स्वयं करते हैं, वही हमें करना है। मेरे व्याख्यानों से
आध्यात्म के रहस्य तुम नहीं सीख पाओगे। तुम जो कुछ भी सीख सके हो, उसके लिए
मैं चिंगारी मात्र हूँ, जिसने इसको अंगारे में परिवर्तित किया। पैगंबर या
उपदेशक इतना ही कर सकते हैं। सहायता प्राप्त करने के लिए मारे मारे फिरना
मूर्खता है।
तुम जानते हो, भारत में बैलगाडि़याँ होती हैं। यों एक गाड़ी में दो बैल जोते
जाते हैं और कभी कभी जुए की नोंक पर तिनके का एक गुच्छा लटका दिया जाता है,
वह बैलों के ठीक सामने किंतु उनकी पहुँच से कुछ दूर होता है। बैल लगातार उसे
खा लेने की कोशिश करते हैं, लेकिन असफल ही रहते हैं। हमें दूसरों से मिलने
वाली मदद का असली रूप यही है। हम सोचते हैं कि हमें सुरक्षा, शक्ति, विवेक,
संतोष आदि बाहर से मिलेंगे। हमारी आशा सतत बनी रहती है, किंतु वह कभी पूरी
नहीं होती। किसी को भी बाहर से सहायता कभी नहीं प्राप्त होती।
मनुष्य को कोई सहायता नहीं प्राप्त होने की। न कोई सहायता कभी मिली, मिल रही
है और न मिलेगी ही। सहायता की आवश्यकता भी क्या है? क्या तुम पुरुष और
स्त्री नहीं होते? क्या पृथ्वी के पालक को दूसरों की सहायता चाहिए? क्या
तुम लज्जित नहीं होते? तुम खाक बन जाओ तो तुम्हें मदद मिलेगी। पर तुम तो
आत्मरूप हो। स्वयं कठिनाइयों से छुटकारा पाओ ! कोई तुम्हारा सहायक नहीं है
और न कभी था। अपनी रक्षा स्वयं करो। यह सोचना कि कोई सहायक है, मीठा सपना
मात्र है। उससे कोई लाभ नहीं होने का।
एक बार एक ईसाई मेरे पास आया और बोला - "आप घोर पापी हैं।" मैंने जवाब
दिया-"जी हाँ ! मैं पापी हूँ।आप अपना काम देखिए। " वह ईसाई प्रचारक था। उसने
मुझे तंग करना न छोड़ा। मैं जब उसे देखता हँ, तो भाग खड़ा होता हूँ। वह कहने
लगा - "मेरे पास आपकी भलाई के लिए कुछ उपाय हैं। आप पापी हैं और नरक में गिरने
जा रहे हैं।" मेरा जवाब था - "बहुत खूब !" और कुछ?" मैंने उससे प्रश्न किया -
"आप कहाँ जाने वाले हैं?" वह बोल उठा -"मैं स्वर्ग जाने वाला हूँ।" मैंने बता
दिया - "मैं नरक जाऊँगा" उस दिन से उसने पिंड छोड़ दिया।
अब एक ईसाई महोदय आते हैं और कहते हैं - "आपका सर्वनाश निश्चित है; लेकिन यदि
आप इस धर्म - सिद्धांत पर विश्वास करें, तो ईसा मसीह आपको बचा लेंगे।" यह अगर
सच होता - मैं निश्चित रूप से जानता हूँ कि यह कोरा अंधविश्वास है - तो ईसाई
राष्ट्रो में कोई कुटिलता न होती। थोड़ी देर के लिए इसमें विश्वास भी कर लें -
मानने में लगता क्या है - लेकिन फिर कोई असर क्यों नहीं नजर आता? मेरे पूछने
पर कि " इतने कुटिल स्वभाव वाले - खल - क्यों है? तो जवाब मिलता है "अभी हमें
अधिक परिश्रम करना है। " ईश्वर पर विश्वास रखो, किंतु बारूद सूखी रखो ! ईश्वर
से प्रार्थना करो, और ईश्वर को उद्धार करने के लिए आने दो। लेकिन मैंने ही सभी
संघर्ष किए, मेरी ही प्रार्थना - पूजा रहीं; समस्याओं का समाधान मैं निकालूँ -
और ईश्वर उसके गौरव का भागी बने। यह ठीक नहीं। मैं कदापि ऐसा नहीं करने का।
मैं एक बार प्रीतिभोज में निमंत्रित था । आतिथेया ने मेरे मुँह से 'कल्याण हो'
कहलवाना चाहा। मैं बोला, "देवी जी ! मै आपकी कल्याण कामना करता हूँ। आशीर्वाद
धन्यवाद दोनों आपको ही अर्पित हैं।" मैं जब काम में लगता हूँ, तो अपने लिए
'कल्याण' कह लेता हूँ। गौरव मुझे मिलना चाहिए कि मैं अथक परिश्रम कर पाया और
यह सब कुछ प्राप्त कर सका।
कड़ा परिश्रम करो तुम और धन्यवाद दो दूसरों को ! यह इसलिए कि तुम अंधविश्वासी
हो, डरपोक हो। हजारों वर्षो के पाले - पोसे अंधविश्वास की अब कोई आवश्यकता
नहीं। आध्यात्मिक बनने में थोड़ा विशेष परिश्रम लगता है। अंधविश्वास मात्र
भौतिकवादिता हैं, क्योंकि उनका अस्तित्व ही देह पर आधारित है। वहाँ आत्मा के
लिए स्थान नहीं ! आत्मा अंधविश्वास से असंपृक्त है - वह देहज क्षुद्र वासनाओं
से परे हैं।
आत्मा के क्षेत्र में भी जहाँ - तहाँ क्षुद्र वासनाएँ प्रक्षेपित होने लगी
हैं। मैं कई प्रेतात्मा संबंधी सभाओं में गया हूँ। उनमें से एक महिला
सभानेत्री थीं। वे मुझसे बोलों -"आपकी माता जी और आपके पितामह मेरे यहाँ आते
है।" उन्होंने कहा कि "उन्होंने मेरा अभिवादन किया ओर मुझसे बातें की।" किंतु
मेरी माता जी अभी जीवित हैं ! लोगो का यह प्रिय विषय सा हो गया है कि मरने के
बाद भी उनके सगे संबंधी सुपरिचित शरीर में ही जी रहे हैं और प्रेतात्मवादी
उनके अंधविश्वास का फायदा उठाते हैं। मुझे बड़ा दु:ख होगा कि मेरे स्वर्गीय
पिता अपने उसी घिनौने शरीर को अभी भी धारण किए हुए हैं। उनके सभी पितर
जड़ावृत्त हैं ; इससे लोगों को सांत्वना मिलती है। एक स्थान पर ईसा मसीह मेरे
सामने हाजिर कराए गए। मैं पूछ बैठा, "प्रभो, आप कैसे हैं?" मेरे लिए ये सभी
बातें निराशाजनक हैं। यदि वह संत महापुरुष अभी भी शरीरधारी हैं, तो हम बेचारे
जीवधारियों का क्या होगा? प्रेतात्मवादियों ने उन बुलाए गए सज्जनों मे से किसी
को छूने नहीं दिया। यदि यह सब सच भी हैं, तो भी मुझे उनकी आवश्यकता नहीं। मैं
सोचता हूँ - माँ ! माँ ! ये नास्तिक - सचमुच लोगों की यही समुचित संज्ञा हैं !
केवल पंचेद्रियों की वासना मात्र हैं ! यहाँ के प्राप्त पदार्थों से तृप्त न
होकर मरने के बाद भी उन्हीं को और अधिक पाने के इच्छुक हैं।
वेदांत का ईश्वर क्या हैं? वह व्यक्ति नहीं, विचार है, तत्त्व हैं। तुम और हम
सब सगुण ईश्वर हैं। विश्व का परात्पर ईश्वर, विश्व का स्त्रष्टा, विधाता और
संहर्ता परमेश्वर निर्विशेष तत्त्व हैं। तुम-हम चूहे-बिल्ली, भूत-प्रेत आदि
सभी उसके रूप हैं - सभी सगुण ईश्वर हैं। तुम्हारी इच्छा है सगुण ईश्वर की
उपासना करने की। वह तो अपनी आत्मा की ही उपासना हैं। यदि तुम मेरी राय मानो तो
किसी भी गिरजाघर में कदम न रखो बाहर निकलो, आओ, और अपने को प्रक्षालित कर
डालो। जब तक कि युग- युग के चिपके-जमे तुम्हारे अंधविश्वास बह न जाएँ, तब तक
अपने को बारंबार प्रक्षालित करते रहो। शायद यह काम तुम्हें न रूचे, क्योंकि
तुम तो इस देश में नहाते ही कम हो, स्नान पर स्नान भारत की रीति है, तुम्हारे
समाज की नहीं।
मुझसे प्राय: पूछा गया हैं, "मैं इतना अधिक हँसता और व्यंग-विनोद करता क्यों
हूँ?" जब कभी पेट दर्द करने लगता हैं, तो कभी-कभी गंभीर हो जाता हूँ। ईश्वर
केवल आनंदपूर्ण हैं। सभी अस्तित्व के मूल में एकमात्र वही है, अखिल विश्व का
वही शिव है, सत्य है। तुम उसी के अवतार मात्र हो। यही गौरव की बात हैं। उसके
जितने अधिक निकट तुम होओगे, तुम्हें उतना ही कम चीखना-चिल्लाना पड़ेगा। उससे
जितनी दूर हम होते हैं, उतना ही अधिक हमें अवसाद झेलना पड़ता हैं। जितना अधिक
उसे जानते हैं, उतना ही संकट टलता जाता हैं। यदि प्रभु में लीन होने वाला भी
पीड़ित रहे, तो उसकी तल्लीनता से लाभ क्या? ऐसे ईश्वर का भी कोई उपयोग है?
प्रशांत महासागर में उसे फेंक दो ! हमें उसकी आवश्यकता नहीं !
लेकिन ईश्वर तो अनंत हैं, निर्विशेष सत्ता है - सच्चिदानन्द हैं, निर्विकार
है, अमर है, अभय है, और तुम सब उसके अवतार हो, अंगमात्र हो। वेदांत का ईश्वर
यही हैं, जिसका स्वर्ग सर्वत्र हैं। इस स्वर्ग में समस्त सगुण ईश्वर निवास
करते हैं। तुम सभी मंदिरों में प्रार्थना, पुष्प- समर्पण आदि से विरत रहो !
तुम्हारी प्रार्थना का ध्येय क्या हैं? स्वर्ग-प्राप्ति, किसी की
वस्तु-सिद्धि, और दूसरों को उससे वंचित करने की कामना। "प्रभो ! भोजन मुझे खूब
मिले ! दूसरा भले ही भूखा रहे !" नित्य, अनंत, शाश्वत, सच्चिदानन्द स्वरूप उस
ईश्वर की कैसी भव्य कल्पना है, जिसमें कोई भेद नहीं, कोई दोष नहीं, जो सदा
स्वतंत्र, निरंतर निर्मल एवं सतत परिपूर्ण है ! हम उसे समस्त मानवीय लक्षणों,
कार्यव्यापारों एवं सीमाओं से आभूषित करते हैं। उसे हमारे लिए खाना देना
पड़ेगा, कपड़ा देना पड़ेगा। वस्तुत: ये सारे काम हमें स्वयं करने होंगे, और कभी
भी किसी ने यह सब हमारे लिए नहीं किया। यही स्पष्ट सत्य है।
किंतु तुम शायद ही कभी इस पर विचार करते हो। तुम यह कल्पना करते हो कि एक
ईश्वर है, जिसके तुम विशेष कृपा पात्र हो, जो तुम्हारी मनौतियाँ पूरी करता है;
और तुम उससे समस्त मानव, संपूर्ण जीवधारियों पर कृपा करने का अनुरोध नहीं
करते, बल्कि निज के लिए, निज के परिवार के लिए, अपनी बिरादरी भर के लिए उसके
अनुग्रह का आग्रह करते हो। जब हिंदू भूखा है, तो तुम्हें उसकी चिंता नहीं है ;
उस समय तुम यह नहीं विचारते कि ईसाइयों का ईश्वर ही हिंदुओं का ईश्वर भी हैं।
ईश्वर संबंधी हमारी सारी धारणाएँ, प्रार्थनाएँ, उपासनाएँ, देह बुद्धि के
अज्ञान के प्रभाव से विकृत हैं। हो सकता है, मेरी बात तुम्हें अच्छी न लगे। आज
तुम मुझे भले ही कोस लो, लेकिन कल तुम मुझे आशीर्वाद दोगे।
हमें विचारशील अवश्य बनना चाहिए। किसी भी योनि में जन्म दु:खदायी हैं। हमें
भौतिकता से ऊपर उठना होगा। मेरी माँ हमें अपनी वज्ज्रमुष्टिका से मुक्त होने
देना न चाहेगी ; फिर भी हमें प्रयत्न करना होगा। यह संघर्ष ही उपासना है, अन्य
सब कुछ भ्रम मात्र है। तुम सगुण ईश्वर हो। इस क्षण मैं तुम्हारा उपासक हूँ।
यदी महत्तम प्रार्थना है। इसी अर्थ में संपूर्ण विश्व की उपासना करो। उसकी
सेवा करते हुए। मेरा ऊँचे मंच पर खड़ा होना, मैं जानता हूँ, उपासना जैसा नहीं
प्रतीत होता हैं। किंतु यदि इसमें सेवा-भाव है, तो यही उपासना है।
अनंत सत्य अप्राप्य है। वह सतत ही इस लोक में विद्यमान है, वह अमर है, अजर है।
वह, जो विश्व का प्रभु है, जन-जन में है। मंदिर केवल एक है, वह है देह-मंदिर।
यही अकेला मंदिर सनातन है। इसी देह में उसका, परमात्मा का, राज-राजेश्वर का
निवास है। हम देख नहीं पाते, इसलिए हम उसकी पाषाण प्रतिमाएँ बनाते है, और उन
पर ऊँचे मंदिर खड़े करते है। सदा से भारत में वेदांत रहा हैं, लेकिन भारत ऐसे
मंदिरों से भरा पड़ा है - केवल मंदिर ही नहीं किंतु खुदी हुई मूर्तियों से भरी
गुफाएँ भी वहाँ हैं। गंगा किनारे रहने वाला मूढ़मति पानी के लिए कुआँ खोदे। यही
हमारा हाल है। ईश्वर में निवास करते हुए भी हम बाहर जाकर उसकी मूर्तियाँ बनाने
लगते हैं। जब वह हमारे देह-मंदिरों में सदा निवास करते हैं, हम उसें मूर्तियों
में प्रक्षेपित करते हैं। बुद्धि हमारी मारी गई है, और यह बड़ा भारी भ्रम है।
ईश्वर रूप में सबकी उपासना करो-सारे आकार उसके मंदिर हैं। बाकी सब कुछ भ्रम
है। हमेशा भीतर की ओर देखो, बाहर की ओर कदापि नहीं। वेदांत-प्रतिपादित ईश्वर
यही है और उसकी उपासना भी यही है। स्वभावत: वेदांत में कोई संप्रदाय नहीं है,
कोई शाखा-प्रशाखा नहीं, कोई जाति-भेद नहीं। यह भारत का राष्ट्रीय धर्म हो भी
तो कैसे?
सैकड़ों जातियाँ ! यदि कोई किसी की थाली छू दे, तो वह चिल्ला उठता है,
"परमात्मा उबार लो, मैं भ्रष्ट हो गया।" पहली विदेश - यात्रा से लौटकर जब मैं
भारत गया, तो अनेक सनातनी हिंदुओं ने पाश्चात्यों के साथ मेरे संपर्क और
कट्टरता के नियमों के भंग करने को संप्रदाय विरोधी ठहरा कर खूब हो-हल्ला
मचाया। पाश्चात्य लोगों को मेरा वैदिक सत्य की शिक्षा देना उन्हें अप्रिय लगा।
लेकिन इतने भेद और अंतर रहेंगे कैसे? जब हम आत्मरूप हैं, समान हैं। अमीर गरीब
को एवं पंडित अज्ञानी को देखकर नाक भी कैसे सिकोड़ पाएगा? यदि समाज की रूपरेखा
न बदले, तो वेदांत-धर्म के सदृश्य धर्म प्रभावशाली कैसे हो? विवेकी यथार्थ
विचारशील मानवों की संख्या विपुल होने में हज़ारों साल लगेंगे। मानव को नई
बातें सुझाना, उन्हें उच्च विचार प्रदान करना बड़ा ही श्रमसाध्य है।
रूढ़ी-विश्वासों का उन्मूलन और भी दुष्कर है- बहुत ही दुष्कर। ये शीघ्र
विनष्ट नहीं होते, शिक्षा-दीक्षा के बाद विद्वज्जन अँधेरे में काँप उठते हैं
- शिशु अवस्था की कहानियाँ याद आ जाती हैं, और वे प्रेत देखने लगते हैं।
वेदांत 'वेद' शब्द से बना है और 'वेद' का अर्थ है ज्ञान। समस्त ज्ञान वेद है
और ईश्वर की भाँति अनंत है। कोई व्यक्ति ज्ञान की कभी सृष्टि नहीं करता। क्या
तुमने कभी ज्ञान का सर्जन होते देखा है? ज्ञान का अन्वेषन मात्र होता है -
आवृत्त का अनावरण होता है। ज्ञान सदा यहीं है, क्योंकि वह स्वयं ईश्वर है।
अतीत, वर्तमान, अनागत इन तीनों का ज्ञान हम सबमें विद्यमान है। हम उसका
अनुसंधान मात्र करते हैं, और कुछ नहीं। ये सारे ज्ञान स्वयं ईश्वर है। वेद
संस्कृत भाषा के महान् ग्रंथ है। हम अपने देश में वेदपाठी के सम्मुख नतमस्तक
होते है, भौतिक शास्त्र के विशेषज्ञ की हम कोई चिंता नहीं करते। यह अंधविश्वास
ही है। यह बिल्कुल ही वेदांत नहीं। यह कोरा जड़वाद है। ईश्वर के लिए समस्त
ज्ञान पवित्र है। ज्ञान ही ईश्वर है। अनंत ज्ञान पूर्ण मात्रा में प्रत्येक
जीवधारी में निहित हैं। तुम वास्तव में अज्ञानी नही, भले ही ऐसा दिखाई पड़े
तुममें से प्रत्येक ईश्वरावतार है। तुम सर्वशक्तिमान सम्पन्न, सर्वान्तर्यामी,
दिव्यस्वरूप के अवतार हो। हो सकता है, मेरी बातों पर तुम्हें हँसी आए, किंतु
वह समय दूर नहीं जब तुम इसे समझ सकोगे। तुम्हें समझना पड़ेगा। कोई पीछे नहीं
रहने पाएगा।
इसका लक्ष्य क्या है? जिस वेदांत की चर्चा मैंने की है, वह कोई नया धर्म नहीं।
वह स्वयं ईश्वर ही की भाँति- प्राचीन है। देश-काल के बंधन उसे बाँध नहीं सकते,
वह सर्वत्र है। प्रत्येक को इस सत्य का ज्ञान है। हम सब इसी का रूप निश्चित कर
रहे हैं। विश्व मात्र का लक्ष्य वही है। बाह्य प्रकृति पर भी यही नियम लागू
है - कण-कण इसी लक्ष्य की ओर धावित हैं। तुम क्या सोचते हो कि परिशुद्ध अनंत
आत्माएँ इस परम सत्य के दर्शन से वंचित है? वह सर्वसुलभ है, सभी इसी लक्ष्य पर
पहुँच रहे हैं - अंतर्निहित दिव्यता की ओर। सनकी, हत्यारा, रूढ़िवादी, भीड़-दंड
से पीड़ित सभी इसी लक्ष्य की ओर बढ़ रहे हैं। हमारा काम इतना ही है कि अनजाने जो
कुछ हम कर रहे है, उसे हम समझकर करें - अधिक अच्छाई के साथ करें।
समग्र अस्तित्व का एकत्व तुममें पहले से ही विद्यमान है। उससे रहित कभी किसी
ने जन्म ही नहीं किया। तुम किसी भी तरह उसे अस्वीकार करो, वह सदा अपने
अस्तित्व को सिद्ध करता है। मानवीय अनुराग क्या है? यह न्यूनाधिक रूप में इसी
एकत्व का मण्डन तो है: 'मै तुम, अपनी स्त्री, संतान, बंधु-बांधवों से अभिन्न
हूँ।' तुम केवल अनजाने इस अभिन्नता का अनुमोदन कर रहे हो। 'कभी किसी ने पति से
पति के नाते नहीं, अपितु पति में आत्मा के हेतु अनुराग दर्शाया है।' [11] पत्नी पति से अभिन्नता
का अनुभव करती है। पति भी पत्नी में निज को ही पाता है - प्रकृत्या वह ऐसा
करता है। जान बूझकर वह ऐसा कर नहीं पाता है।
संपूर्ण जगत् एक ही सत्ता है। उसके अतिरिक्त और कुछ हो भी नहीं सकता।
विभिन्नताओं के परे हम इसी विराट् विश्व-सत्ता की ओर बढ़ रहे है। परिवार से
कबीले, कबीलों से कुल, कुलों से राष्ट्र, राष्ट्रों से मानवता-कितनी इच्छाएँ
उस एकत्व की ओर अग्रसर हो रही है ! इस एकत्व की अनुभूति ही संपूर्ण
ज्ञान-विज्ञान है।
एकत्व ही ज्ञान है और अनेकता ही अज्ञान। इस ज्ञान पर तुम सबका जन्मसिद्ध
अधिकार है। मुझे तुमको यह सब समझाने की आवश्यकता नहीं। संसार में कभी भी
अलग-अलग धर्म नहीं रहे। चाहें या न चाहें, हम सभी मुक्ति के अधिकारी हैं। सब
अंत में बंधन-मुक्त होकर रहेंगे, क्योंकि मुक्त होना तुम्हारा स्वभाव है। हम
तो मुक्त हैं ही, केवल हम यह जानते भर नहीं और हमें पता नहीं कि हम क्या करते
रहे हैं। समस्त धर्म के विधि-विधानों, आदर्शों का नैतिक मानदंड एक है । एक ही
ध्येय का प्रचार हो रहा है कि सबसे स्वार्थरहित बनो, दूसरों से प्रेम करो। कोई
कहता है, 'जेहोवा का आदेश है।' मुहम्मद साहब ने घोषणा की, 'अल्लाह' दूसरे
चिल्लाए 'मसीहा !' अगर यह जेहोबा का आदेश होता, तो वह जेहोवा से अपरिचितों का
आदर्श हुआ कैसे? यदि यह केवल ईसा मसीह का संदेश है, तो उन्हें न जानने वालों
को वह कैसे प्राप्त हुआ? अगर केवल विष्णु ही ऐसा कर सके तो उनको न जानने
वाले एक यहूदी का यह जीवन-ध्येय क्यों हुआ? सबसे महत्तर एक अन्य
प्रेरणा-स्त्रोत है। वह है कहाँ? वह है ईश्वर के सनातन मंदिर में, वह है शुद्र
से लेकर महान् तक की आत्मा में। अनंत नि:स्वार्थता, असीम त्याग और महती एकता
की ओर जाने वाली असीम अनिवार्यता ही है ।
अपने अज्ञान के कारण देखने में हम विभक्त एवं सीमित से लगते है, और हम मानो
नगण्य श्रीयुत-श्रीमती हो रह गए हैं। किंतु समूची प्रकृति इस भ्रम को हर क्षण
असत्य सिद्ध करती रही है। सबसे विलग मैं एक तुच्छ स्त्री-पुरुष नहीं। मैं एक
विराट् सत्ता ही हूँ। आत्मा निज गौरव के सहारे क्षण-प्रतिक्षण जाग्रत हो रही
है, एवं अपनी सहजात दिव्यता का उद्घोष कर रही है।
यह वेदांत सर्वत्र है, केवल तुम्हें उससे अवगत होना है। ये निरर्थक
विश्वासपुंज एवं अंधविश्वास समूह ही हमारी प्रगति में बाधक है। अगर संभव हो तो
हम इन्हें दूर फेंके और यह समझें कि ईश्वर सत्य आत्मा के द्वारा एक उपस्य
आत्मा हैं। अब अधिक बनने का प्रयत्न मत करो। भौतिकता को दूर हटाओ। ईश्वर की
धारणा यथार्थत: आध्यात्मिक होनी चाहिए। ईश्वर संबंधी अन्य आदर्श जो न्यूनाधिक
रूप में जड़वाद से प्रेरित हैं, अवश्य ही विदा हों। जब मानव अधिकाअधिक
आध्यात्मिक होगा, तो उसे निरर्थक विचारों को दूर फेंकना होगा, उन्हे पीछे छोड़
आना होगा। वस्तुत: प्रत्येक देश में कुछ ऐसे पुरुष हुए है, जो भौतिकता के
परित्याग के लिए शक्तिमान हो एवं आत्मा के अमर आलोक में खड़े होकर आत्मा की
आत्मा से आराधना करते हैं।
अगर वेदांत- जो यह चेतनाशील ज्ञान है कि सभी एक आत्मा है, चारों ओर फैल जाए तो
सारी मानवता आध्यात्मिक हो जाएगी। परंतु क्या यह संभव है? मैं तो कुछ नहीं कह
सकता। हजारों वर्षो में भी यह संभव नहीं हुआ। पुरानी सड़ी-गली धारणाओं को विदा
लेनी ही है। अपने अंधविश्वासों के चिरस्थायी बनाने के फेर में ही तुम अभी पड़े
हो। उस पर भी परिवार-बंधु, जाति-भाई, राष्ट्र-बंधु आदि के झमेले हैं।
वेदांत-सिद्धि के मार्ग में ये सब रोड़े हैं। इने-गिनों के ही लिए धर्म धर्म
रहा है।
सारे संसार में धर्मक्षेत्र में कार्य करने वाले व्यक्तियों में बहुतेरे
वास्तव में राजनीतिक कार्यकर्ता ही रहे हैं। यही मानव इतिहास रहा है। किसी से
समझौता न करते हुए शायद ही उन्होंने सत्य का अनुशीलन किया हो, ये लोग सदा ही
समूह या समाज नामधारी ईश्वर के उपासक रहे हैं। अधिकतर जनसमुदाय के
अंधविश्वासों और दुर्बलताओं के समर्थन से ही उनका संबंध रहा है। प्रकृति पर
विजय-प्राप्ति उनका लक्ष्य नहीं, बल्कि अपने को प्रकृति के अनुकूल बनाने में
लगे रहना उनका लक्ष्य नहीं, बल्कि अपने को प्रकृति के अनुकूल बनाने में लगे
रहना उनका साध्य है - और कुछ नहीं। भारत में जाकर किसी नए धर्म का प्रचार करो
-वे अपना कान हटा लेगें। लेकिन यदि तुम बताओ कि यह वेद से उद्धत है, तो सब
कहेंगे, 'यह ठीक है।' मैं यहाँ इस मत की शिक्षा दे सकता हूँ ; किंतु तुममें से
ऐसे कितने हैं, जो इसे ध्यानपूर्वक स्वीकार करेंगे? पर यह पूर्णतया सत्य है,
और मुझे तुम्हारे लिए इसका प्रतिपादन करना ही है।
इस प्रश्न का एक दूसरा भी पक्ष है। प्रत्येक यही कहता है कि सर्वोच्च एवं
पूर्ण सत्य की अनुभूति एकाएक सबके लिए संभव नहीं; क्रम से उपासना, प्रार्थना
एवं अन्य प्रचलित धार्मिक विधि-विधानों का सहारा लेकर धीरे-धीरे मानव को यहाँ
तक पहुँचाना होगा। मैं कह नहीं सकता लेकर धीरे-धीरे मानव को यहाँ तक पहुँचाना
होगा। मैं कह नहीं सकता कि यह तरीका गलत है या सही। भारत में मैं दोनों
मार्गों से कार्य करता हूँ।
कलकत्ते में ईश्वर, वेद, बाइबिल, ईसा, बुद्ध आदि के नाम पर बहुत सारे मंदिर
एवं प्रतिमाएँ हैं। इन्हें चलने दो। लेकिन हिमालय की ऊँचाइयों पर हमने एक
स्थान बनाया है, जहाँ पूर्ण सत्य की अपेक्षा और किसी वस्तु का प्रवेश नहीं हो
सकता। तुम्हारे सम्मुख आज के व्याख्यान में बताए गए तत्त्वों का प्रयोग वहाँ
देखना चाहता हूँ। आश्रम एक अंग्रेज सज्जन और अंग्रेज महिला के संरक्षण में है।
सत्य-साधकों का प्रशिक्षण, शैशव से ही निर्भीक, अंधविश्वासरहित नरश्रेष्ठों का
निर्माण आदि मेरा ध्येय है। वे ईसा, बुद्ध, शिव एवं विष्णु आदि नामों को सुनने
नहीं पाएंगे - इनमें से किसी का भी नहीं। आरंभ से ही उन्हे आत्मनिर्भर बनने की
शिक्षा दी जाएगी। शैशवावस्था से ही वे सीखेंगे कि ईश्वर आत्मा हैं, आत्मा और
सत्य के द्वारा ही उसकी आराधना होनी चाहिए। सबको आत्मा के रूप में देखना होगा।
यही आदर्श है। इसकी सफलता का मुझे कोई अनुमान नहीं। आज मैं अपने प्रिय विषय का
प्रचार कर रहा हूँ। यदि द्वैत के संपूर्ण रूढ़-विश्वासों से दूर ऐसे ही आदर्श
के अनुरूप मेरा लालन-पालन भी हुआ होता, तो कितना भला होता !
कभी-कभी मैं, यह स्वीकार करता हूँ कि द्वैत मार्ग में भी कुछ अच्छाईं अवश्य
है, जो दुर्बल है, उनकी यह सहायता करता है । यदि कोई तुमसें ध्रुव नक्षत्र
देखना चाहे, तो पहले उसे तुम निकटवर्ती उज्ज्जवल नक्षत्र, पीछे क्षीण प्रकाश
का नक्षत्र, बाद में धुँधला नक्षत्र और अंत में ध्रुव नक्षत्र दिखाओ। उसके
ध्रुव नक्षत्र के निरीक्षण में इससे आसानी होगी। समस्त साधनाएँ,
दीक्षा-विधियाँ, धर्मग्रंथ, ईश्वर आदि धर्म के आरंभिक रूप है, धर्म की
शिशुशालाएँ मात्र हैं।
तदुपरांत इसके दूसरे पक्ष पर भी मैं सोचता हूँ। यदि संसार इस धीमी चाल, क्रमिक
प्रणाली का अनुरक्षण करता है, तो सत्य-साक्षात्कार में इसे कितनी प्रतीक्षा
करनी पड़ेगी? कितनी देर होगी? यह कभी किसी सीमा तक सफल हो सकेगा, इसका निश्चय
कैसे किया जाए? आज तक तो यह सफल नहीं रहा। आखिरकार क्रम से हो या क्रमरहित
दुर्बल, के लिए सरल या जटिल, क्या द्वैत मार्ग असत्य पर आधरित नहीं है? क्या
सारे प्रचलित धार्मिक अनुष्ठान ज्यादातर कमजोरी बढ़ाने वाले हैं, इसीलिए
दोषपूर्ण नहीं हैं? ये गलत सिद्धांत मानवता की भ्रामक धारणा पर आधारित है। दो
गलतियों से कभी एक सत्य का निर्माण होता है? मिथ्या कभी सत्य सिद्ध हागा?
अँधेरा कभी उजाला होगा?
मैं एक दिवंगत व्यक्ति का सेवक हूँ उनका मैं एक संदेशवाहक मात्र हूँ। मैं
प्रयोग करना चाहता हूँ। वेदांत - शिक्षा मैंने अभी तुमको दी है, उस पर कोई ठोस
प्रयोग पहले नहीं हुआ यद्यपि वेदांत विश्व का प्राचीनतम दर्शन है, फिर भी
अंधविश्वास आदि समस्त विकारों को इसमें मिला दिया गया है।
ईसा मसीह के उदगार थे, 'परम पिता और मैं दोनों अभिन्न हुआ है', और तुम इसे
दुहराते हो, फिर भी मनुष्य के लिए यह सहायक सिद्ध नहीं हुआ। लगभग बीस सदियों
तक मानव इस उदगार का मर्म न जान सके। ईसा मानवों के रक्षक ठहराए गए। वे ईश्वर
और हम कीड़े हैं ! यही हाल भारत में भी है। हर देश में यही धारणा प्रत्येक
संप्रदाय विशेष की रीढ़ है। सैकड़ों, हजारों वर्षों से दुनिया में
लाखों-करोड़ों की संख्या में जगदीश्वर, अवतारी पुरुष, उद्धारक, पैगंबर आदि
की आराधना व्यक्ति को प्रेरित करती आई है। लोगों को यही सिखाया गया है कि वे
असहाय हैं, दु:खी जीव हैं और मुक्ति के लिए किसी व्यक्ति विशेष या व्यक्ति
समूह पर ही उनको आश्रित रहना है। इन विश्वास-भावनाओं में अद्भुत तत्त्व हैं
अवश्य। किंतु वे अपनी चरमावस्था में भी धर्म की शिशुशालाएँ मात्र हैं, और
उनसे किसी को कोई- खास सहायता नहीं मिली। मानव एक प्रकार के सम्मोहन के
द्वारा अति अधमावस्था को प्राप्त हो गया है। हाँ, इस दशा में भी कुछ ऐसे
स्थितप्रज्ञ लोग हैं, जो इस मोह-जाल को काट फेंकते हैं। महापुरुषों के
आविर्भाव का अनुकूल समय आएगा और उनके सतत प्रयास से धर्म की ये शिशुशालाएँ
विनष्ट हो जाएँगी और यथार्थ धर्म-आत्मा से आत्मा की आराधना-अधिक सजीव और
शक्तिशाली हो सकेगी।
वेदांत और विशेषाधिकार
(लंदन में दिया गया व्याख्यान)
हम लोगों ने अद्वैत के तत्त्ववाद से संबंध भाग को प्राय: समाप्त कर लिया है।
एक बात जो शायद सबसे कठिन है, अभी शेष है। अब तक हम लोगों ने यह समझ लिया है
कि अद्वैत सिद्धांत के अनुसार हम अपने चतुर्दिक् जो कुछ देखते हैं, वस्तुत:
समस्त विश्व, उसी एक पूर्ण का विकास है। संस्कृत में उसे ब्रह्मा कहते हैं।
ब्रह्म समस्त प्रकृति में परिणत हो गया है। परंतु यहाँ एक कठिनाई उत्पन्न
हो जाती है। ब्रह्म के लिए परिणामी होना कैसे संभव है? ब्रह्म में परिणति
किसने की? स्वयं अपनी परिभाषा के अनुसार ब्रह्म अपरिणामी है। अपरिणामी में
परिणाम का होना परस्पर-विरोधी है। जो सगुण ईश्वर में विश्वास रखते हैं,
उनके लिए भी वही कठिनाई उत्पन्न होती है। उदाहरणार्थ, यह सृष्टि कैसे हुई?
शून्य से उसका उद्भव नहीं हो सकता; इसमें अंतर्विरोध है - असत् से सत् का
प्रादुर्भाव कभी हो नहीं सकता। कार्य दूसरे रूप में कारण ही है। बीज से विशाल
वृक्ष उगता है। वृक्ष बीज है, जिसमें वायु तथा जल गृहीत हैं। और यदि वृक्ष के
आकार के निर्माण में लिए गए जल तथा वायु की मात्रा के परीक्षण की कोई विधि
निकल आए, तो हमें पता लग जाएगा कि वह (बीज) ठीक वही कार्य अर्थात् वृक्ष है।
आधुनिक विज्ञान ने इसे असंदिग्ध रूप से सिद्ध कर दिया है कि कारण दूसरे रूप
में कार्य होता है। कारण के भागों के समायोजन में परिवर्तन होता है और वह
कार्य हो जाता है। अत: हमें बिना कारण के विश्व की उत्पत्ति मानने की कठिनाई
से बचना है और हम यह मानने के लिए बाध्य हो जाते हैं कि ईश्वर ही विश्व बन
गया।
किंतु हम लोग एक कठिनाई से तो बचे, पर दूसरी में पड़ गए। प्रत्येक सिद्धांत
में अपरिवर्तनशीलता की धारणा के माध्यम से ईश्वर की धारणा आ जाती है। हमने
इतिहास से खोज निकाला है कि ईश्वर विषयक जिज्ञासा की सबसे अपरिपक्व अवस्था
में भी जो एक भाव मन में सदा बना रहा है, वह है मुक्ति का भाव; और मुक्ति तथा
अपरिवर्तनशीलता या नित्यता की धारणा एक तथा अभिन्न हैं। केवल मुक्त ही ऐसा
है, जिसमें कभी परिवर्तन नहीं होता और जो अपरिणामी या नित्य है, केवल वही
मुक्त है; क्योंकि किसी वस्तु में परिवर्तन किसी अन्य बाह्य वस्तु द्वारा
अथवा आंतरिक वस्तु द्वारा, जो अपने परिवेश की अपेक्षा अधिक शक्तिशाली हो,
उत्पन्न होता है। परिणामधर्मी प्रत्येक वस्तु अवश्य ही कुछ कारण या
कारणों से आबद्ध होती है। ये कारण अपरिणामी नहीं हो सकते। मान लिया जाए कि
ईश्वर ही यह विश्व बन गया है, तो ईश्वर यहाँ है और वह परिवर्तित हो गया है।
और मान लिया जाए कि असीम यह ससीम विश्व बन गया है, तो असीम का इतना अंश निकल
गया और इसलिए असीम में से विश्व के घटा देने पर जो शेष रह जाए, वही ईश्वर
हुआ। परिणामी या परिवर्तनशील ईश्वर तो ईश्वर हो नहीं सकता। सर्वेश्वरवाद के
इस सिद्धांत से बचने के लिए वेदांत में बड़ा ही निर्भीक सिद्धांत है। वह है-
जिस रूप में हम इस जगत् को जानते या सोचते हैं, उसकी सत्ता ही नहीं है;
अपरिवर्तनीय परिवर्तित नहीं हुआ है; यह सारा विश्व आभास मात्र है, सत्य नहीं
है और अंशों, क्षुद्र जीवों तथा विभेद के ये प्रत्यय मिथ्या हैं, स्वयं
वस्तु के स्वरूप नहीं। ईश्वर में किंचित् भी परिवर्तन नहीं हुआ है तथा वह
लेशमात्र विश्व नहीं बना है। देश, काल और निमित्त के माध्यम से देखने के लिए
विवश होने के कारण हम ईश्वर को विश्ववत् देखते हैं। देश, काल एवं निमित्त के
कारण यह आपातदृष्ट भेद है, वस्तुत: नहीं। सचमुच यह बड़ा निर्भीक सिद्धांत
है। अब इस सिद्धांत की व्याख्या जरा और स्पष्ट रूप से होनी चाहिए। इसका
अर्थ वह (दार्शनिक) आदर्शवाद या प्रत्ययवाद नहीं है, जैसा कि लोग साधारणतया
समझते हैं। वह यह नहीं कहता कि विश्व का अस्तित्व नहीं है। उसका अस्तित्व
है, किंतु साथ ही हम उसे जो समझते हैं, वह नहीं है। इसे सोदाहरण समझाने के लिए
अद्वैत दर्शन द्वारा दिया गया दृष्टांत सुविदित है। रात के अंधकार में पेड़ का
तना किसी अंधविश्वासी को भूत के रूप में, लुटेरे को पुलिस के सिपाही के रूप
में और साथी की प्रतीक्षा में खड़े किसी व्यक्ति को सुह्द् के रूप में दिखाई
पड़ता है। इन सभी स्थितियों में वृक्ष का तना परिवर्तित नहीं हुआ, परंतु
परिवर्तनों के आभास हुए और ये परिवर्तन देखनेवालों के मन में घटित हुए थे। हम
मनोविज्ञान के द्वारा आत्मनिष्ठ पक्ष से इसे अपेक्षाकृत अधिक अच्छी तरह समझ
सकते हैं। कोई हमसे बहिर्वस्तु है, जिसका प्रकृत स्वरूप हमें अज्ञात एवं
अज्ञेय है - उसे हम 'क' मान लें। और कोई हममें अंतर्निष्ठ वस्तु है। वह भी
हमें अज्ञात एवं अज्ञेय है- उसे हम 'ख' मान लें। 'क' और 'ख' का समवाय ज्ञेय
है, अत: प्रत्येक वस्तु जिसे हम जानते हैं उसके दो भाग हुए,'क' जो बाहर है
और 'ख' जो भीतर है; और 'क' तथा 'ख' की संहति वह वस्तु हुई, जिसे हम जानते
हैं। अत: विश्व में प्रत्येक रूप अंशत: हम लोगों की सृष्टि है और अंशत: कुछ
बाह्य वस्तु है। अब वेदांत यह प्रतिपादित करता है कि यह 'क' और यह 'ख' एक ही
है और उनमें अंतर नहीं।
कुछ पाश्चात्य दार्शनिक, विशेषत: हर्बर्ट स्पेन्सर तथा कतिपय अन्य आधुनिक
दार्शनिक, इससे बहुत मिलते-जुलते निष्कर्ष पर पहुँचे हैं। जब यह कहा जाता है
कि वही शक्ति जो अपने को फूलों में अभिव्यक्त कर रही है, मेरी अपनी चेतना
में भी उमड़ रही है, तब यह ठीक वही भाव है, जिसका उपदेश वेदांती देते हैं कि
बाह्य जगत् की तात्विकता तथा अंतर्जगत् की तात्विकता एक एवं अभिन्न है।
आंतरिक तथा बाह्य के भावों का अस्तित्व भी भेदजन्य है और स्वयं वस्तुओं
में उनका अस्तित्व नहीं है। उदाहरणार्थ, यदि हममें एक अन्य इंद्रिय विकसित
हो जाए, तो हमारे लिए सारा जगत् बदल जाएगा, जिसका अभिप्राय यह है कि विषयी
विषय को बदल देगा। यदि मैं परिवर्तित होता हूँ, तो बाह्य जगत् परिवर्तित हो
जाता है। अतएवं वेदांत के सिद्धांत का मर्म यह है कि तुम और मैं तथा विश्व की
प्रत्येक वस्तु ब्रह्म ही है, अंश नहीं, वरन् पूर्ण। तुम उस ब्रह्म के
सर्वाश हो और अन्य लोग भी वही हैं, क्योंकि पूर्ण में अपूर्ण का भाव आ नहीं
सकता। ये विभाग तथा ये सीमाएँ आभास मात्र हैं, वस्तुनिष्ठ नहीं। मैं संपूर्ण
और अशेष हूँ और अन्य लोग भी वही है, क्योंकि पूर्ण में अपूर्ण का भाव आ नहीं
सकता। ये विभाग तथा ये सीमाएँ आभास मात्र हैं, वस्तुनिष्ठ नहीं। मैं संपूर्ण
और अशेष हूँ और मैं कभी बंधन में नहीं था। वेदांत डंके की चोट पर कहता है कि
यदि तुम अपने को बंधन में समझते हो, तो बंधन में पड़े रहोगे; यदि तुम जानते हो
कि तूम मुक्त हो, तो बस मुक्त हो गए। इस प्रकार इस दर्शन का चरम लक्ष्य तथा
उद्देश्य हमें यह बोध कराता है कि हम सदैव मुक्त रहे हैं और नित्य मुक्त
रहेंगे। हम न कभी परिवर्तित होते हैं, न मरते हैं और न जन्म लेते हैं। तव ये
परिवर्तन क्या हैं? इस जगत् को मिथ्या जगत् के रूप में स्वीकार किया गया
है, जो देश, काल तथा निमित्त से आबद्ध है और इसे संस्कृत में विवर्तवाद की
संज्ञा दी गई है। यह प्रकृति का विकास और ब्रह्म की अभिव्यक्ति है। ब्रह्म
में कोई विकार नहीं होता या उसका पुनर्विकास नहीं होता। सूक्ष्म जीवाणु
(एमीबा) में अव्यक्त रूप से वही असीम पूर्णता रहती है। एमीबा आवरण के कारण
इसका नाम एमीबा पड़ा और एमीबा अवस्था से पूर्ण मनुष्य होने की अवस्था
पर्यंत उसमें परिवर्तन नहीं होता, जो भीतर विद्यमान है -वह ज्यों का त्यों
अधिकारी बना रहता है - किंतु आवरण में परिवर्तन होता है।
यहाँ एक परदा है और बाहर सुंदर दृश्य है। परदे में एक छोटा सा छिद्र है,
जिससे हम उसकी झलक मात्र पाते हैं। मान लो यह छिद्र बढ़ने लगा। ज्यों ज्यों
वह बड़ा होता जाता है, त्यों त्यों दृश्य का अधिकाधिक अंश दिखाई जड़ने लगता
है और जब परदे का लोप हो जाता है, तब संपूर्ण दृश्य दृष्टिगत हो जाता है। यह
बाहर का दृश्य आत्मा है और हमारे तथा दृश्य के बीच का परदा माया - देश, काल
और निमित्त है। कहीं एक छोटा छिद्र है, जिससे मुझे आत्मा की एक झलक मात्र
मिलती है। जब छिद्र पहले से बड़ा हो जाता है, तब मैं अधिकाधिक साक्षात्कार
करने लगता हूँ और जब परदा लुप्त हो जाता है, तब मैं जानता हूँ कि मैं आत्मा
हूँ। अत: विश्व में जो परिवर्तन होते हैं, उनसे ब्रह्म निर्लिप्त है।
परिवर्तन प्रकृति में होता है। प्रकृति अधिकाधिक विकसित होती है और अंतत:
ब्रह्म अपने को अभिव्यक्त करता है। प्रत्येक में उसकी सत्ता है। कुछ में
उसकी अभिव्यक्ति दूसरों की अपेक्षा अधिक होती है। संपूर्ण विश्व यथार्थत: एक
है। आत्मा के प्रसंगमें यह कथन निरर्थक है कि एक आत्मा अन्य की अपेक्षा
श्रेष्ठ है। आत्मा के वर्णन में यह कथन निरर्थक है कि मनुष्य पशु अथवा पौधे
से श्रेष्ठ है; सारा विश्व एक है। पौधे में आत्मा की अभिव्यक्ति में
रूकावटें बहुत बड़ी हैं; पशुओं में उनसे थोड़ी कम और मनुष्य में और भी कम है;
सुसंस्कृत आध्यात्मिक मनुष्यों में उनसे भी कम हैं और पूर्ण मानव में उन
रूकावटों का पूर्णतया लोप हो जाता है। हमारे सभी संघर्ष, अभ्यास, कष्ट, सुख,
आँसू और मुस्कान- जो कुछ हम करते और सोचते हैं- इसी ध्येय की ओर प्रवृत्त
होते हैं कि परदा फट जाए, छिद्र बढ़ता जाए और पीछे छिपी हुई अभिव्यक्ति एवं
यथार्थता के बीच की परतें क्षीण हो जाएँ। अत: हमारा कार्य आत्मा को मुक्त
करना नहीं, वरन् बंधन से पिंड छुड़ाना है। सूर्य बादलों की परतों से ढँका है,
किंतु उनसे अप्रभावित है। वायु का कार्य बादलों को उड़ाकर भगा देना है और बादल
जितने ही छटेंगे उतना ही सूर्य का प्रकाश दिखाई पड़ने लगेगा। आत्मा में कोई
भी विकार नहीं है- वह असीम, पूर्ण, शाश्वत और सच्चिदानन्द है। आत्मा का
जन्म-मरण भी नहीं हो सकता। मृत्यु, जन्म, पुनर्जन्म और स्वर्गारोहण
आत्मा का नहीं हो सकता। ये तो नाना आभास, नाना मृगमरीचिकाएँ और नाना स्वप्न
हैं। यदि कोई मनुष्य भव-स्वप्न देख रहा है और इस समय दुर्विचारों तथा
दुष्कर्मों के स्वप्न में निमग्न है, तो कुछ काल पश्चात् उसी स्वप्न का
विचार दूसरे स्वप्न को पैदा करेगा। वह स्वप्न देखेगा कि वह एक भयानक
स्थान में है और उसे यंत्रणा मिल रही है। जो मनुष्य सुविचारों तथा शुभ
कर्मों का स्वप्न देख रहा है, वह उसकी अवधि समाप्त होने पर यह स्वप्न
देखेगा कि वह पहले की अपेक्षा उत्तम स्थान में है और एक स्वप्न के पश्चात्
दूसरे स्वप्न का ताँता लगा रहेगा। परंतु वह समय आएगा, जब ये सभी स्वप्न
विलुप्त हो जाएँगे। हममें से प्रत्येक व्यक्ति के समक्ष एक ऐसा समय अवश्य
आएगा, जब समस्त विश्व स्वप्न मात्र प्रतीत होगा। तब हमें पता लगेगा कि
अपने परिवेश की अपेक्षा आत्मा अनंत गुना श्रेष्ठ है। जिन्हें हम अपना
परिवेश कहते हें, उनके बीच संघर्ष में एक समय ऐसा आएगा, जब हमें पता लगेगा कि
आत्मा की शक्ति की तुलना में ये परिवेश प्राय: शून्य थे। केवल प्रश्न काल
का है और अनंत में काल शून्य है; महासागर में यह एक बूँद के तुल्य है। हममें
प्रतीक्षा की क्षमता है और हम शांत रह सकते हैं।
अतएव जाने या अनजाने समस्त विश्व उसी लक्ष्य की ओर अग्रसर हो रहा है।
चन्द्रमा अन्य पिडों की आकर्षण-शक्ति की परिधि से निकलने के लिए संघर्ष कर
रहा है और अंततोगत्वा वह उससे बाहर निकलेगा ही। लेकिन जो मुक्त होने के
प्रयास में सचेत हैं, वे काल की अवधि त्वरित कर देते हैं। इस सिद्धांत से एक
लाभ जो हमें व्यवहार में दिखाई पड़ता है, वह यह है कि केवल इसी दृष्टिकोण से
यथार्थ सार्वभौम प्रेम का भाव संभव है। सब साथ के मुसाफिर हैं, सहयात्री हैं -
सभी जीव, पौधे और पशु; केवल मेरा भाई मनुष्य ही नहीं, वरन् मेरा भाई पशु और
मेरा भाई पौधा भी ; केवल मेरा भाई सज्जन ही नहीं वरन् मेरा भाई दुर्जन, मेरा
भाई आध्यात्मिक और मेरा भाई दुष्ट भी। वे सब एक लक्ष्य की ओर चल रहे हैं।
सब एक ही नदी में हैं, और अनंत मुक्ति की दिशा में प्रत्येक शीघ्रता से बढ़
रहा है। हम धारा को रोक नहीं सकते, कोई भी रोक नहीं सकता, कोई पीछे नहीं जा
सकता, चाहे वह लाख कोशिश करे; वह आगे बहता ही जाएगा और अंत में मुक्ति-लाभ
करेगा। मुक्ति हमारी सत्ता का केंद्र-बिंदु है, जिससे मानो हम बाहर फेंक दिए
गए हैं और सृष्टि का अभिप्राय वहीं वापस लौटने का संघर्ष है। हम यहाँ हैं, यह
तथ्य ही बतलाता है कि हम केंद्र की ओर जा रहे हैं और केंद्र की ओर इस आकर्षण
की अभिव्यक्ति को हम प्रेम कहते हैं।
प्रश्न पूछा जाता है कि विश्व की उत्पत्ति किससे होती है, किसमें उसकी
स्थिति है और फिर किसमें वह लय होता है? और उत्तर है- प्रेम से उसकी उत्पत्ति
होती है, प्रेम में वह स्थित होता है और प्रेम में ही लीन हो जाता है। इस
प्रकार हम यह समझ सकते हैं कि चाहे किसीको पसंद हो या नापसंद, किसी के लिए
प्रतिगमन की गुंजाइश नहीं। पीछे लौटने के लिए चाहे कोई कितना भी छटपटाए,
प्रत्येक को केंद्र में पहुँचना ही होगा। फिर भी यदि हम सचेत होकर और
जान-बूझकर प्रयत्न करें, तो इससे मार्ग निरापद होगा, संघर्षण कम हो जाएगा और
समय भी कम लगेगा। इससे स्वभावत: हम जिस दूसरे निष्कर्ष पर पहुँचते हैं, वह
यह है कि सभी ज्ञान और सभी शक्ति भीतर हैं, बाहर नहीं। जिसे हम प्रकृति कहते
हैं, वह प्रतिबिंबक शीशा (दर्पण) है- बस प्रकृति का इतना ही प्रयोजन है- और
समस्त ज्ञान प्रकृति के इस दर्पण पर अभ्यंतर परावर्तनया प्रतिबिंबन है।
जिन्हें हम सिद्धियाँ, प्रकृति के रहस्य और शक्ति कहते हैं, वे सब भीतर
विद्यमान हैं। बाह्य जगत् में परिवर्तन की श्रृंखला मात्र होती है। प्रकृति
में कोई ज्ञान नहीं; मानव की आत्मा से समस्त ज्ञान उद्भूत होता है। मनुष्य
ज्ञान व्यक्त करता है, अपने भीतर वह उसका आविष्कार करता है, जो पहले
शाश्वत काल से विद्यमान है। प्रत्येक व्यक्ति चितस्वरूप है, प्रत्येक
व्यक्ति आनंदस्वरूप और सतस्वरूप है। समता के संबंध में नैतिक प्रभाव ठीक
वैसा ही है, जैसा हम अन्यत्र देख चुके हैं।
किंतु विशेषाधिकार का भाव मानव जीवन का विष है। मानो दो शक्तियाँ निरंतर कार्य
कर रही हैं, एक जातियाँ बना रही है और दूसरी जातियाँ तोड़ रही है। दूसरे
शब्दों में हम इसे इस प्रकार कह सकते हैं कि एक विशेषाधिकार बनाने में लगी है
और दूसरी विशेषाधिकार तोड़ने में लगी है। और जब कभी विशेषाधिकार तोड़ दिया
जाता है, तब जाति को अधिकाधिक प्रकाश तथा प्रगति उपलब्ध होती है। यह संघर्ष
हम अपने चतुर्दिक् देखते हैं। अवश्य ही प्रथम है विशेषाधिकार का वह पाशविक
भाव, जो निर्बल के ऊपर सबल का होता है। धन का विशेषाधिकार है। यदि दूसरे की
अपेक्षा किसी के पास अधिक द्रव्य है, तो वह कम द्रव्यवालों पर थोड़ा
विशेषाधिकार चाहता है। फिर बुद्धि का विशेषाधिकार उससे कहीं अधिक सूक्ष्म और
शक्तिशाली है। एक आदमी दूसरों की अपेक्षा अधिक जानकारी रखता है, इसलिए वह अधिक
विशेषाधिकार का दावा करता है। और सबसे अंतिम तथा सबसे निकृष्ट, क्योंकि यह
सर्वाधिक अत्याचारपूर्ण है, आध्यात्मिकता का विशेषाधिकार है। यदि कुछ लोग यह
सोचते है कि उनका आध्यात्मिक ज्ञान अधिक है और वे ईश्वर के विषय में अधिक
जानते हैं, तो वे अन्य सबकी अपेक्षा श्रेष्ठतर विशेषाधिकार का दावा करते
हैं। वे कहते हैं,''ऐ भेड़-बकरियों ! आओ और हमारी पूजा करो, हम ईश्वर के
संदेशवाहक हैं और हमारी पूजा तुम्हें करनी ही पड़ेगी। "किसी के ऊपर मानसिक,
शारीरिक अथवा आध्यात्मिक विशेषाधिकार स्वीकार करना और साथ ही वेदांती बनना-
दोनों नहीं हो सकता। किसी को रंच मात्र विशेषाधिकार नहीं है। प्रत्येक
व्यक्ति में समान ही सामर्थ्य है- एक में उसकी अभिव्यक्ति अधिक है, दूसरे
में कम। प्रत्येक में समान क्षमता है। फिर विशेषाधिकार का दावा कहाँ
प्रत्येक आत्मा में, यहाँ तक कि सर्वाधिक अज्ञानी में भी, समस्त ज्ञान है;
उसने उसे अभिव्यक्त नहीं किया, लेकिन शायद उसे अवसर नहीं मिला, शायद परिवेश
उसके अनुकूल नहीं थे। जब उसे अवसर मिलेगा, तब वह उसे अभिव्यक्त करेगा। एक
मनुष्य दूसरे से जन्मना श्रेष्ठ है, यह भाव वेदांत की दृष्टि से निरर्थक है
और दो राष्ट्रों में से एक श्रेष्ठ है तथा दूसरा निकृष्ट है; यह विचार भी
बिल्कुल निरर्थक है। दोनों की एक ही परिस्थितियों में रखो और देखो कि एक सी
बुद्धि का समुदय होता है या नहीं। इसके पूर्व तुम्हें यह कहने का अधिकार नहीं
कि एक राष्ट्र दूसरे से श्रेष्ठतर है। जहाँ तक आध्यात्मिकता का सवाल है,
वहाँ विशेषाधिकार का दावा नहीं होना चाहिए। मानव जाति की सेवा करना
विशेषाधिकार है, क्योंकि यह ईश्वर की उपासना है। ईश्वर यहीं है, इन सब
मानवीय आत्माओं में है। वह मनुष्य की आत्मा है। मनुष्य क्या विशेषाधिकार
माँग सकते हैं? ईश्वर के कोई विशेष संदेशवाहक नहीं, न कभी हुए और न हो सकते
हैं। छोटे-बड़े सभी जीव ईश्वर की समान रूप से अभिव्यक्तियाँ हैं, अंतर केवल
अभिव्यक्तियों में है। वही सनातन संदेश, जो शाश्वत काल से दिया जाता रहा है,
उन्हें थोड़ा थोड़ा प्राप्त हो रहा है। वह सनातन संदेश प्रत्येक जीव के
हृदय पर अंकित है, वह वहाँ पहले से ही विद्यमान है और उसे प्रकट करने के लिए
सब संघर्ष कर रहे हैं। अनुकूल परिस्थितियों में होने के कारण कुछ लोग दूसरों
की अपेक्षा कुछ अच्छे प्रकार से प्रकट करते हैं, पर संदेशवाहक के रूप में सब
एक ही हैं। वहाँ श्रेष्ठता का दावा क्या? सर्वाधिक अज्ञानी, सर्वाधिक अबोध
शिशु भी ईश्वर के उतने ही महान् संदेशवाहक हैं, जितने वे जिनका कभी अस्तित्व
रहा और वे जो कभी भविष्य में पैदा होंगे, क्योंकि प्रत्येक जीव के हृदय पर
सदा के लिए वह अनंत संदेश अंकित कर दिया गया है। जहाँ कहीं भी जीव है, उसके
पास सर्वोच्च का अनंत संदेश है। वह वहाँ है। अत: अद्वैत का कार्य इन सभी
विशेषाधिकारों को तोड़ डालना है। यह सब कार्यों से कठिन है, और विचित्र बात तो
यह है कि अद्वैत अपनी जन्मभूमि में अन्य किसी स्थान की अपेक्षा कम सक्रिय
रहा है। यदि विशेषाधिकारवाला कोई देश है, तो यह वही देश है, जिसने इस दर्शन को
जन्म दिया- आध्यात्मिक मनुष्य के लिए और साथ ही जन्मना मनुष्य के लिए
विशेषाधिकार। वहाँ उन्हें रूपये-पैसे का विशेषाधिकार (मेरी समझ से लाभों में
यह भी एक है) उतना नहीं है, किंतु जन्मना विशेषाधिकार और आध्यात्मिक
विशेषाधिकार सर्वत्र है।
वेदांती नैतिकता के प्रचार का एक बार महत् प्रयास हुआ, जो कुछ हद तक कई सौ
वर्षों के लिए सफल रहा और इतिहास से हमें ज्ञात होता है कि वे वर्ष राष्ट्र
के सर्वोत्तम काल थे। मेरा अभिप्राय विशेषाधिकार तोड़ने के बौद्धों के प्रयास
से है। बुद्ध को संबोधित कर जिन अति सुंदर विरूदावालियों का प्रयोग किया गया
है, उनमें से जो थोड़ी सी मुझे याद हैं, वे इस प्रकार हैं- 'हे
जाति-विध्वंसक, विशेषाधिकारविनाशक, सर्वजीव-समत्व-शिक्षक'। इस तरह समता के
एक भाव का उन्होंने उपदेश दिया। श्रमणों के भ्रातृ-मंडल में इसकी शक्ति को
कुछ हद तक गलत समझा गया। हमें पता लगता है कि वहाँ वरिष्ठों एवं कनिष्ठों की
व्यवस्था कर उनका धर्मसंघ बनाने के सैकड़ों प्रयत्न किए गए। यदि लोगों से
कहो कि सभी देवता हैं, तो तुम धर्मसंघ को ज्यादा कारगर नहीं बना सकते। वेदांत
के अच्छे प्रभावों में से एक यह है कि धार्मिक विचारों में स्वतंत्रता रही
है, जिसका उपभोग भारत ने अपने इतिहास के सभी कालों में किया है। यह एक गौरव की
बात है कि यह एक ऐसा देश है, जहाँ कभी धार्मिक उत्पीड़न नहीं हुआ और जहाँ
लोगों को पूर्ण धार्मिक स्वतंत्रता दी जाती है।
वेदांत के इस व्यावहारिक पक्ष की आज भी उतनी ही आवश्यकता है, जितनी पहले कभी
थी; और शायद पहले की अपेक्षा कहीं अधिक आवश्यकता है, क्येांकि ज्ञान के
विस्तार के साथ विशेषाधिकार का यह दावा अत्यधिक घनीभूत हो गया है। भगवान् और
शैतान या अहुर्मज़्द और अहिर्मन की कल्पना में पर्याप्त काव्य है। सुर और
असुर में कुछ भेद नहीं है, भेद केवल नि:स्वार्थ तथा स्वार्थ में है। असुर भी
उतना जानता है, जितना सुर, उसमें बस पवित्रता नहीं होती- इसी से वह असुर बन
जाता है, आधुनिक संसार पर वही भावना लागू करो। अपवित्र ज्ञान और शक्ति का
अतिरेक मनुष्यों को असुर बना देता है। यंत्रों तथा अन्य साज-सामानों के
निर्माण से बहुत बड़ी शक्ति प्राप्त की जा रही है और आज विशेषाधिकारों का ऐसा
दावा किया जा रहा है, जैसा संसार के इतिहास में पहले कभी नहीं किया गया था।
इसी कारण वेदांत इसके विरुद्ध प्रचार करना चाहता है कि मनुष्यों की आत्मा पर
अत्याचार करना समाप्त किया जाए।
तुममें से जिन लोगों ने गीता पढ़ी है, उन्हें यह स्मरणीय उद्धरण याद होगा -
'सचमुच वही ऋषि और पंडित है, जो विद्या तथा विनय से युक्त ब्राह्मण, गाय,
हाथी, कुत्ते और चांडाल में समदृष्टि रखता है। जिसका अंत:करण समता में अर्थात्
सब भूतों के अंतर्गत ब्रह्मरूप समभाव में निश्चलतापूर्वक स्थित हो गया है,
उसने जीवितावस्था में ही जन्म को जीत लिया है और क्योंकि वह ब्रह्म निर्दोष
है, इसलिए जो समदर्शी एवं निर्दोष हैं, वे ब्रह्म में ही स्थित कहे जाते हैं।" [12] वेदांती नैतिकता का यही
सारांश है। सबके प्रति साम्य। हम देख चुके हैं कि वह अंतर्जगत् है, जो बाह्य
जगत् पर शासन करता है। आत्मपरिर्वन के साथ वस्तुपरिवर्तन अवश्यंभावी है;
अपने को शुद्ध कर लो और संसार का विशुद्ध होना अवश्यंभावी है। पहले के किसी
भी समय से अधिक आजकल इस एक बात की शिक्षा की आवश्यकता है। हम लोग अपने विषय
में उत्तरोत्तर कम और अपने पड़ोसियों के विषय में उत्तरोत्तर अधिक व्यस्त
होते जा रहे हैं। यदि हम परिवर्तित होते हैं, तो संसार परिवर्तित हो जाएगा;
यदि हम निर्मल हैं, तो संसार निर्मल हो जाएगा। प्रश्न यह है कि मैं दूसरों
में दोष क्यों देखूँ। जब तक मैं दोषमय न हो जाऊँ, तब तक मैं दोष नहीं देख
सकता। जब तक मैं निर्बल न हो जाऊँ, तब तक मैं दु:खी नहीं हो सकता। जब मैं बालक
था, उस समय जो चीजें मुझे दु:खी बना देती थीं, अब वैसा नहीं कर पातीं। कर्ता
में परिवर्तन हुआ, इसलिए कर्म में परिवर्तन अवश्यंभावी है- यह वेदांत का मत
है। जब हम समत्व की अद्भुत स्थिति में पहुँच जाएंगें अर्थात् साम्यभाव
प्राप्त कर लेंगे तब उन सभी वस्तुओं पर हमें हँसी आएगी, जिन्हें हम दु:खों
और अशुभ का निमित्त कहते हैं। इसी को वेदांत में मुक्ति-लाभ कहा गया है। उस
मुक्त तक पहुँचने का लक्षण यह है कि इस प्रकार का अनन्य भाव तथा समत्व
अधिकाधिक प्रतीत होगा। 'सुख-दु:ख में सम, जयपराजय में सम'- इस प्रकार की
मन:स्थिति मुक्तावस्था के निकट है।
मन आसानी से नहीं जीता जा सकता। हलकी से हलकी उत्तेजना या खतरा आने पर,
प्रत्येक छोटी सी घटना उपस्थित होने पर, जो मन तरंगायमान होने लगते हैं, तब
महानता और आध्यात्किता की चर्चा का क्या प्रयोजन? मन की यह अस्थिर दशा बदलनी
ही होगी। हमें स्वयं अपने से पूछना चाहिए कि हमारे ऊपर बाह्य जगत् की कहाँ तक
प्रतिक्रिया हो सकती है और अपने बाहर की तमाम शक्तियों के बावजूद कहाँ तक हम
अपने पैरों पर खड़े हो सकते हैं। जब दुनिया की सारी शक्तियों को हम अपना
संतुलन बिगाड़ने से रोकने में सफल हो जाएं, तभी हम मुक्त हैं और उसके पूर्व
नहीं। वही उद्धार है। वह यहीं है और अन्यत्र नहीं- वह यही क्षण है। इस भाव से
और इस मूल स्रोत से सभी सुंदर विचारधाराओं का संसार में प्रवाह हुआ है, जो
प्रत्यक्षत: परस्पर विरोधी हैं और जिनकी अभिव्यक्ति सामान्यत: ग़लत अर्थ
में समझी गई है। प्रत्येक राष्ट्र में हम ऐसे कितने ही वीर तथा अद्भुत
आध्यात्मिक व्यक्ति पाते हैं, जो ध्यान-धारणा के लिए गुफाओं और वनों में
चले गए तथा जिन्होंने बाहरी दुनिया से अपना संबंध विच्छेद कर लिया। यह तो एक
भाव है। दूसरी ओर हमें ऐसे प्राणी मिलते हैं, जो समुज्ज्वल और यशस्वी हैं
और जो समाज में प्रवेश करते हैं तथा जनगण एवं दीन-दु:खियों की समुन्नति के
लिए यत्न करते हैं। देखने में ये दोनों विधियाँ परस्पर-विरोधी हैं। जो अपने
भाई मनुष्यों से पृथक् गुफा में निवास करता है, वह उन लोगों पर घृणा की
दृष्टि से हँसता है, जो अपने भाई मनुष्यों के पुनरुद्धार के लिए कार्य कर रहे
हैं। वह कहता है,''कितनी मूर्खता की बात है ! वहाँ क्या काम है? माया का
संसार सदा मायामय रहेगा। वह बदल नहीं सकता।" यदि मैं भारत के किसी अपने
पुरोहित से पूछूँ कि क्या वेदांत में तुम्हें विश्वास है, तो वह जवाब देगा,
"वह तो मेरा धर्म है; मैं अवश्य विश्वास करता हूँ; वह मेरा प्राण है।" "बहुत
ठीक, तो क्या तुम प्राणिमात्र की समता और प्रत्येक वस्तु की अनन्य एकता को
स्वीकार करते हो?" "निश्चय ही, मैं स्वीकार करता हूँ।" परंतु दूसरे ही क्षण
जब एक नीच जाति का आदमी पुरोहित के पास पहुँचता है, तो उसकी छूत से बचने के
लिए वह छलाँग मारकर सड़क के किनारे चला जाता है। "कूदते क्यों हो?" "क्योंकि
उसके स्पर्श मात्र से मैं अपवित्र हो जाता।" "परंतु तुम तो अभी अभी कह रहे थे
कि हम सब एक ही हैं और तुम स्वीकार करते हो कि प्राणियों में कोई भेद नहीं
है। "वह जवाब देता है,"अरे भाई, गृहस्थों के लिए तो यह केवल सिद्धांत का विषय
है; जब मैं (संन्यास लेकर) वन में जाऊँगा, तब मैं समदर्शी हो जाऊँगा। "तुम
इंग्लैंड में अपने किसी बड़े आदमी से, जो बड़े कुल में पैदा हुआ हो और धनी
हो, पूछो कि जब सभी ईश्वर के यहाँ से आए हैं, तब क्या तुम ईसाई होने के नाते
मनुष्य जाति के भ्रातृत्व में विश्वास करते हो? वह स्वीकारात्मक उत्तर
देगा, किंतु पाँच मिनट में ही वह सामान्य लोगों के प्रति कुछ अनादरसूचक
शब्दों का ज़ोर से प्रयोग करने लगेगा। अतएव कई हज़ार वर्षों तक यह कोरा
सिद्धांत ही रहा है और कभी कार्य रूप में परिणत नहीं हुआ। इसे सब समझते हैं,
सब इसे सत्य घोषित करते हैं, किंतु जब व्यवहार में लाने की बात कहो, तो लोग
कहने लगते हैं कि इसमें लाखों वर्ष लगेंगे।
कोई राजा था, जिसके बहुत से सभासद थे और इन सभासदों में से प्रत्येक यह दम
भरता था कि अपने स्वामी के लिए वह जीवनोत्सर्ग करने को उद्यत है और उससे
बढ़कर निष्कपट व्यक्ति कभी कोई पैदा ही नहीं हुआ। कालांतर में एक संन्यासी
राजा के यहाँ आया। राजा ने उससे कहा कि मेरे यहाँ जितने अधिक सच्चे सभासद
हैं, उतने पहले किसी राजा के यहाँ कभी नहीं थे। संन्यासी मुस्कराने लगा और
उसने कहा कि मैं इस पर विश्वास नहीं करता। राजा ने कहा कि वह एक बहुत बड़ा
यज्ञ करेगा, जिसके द्वारा राजा का राज्यकाल बहुत दीर्घ हो जाएगा, लेकिन शर्त
यह है कि छोटा सा तालाब बनना चाहिए, जिसमें रात्रि के अंधकार में प्रत्येक
सभासद एक एक घड़ा दूध उड़ेल दे। राजा मुस्कराया और उसने कहा, "क्या यही
परीक्षा है?" उसने सभासदों को अपने पास बुलाया और उन्हें बताया कि क्या करना
है। सबने प्रस्ताव पर अपनी सहर्ष स्वीकृति प्रदान की और वे सब लौट गए। निशीथ
वेला में आ आकर उन्होंने अपने धड़े उड़ेले परंतु सबेरे देखा गया तो वह केवल
पानी से भरा था। सभासद एकत्र किए गए और उनसे इस मामले में पूछताछ की गई। उनमें
से प्रत्येक ने यह सोचा था कि इतने घड़ों का दूध हो जाएगा कि उसके द्वारा
उड़ेले गए पानी का पता न लगेगा। दुर्भाग्य से हममें से अधिकांश का भाव यही
होता है और हम अपने कार्य-भाग को उसी प्रकार करते हैं, जैसा कहानी के सभासदों
ने किया है।
पुरोहित कहता है कि समता का भाव इतना अधिक है कि मेरे छोटे से विशेषाधिकार की
पोल नहीं खुलेगी। यही बात हमारे धनिक कहते हैं, यही बात प्रत्येक देश के
अत्याचारी कहते हैं। जिन पर अत्याचार होता है, उनके लिए उन लोगों की अपेक्षा
अधिक आशाएँ हैं, जो अत्याचारी हैं। मुक्ति-लाभ करने में अत्याचारियों को
बहुत लंबा समय लगेगा, पर अन्य लोगों को अपेक्षाकृत कम समय लगेगा। लोमड़ी की
क्रूरता सिंह की कूरता से अत्यधिक भयानक है। सिंह एक आघात करता है और बाद में
कुछ समय शांत रहता है, लेकिन लोमड़ी लगातार शिकार का पीछा करने की कोशिश में
कोई मौका हाथ से नहीं जाने देती। पौरोहित्य प्रकृत्या क्रूर तथा हृदयहीन है।
यही कारण है कि जहाँ पौरोहित्य का उदय हुआ, वहाँ धर्म का अध:पतन हो जाता है।
वेदांत कहता है कि हमें विशेषाधिकार का भाव अवश्य त्याग देना होगा, तभी धर्म
आएगा। उसके पूर्व धर्म का लेश भी नहीं है।
क्या ईसा के इस कथन पर तुम्हारा विश्वास है, 'तुम्हारे पास जो कुछ है, उसे
बेच दो और ग़रीबों को दे दो?' वहाँ व्यावहारिक समता है, शास्त्र को
तोड़-मरोड़कर व्याख्या का प्रयास मत करो, सत्य को यथावत् ग्रहण करो !
तोड़-मरोड़कर शास्त्र की व्याख्या का प्रयास मत करो। मैंने लोगों को यह
कहते सुना है कि केवल उन मुट्ठी भर यहूदियों को वह उपदेश दिया गया था,
जिन्होंने ईसा की बातों को ध्यानपूर्वक सुना। अन्य बातों में भी वही तर्क
लागू होगा। शास्त्रों को मत तोड़ो-मरोड़ो; सत्य यथावत् ग्रहण करने का साहस
करो। यदि हम वहाँ तक पहुँच न भी सकें, तो अपनी दुबर्लता स्वीकार कर लें,
किंतु हम आदर्श का विनाश न करें। हम आशा करें कि कभी उसे उपलब्ध कर लें,
किंतु हम आदर्श का विनाश न करें। हम आशा करें कि कभी उसे उपलब्ध कर लेंगे और
एतदर्थ प्रयास करें। वही तो है- 'तुम्हारे पास जो कुछ है उसे बेच दो और
गरीबों को दे दो तथा मेरा अनुसरण करो। 'इस प्रकार अपने विशेषाधिकारों तथा अपने
भीतर की उस प्रत्येक वस्तु को, जो विशेषाधिकार के लाभ में सहायक है, रौंदते
हुए हम उस ज्ञान के लिए उद्यम करें, इससे समस्त मनुष्य जाति के प्रति
अनन्यता की भावना पैदा हो। तुम कुछ अधिक परिमार्जित भाषा बोलते हो, इससे
सोचते हो कि तुम किसी साधारण व्यक्ति से बढ़कर हो। याद रखो, जब तुम ऐसा सोचते
हो, तब तुम मुक्ति की ओर आगे नहीं बढ़ते हो, प्रत्युत् अपने पैरों में एक नई
बेड़ी डालते हो। सर्वोपरि बात तो यह है कि यदि आध्यात्मिकता का घमंड
तुम्हारे भीतर घुसता है, तो तुम्हारे लिए महा विपत्ति है। यह सब बंधनों से
बढ़कर महा भयावना बंधन है। धन अथवा मानव हृदय का कोई अन्य बंधन आत्मा को
उतना जकड़कर नहीं बाँधता, जितना यह बाँधता है। 'अन्य लोगों की अपेक्षा मैं
अधिक पवित्र हूँ'- यह भाव उन सबसे अधिक भयावह है, जिनका प्रवेश कभी मानव के
हृदय में हो सकता है। किस अर्थ में तुम पवित्र हो? तुम्हारे अंदर जो
परमात्मा है, वही परमात्मा सब में है। यदि तुमने यह न जाना, तो कुछ न जाना।
भेद हो कैसे सकता है? यह सब तो एक है। प्रत्येक प्राणी सर्वोच्च प्रभु का
मंदिर है। यदि तुम उसे देख सके, तो ठीक है और यदि नहीं देख सके, तो तुममें
आध्यात्मिकता अभी तक नहीं आई।
विशेषाधिकार
(लंदन के सेसम क्लब में दिया गया व्याख्यान)
समस्त प्रकृति में दो शक्तियाँ कार्य करती हुई प्रतीत होती हैं। इनमें से एक
निरंतर भिन्नता और दूसरी निरंतर एकता उत्पन्न करती रहती है। एक अधिकाधिक
पृथक् व्यष्टियों के निर्माण में लगी है और दूसरी मानो व्यष्टियों को एक
समष्टि में लाने और इन नाना भेदों के बीच अभेद लाने में लगी है। ऐसा जान पड़ता
है कि इन दोनों शक्तियों का कार्य प्रकृति तथा मानव जीवन के प्रत्येक विभाग
में प्रविष्ट होता है। हम सदा दोनों शक्तियों को भौतिक स्तर पर सर्वापेक्षा
सुस्पष्ट कार्य करते हुए पाते हैं। वे व्यष्टियों को पृथक् करती रहती हैं,
अन्य व्यष्टियों से उन्हें अधिकाधिक भिन्न बनाती रहती हैं और फिर उन्हें
जातियों और श्रेणियों में विभक्त करती हैं एवं अभिव्यक्तियों तथा आकृतियों
में एकरूपता लाती हैं। मनुष्य के सामाजिक जीवन में भी यही लागू होता है। जिस
काल के समाज आरंभ हुआ, ये दोनों शक्तियाँ कार्य कर रही हैं, विभेदीकरण तथा
एकीकरण में लगी हैं। विभिन्न स्थानों और विभिन्न कालों में उनका कार्य नाना
रूपों में प्रकट होता है और वह नाना नामों से संबोधित होता है। परंतु सार
सबमें विद्यमान है, एक शक्ति विभेदीकरण और दूसरी एकीकरण के लिए सचेष्ट है. एक
जाति बनाने और दूसरी उसे तोड़ने के लिए कार्य कर रही है; एक श्रेणियों तथा
विशेषाधिकारों को जन्म देने और दूसरी उनका विनाश करने में लगी है। सारा
विश्व इन दोनों शक्तियों का रण-क्षेत्र प्रतीत होता है। एक ओर यह आग्रह है कि
यद्यपि एकीकरण की इस प्रक्रिया का अस्तित्व है, पर हमें अपनी पूरी शक्ति
लगाकर इसका प्रतिरोध करना ही चाहिए, क्योंकि यह मृत्यु की ओर ले जाती है,
पूर्ण एकत्व पूर्ण विनाश है, और इस विश्व में विभेदीकरण की प्रक्रिया जब बंद
हो जाती है, तब विश्व का अंत हो जाता है। यह विभेदीकरण ही है, जो हमारे
सम्मुख स्थित इस जगत् की घटनावली का निमित्त है; एकीकरण उन्हें समरूप और
निर्जीव जड़ पदार्थ में रूपांतरित कर देगा। निश्चय ही मानव जाति ऐसी स्थिति से
बचना चाहती है। हम अपने चतुर्दिक् जो वस्तुएँ तथा तथ्य देखते हैं, उन सब पर
यही तर्क लागू होता है। इस बात पर जोर दिया जाता है कि इस भौतिक शरीर और
सामाजिक वर्गीकरण में भी पूर्ण साम्य अथवा एकरूपता स्वाभाविक मृत्यु तथा
सामाजिक मृत्यु उत्पन्न कर देगी। विचार तथा भावना के पूर्ण साम्य से
मानसिक अपक्षय और अध:पतन हो जाएगा। इसलिए एकरूपता का परिहार करना है। एक पक्ष
की ओर से उपर्युक्त तर्क दिया गया है, और विविध समयों पर हर देश में भिन्न
शब्दों के द्वारा उस पर जोर दिया गया है। भारत के ब्राह्मण अन्य सब लोगों के
विरुद्ध समाज के विशेष अंश के विशेषाधिकारों को बनाए रखने तथा वर्ग-भेद और
वर्ण-व्यवस्था का प्रतिपादन करने में इन्हीं तर्कों पर बल देते हैं। वे
घोषणा करते हैं कि जाति-भेद के विनाश से समाज का विनाश हो जाएगा और साहसपूर्ण
ऐतिहासिक तथ्यों का प्रमाण पेश करते हैं कि उनका समाज सर्वाधिक चिरजीवी है।
अत: शक्ति के किंचित् दिखावे के साथ वे इस तर्क का सहारा लेते हैं।
प्रामाणिकता के किंचित् दिखावे के साथ वे घोषणा करते हैं कि व्यक्ति को
अल्पतर जीवन प्रदान करने वाली व्यवस्था की अपेक्षा उसे दीर्घतम जीवन प्रदान
करने वाली व्यवस्था निश्चित रूप से श्रेष्ठ है।
दूसरी ओर एकत्व के भाव के समर्थक भी सभी कालों में रहे हैं। उपनिषदों,
बुद्धों और ईसा मसीहों तथा अन्य महान् धर्मोपदेष्टाओं के समय से हमारे
वर्तमान काल तक नई राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं में, उत्पीड़ितों तथा पददलितों
के दावों तथा विशेषाधिकारों से विहीन व्यक्तियों के दावों में, बस इसी एकता
और एकरूपता की एक आवाज बुलंद हुई है। किंतु मानव प्रकृति अपने को व्यक्त
करती ही है। जिन्हें कोई सुविधा प्राप्त है, वे उसे बनाए रखना चाहते हैं और
उन्हें कोई तर्क मिल जाता है- चाहे वह कितना भी एकांगी और रद्दी क्यों न हो-
और वे उस पर डटे रहते हैं। दोनों ही पक्षों पर यह बात लागू होती है।
दर्शन या तत्त्वज्ञान में यह प्रश्न दूसरा रूप धारण कर लेता है। बौद्धों का
कहना है कि इस दृश्य प्रपंच के मध्य एकता स्थापित करने वाली वस्तु खोजने
की हमें आवश्यकता नहीं। दृश्य जगत् पर ही हमें संतोष करना चाहिए। चाहे कितनी
भी दु:खमय और निर्बल क्यों न हो, यह विविधता जीवन का सार है, उससे अधिक हमें
कुछ नहीं मिल सकता। वेदांती कहता है कि केवल एकत्व ही ऐसी वस्तु हैं, जिसका
अस्तित्व है; विविधता तो केवल दृश्य प्रपंच, क्षणभंगुर और प्रतीयमान है।
वेदांती कहता है 'नानात्व मत देखो, एकत्व की ओर वापस जाओ। 'बौद्ध कहता है,
'एकत्व से बचो, वह भ्रांति है; नानात्व की ओर जाओ। 'धर्म तथा दर्शन में वे
ही मतभेद हम लोगों के समय तक चले आ रहे हैं, क्योंकि वस्तुत: ज्ञान के मूल
तत्त्वों की संख्या बहुत कम है। दर्शन और दार्शनिक ज्ञान, धर्म तथा धार्मिक
ज्ञान पाँच हजार वर्ष पूर्व अपनी पराकाष्ठा तक पहुँच गए और हम लोग उन्हीं
सत्यों का विभिन्न भाषाओं में केवल दुहरा भर रहे हैं, कभी-कभी नए
दृष्टांतों द्वारा उन्हें समृद्ध भर कर देते हैं। इसलिए आज भी यह एक संघर्ष
है। एक पक्ष चाहता है कि हम दृश्य प्रपंच में कायम रहें, इन विविधताओं पर
आरूढ़ रहें और वह तर्क के बड़े आग्रह से संकेत करता है कि विविधता को रखना ही
होगा, क्योंकि जब वह खत्म हो जाएगी, तब प्रत्येक वस्तु समाप्त हो जाएगी।
जीवन का हम जो अर्थ लगाते हैं, उसका निमित्त नानात्व है। इसीके साथ दूसरा
पक्ष दृढ़ साहस के साथ एकत्व की ओर संकेत करता है।
जब हम नीतिशास्त्र पर विचार करते हैं, तो हमें बड़ा अंतर मिलता है। शायद यही
एक विज्ञान है, जो इस संघर्ष का महत्वपूर्ण अतिक्रमण करता है क्योंकि
नीतिशास्त्र एकता है; इसका आधार है प्रेम। वह इस विविधता पर दृष्टिपात नहीं
करता। नीतिशास्त्र का एकमात्र उद्देश्य है, यह एकत्व और यह एकरूपता। आज तक
मानव जाति नैतिकता के जिन उच्चतम विधानों की खोज कर सकी है, वे विविधता नहीं
स्वीकार करते, उसकी खोज-बीन के निमित्त रुकने के लिए उनके पास समय नहीं है,
उनका एक उद्देश्य बस वही एकरूपता लाना है। भारतीय मस्तिष्क- मेरा अभिप्राय
वेदांती मस्तिष्क से है- अधिक विश्लेषक है और उसने समस्त विश्लेषण के
परिणामस्वरूप इस एकत्व का पता लगाया और उसने समस्त विश्लेषण के
परिणामस्वरूप इस एकत्व का पता लगाया और उसने एकत्व के इस एक भाव पर
प्रत्येक वस्तु को आधारित करना चाहा। किंतु जैसा कि हम चर्चा कर चुके हैं,
उसी देश में अन्य मस्तिष्क (बौद्ध) थे, जो वह एकत्व कहीं नहीं देख सके।
उनकी दृष्टि में संपूर्ण सत्य विविधता का ही समुच्चय है और एक वस्तु का
दूसरी से कोई संबंध नहीं है।
प्रोफेसर मैक्समूलर ने अपनी एक पुस्तक में एक पुरानी यूनानी कहानी का
उल्लेख किया है, जो मुझे स्मरण है। उसमें बताया गया है कि एक ब्राह्मण किस
प्रकार एथेन्स में सक्रेटिस के यहाँ गया। ब्राह्मण ने पूछा, "सर्वोच्च ज्ञान
क्या है?" और सक्रेटिस ने जवाब दिया, "मनुष्य को जान लेना समस्त ज्ञान का
चरम लक्ष्य और उद्देश्य है।" "परंतु ईश्वर को जाने बिना आप मनुष्य को कैसे
जान सकेंगे?" ब्राह्मण ने प्रत्युत्तर दिया। एक पक्ष, जो यूनानी पक्ष है और
जिसका प्रतिनिधित्व आधुनिक यूरोप करता है, मनुष्य-ज्ञान पर बल देता है;
भारतीय पक्ष, जिसका अधिकांश प्रतिनिधित्व संसार के प्राचीन धर्म करते हैं,
ईश्वर-ज्ञान पर बल देता है। एक प्रकृति में ईश्वर तथा दूसरा ईश्वर में
प्रकृति का दर्शन करता है। वर्तमान काल में शायद हम लोगों को यह सुविधा
प्राप्त हुई है कि दोनों दृष्टिकोणों के प्रति तटस्थ रहकर सब पर निष्पक्ष
विचार कर सकें। यह एक तथ्य है कि विविधता का अस्तित्व है और यदि जीवन को
कायम रहना है, तो यह (विविधता) अवश्य रहेगी। यह भी एक तथ्य है कि इस
नानात्व में और इसके बीच एकत्व को अवगत करना होगा। प्रकृति में ईश्वर दिखाई
पड़ता है, यह तथ्य है परंतु यह भी एक तथ्य है कि प्रकृति का दर्शन ईश्वर
में होता है। मनुष्य-ज्ञान सर्वोच्च ज्ञान है और केवल मनुष्य-ज्ञान द्वारा
ही हम ईश्वर को जान सकते हैं। यह भी एक तथ्य है कि ईश्वर-ज्ञान सर्वोच्च
ज्ञान है और है केवल ईश्वर-ज्ञान से ही हम मनुष्य को जान सकते हैं। यद्यपि
देखने में ये दोनों वक्तव्य परस्पर विरोधी जान पड़ सकते हैं, किंतु वे
मनुष्य की प्रकृति की आवश्यकता हैं। समस्त विश्व भेद-अभेद की क्रीड़ाभूमि
है; समस्त विश्व असीम में ससीम की लीला है। दूसरे को ग्रहण किए बिना हम पहले
को अंगीकार नहीं कर सकते लेकिन हम दोनों को न तो एक ही प्रत्यक्ष बोध के रूप
में ग्रहण कर सकते हैं और न एक ही अनुभूति के तथ्य के रूप में फिर भी इसी
प्रकार यह क्रम सदा चलता रहेगा।
अतएव जब हम धर्म की विवेचना करते हैं, जो हमारे लिए नीतिशास्त्र की अपेक्षा
अधिक विशेष अभिप्राय का विषय है, तो जब तक जीवन का अस्तित्व रहेगा, तब तक ऐसी
अवस्था का होना असंभव है, जिसमें सारी विविधताओं का लोप होकर एक सी मृत
समरूपता क़ायम हो जाए। यह वांछनीय भी नहीं। साथ ही तथ्य का दूसरा पहलू है-
एकत्व का अस्तित्व पहले से ही है। यह है विचित्र दावा- यह नहीं कि इस एकत्व
को बनाना है, वरन् यह कि इसका अस्तित्व पहले से ही है और उसके बिना तुम्हें
नानात्व का किंचित् प्रत्यक्ष नहीं हो सकता। यह सब धर्मों का दावा रहा है।
जब कभी किसीने ससीम का प्रत्यक्ष किया है, तब उसने असीम का भी प्रत्यक्ष
किया है। कुछ ने ससीम पर बल दिया और घोषित किया कि उन्होंने बाह्य ससीम का
प्रत्यक्ष किया; दूसरों ने असीम पक्ष पर बल दिया और घोषित किया कि उन्होंने
केवल असीम का प्रत्यक्ष किया। पर हम जानते हैं कि यह तार्किक आवश्यकता है कि
हम एक के बिना दूसरे का प्रत्यक्ष नहीं कर सकते। इसलिए दावा यह है कि यह
एकत्व, यह पूर्णत्व- जैसा कि इसे हम कह सकते हैं- बनने को नहीं है, इसका
पहले से ही अस्तित्व है और यह यहाँ विद्यमान है; हमें केवल उसे मान्यता
प्रदान करना है और उसे समझना है। चाहे उसे हम जानते हों या नहीं, चाहे उसे हम
स्पष्ट भाषा में व्यक्त कर सकते हों या नहीं, चाहे इस प्रत्यक्ष में
इंद्रिय-प्रत्यक्ष की स्पष्टता और शक्ति हो या न हो, पर वह है अवश्य। अपने
मन की तार्किक आवश्यकता के कारण हम यह स्वीकार करने के लिए बाध्य है कि वह
यहाँ विद्यमान है, अन्यथा ससीम का प्रत्यक्ष न हो पाता। मैं द्रव्य और गुण
के प्राचीन सिद्धांत की चर्चा नहीं कर रहा हूँ, वरन् एकत्व की चर्चा कर रहा
हूँ कि इस सब दृश्य प्रपंच-समूह के बीच चेतना का यह तथ्य तो ह्दयंगम होता ही
है कि मैं और तुम एक दूसरे से भिन्न हैं और साथ ही यह चेतना भी कि मैं और तुम
एक दूसरे से भिन्न नहीं हैं। उस एकत्व के बिना ज्ञान असंभव होता। अभेद के
भाव बिना न प्रत्यक्ष बोध होगा, न ज्ञान। इसलिए दोनों साथ साथ चलते हैं।
अतएव यदि परिस्थितियों की पूर्ण एकरूपता नीतिशास्त्र का उद्देश्य हो, तो वह
असंभव प्रतीत होता है। चाहे हम कितना भी प्रयत्न क्यों न करें, सब मनुष्य
एक से कभी नहीं हो सकते। मनुष्य जन्म से ही भिन्न-भिन्न होंगे; कुछ में
अन्य की अपेक्षा अधिक सामर्थ्य होगा; कुछ में स्वाभाविक क्षमता होगी,
दूसरों में नहीं; कुछ के शरीर पूर्ण विकसित होंगे और दूसरों के नहीं। हम इसे
कभी रोक नहीं सकते। इसके साथ ही विभिन्न आचार्यों द्वारा उपदिष्ट नैतिकता के
ये अद्भुत शब्द हमारे कर्ण-कुहरों में प्रविष्ट होते हैं- 'एक ही ईश्वर को
सबमें सम भाव से देखनेवाला मनीषी पुरुष आत्मा से आत्मा की हिंसा नहीं करता
और इस प्रकार परम गति को प्राप्त होता है। जिसका अंत:करण समता में अर्थात् सब
भूतों में स्थित ब्रह्मरूप सम भाव में निश्चलतापूर्वक स्थित हो गया है, उसने
जीवितावस्था में ही जन्म को जीत लिया है; और क्योंकि ब्रह्म निर्दोष है,
इसलिए जो समदर्शी एवं निर्दोष हैं, वे ब्रह्म में ही स्थित कहे जाते हैं।' [13]हम इसे अस्वीकार नहीं
कर सकते कि यही यथार्थ भाव है; फिर भी इसीके साथ यह कठिनाई उपस्थित होती है कि
बाह्य रूपों तथा अवस्था में कभी साम्य प्राप्त नहीं हो सकता।
किंतु जिसकी सम्प्राप्ति हो सकती है, वह है विशेषाधिकार का निराकरण। सारे
संसार के समक्ष वास्तव में यही कार्य है। प्रत्येक जाति और प्रत्येक देश के
सामाजिक जीवन में यह संघर्ष होता रहा है। कठिनाई यह नहीं है कि कोई जनसमूह
किसी अन्य जनसमूह से प्रकृत्या अधिक मेघावी है, परंतु क्या जिस जनसमूह को
बौद्धिक सुविधाएँ प्राप्त हैं, वह उन लोगों के शारीरिक सुख-भोग भी छीन ले,
जिनको वे सुविधाएँ प्राप्त नहीं हैं। संघर्ष है उस विशेषाधिकार के उन्मूलन
का। यह स्वयंसिद्ध तथ्य है कि अन्य लोगों की अपेक्षा कुछ लोगों में शारीरिक
बल अधिक होगा और इस प्रकार स्वाभाविक है कि वे निर्बल को दबा देंगे या
परास्त कर देंगे; परंतु यह कानून नहीं कहता कि इस बल के कारण जीवन के सभी
प्राप्य सुखों को वे सवयं अपने में समेट लें, और संघर्ष इसी के विरुद्ध रहा
है। यह स्वाभाविक है कि कुछ लोग स्वभावत: सक्षम होने के कारण दूसरों की
अपेक्षा अधिक धन संग्रह कर लें; किंतु धन प्राप्त करने के इस सामर्थ्य के
कारण वे उन लोगों पर अत्याचार और अंधाधुन्ध व्यवहार करें, जो उतना अधिक धन
संग्रह करने में समर्थ न हों, तो यह कानून का अंग नहीं है, और संघर्ष इसके
विरुद्ध हुआ है। अन्य के ऊपर सुविधा के उपभोग को विशेषाधिकार कहते हैं और
इसका विनाश करना युग युग से नैतिकता का उद्देश्य रहा है। यह कार्य ऐसा है,
जिसकी प्रवृत्ति साम्य और एकत्व की ओर है तथा जिससे विविधता का विनाश नहीं
होता।
इन विविधताओं को अनंत काल तक रहने दो; यह तो जीवन का सार है। अनंत काल तक हम
सब इस प्रकार लीला करेंगे। तुम धनी होगे, मैं निर्धन; तुम सबल होगे और मैं
निर्बल; तुम विद्वान् होगे और मैं अज्ञानी; तुम बहुत आध्यात्मिक होगे और मैं
कम। किंतु उससे क्या? हम लोग वैसे बने रहें; लेकिन चूँकि तुममें शारीरिक तथा
बौद्धिक बल अपेक्षाकृत अधिक है, इसलिए तुम्हें मेरी अपेक्षा अधिक विशेषाधिकार
कदापि नहीं प्राप्त होना चाहिए और यदि तुम्हारे पास अधिक धन है, तो कोई कारण
नहीं कि तुम मुझसे बड़े समझे जाओ, क्योंकि विभिन्न दशाओं के बावजूद वही अभेद
यहाँ विद्यमान है।
नानात्व के बावजूद एकत्व को स्वीकार करना, प्रत्येक वस्तु के हमारे लिए
भयप्रद प्रतीत होने के बावजूद अंत:करण में ईश्वर को स्वीकार करना, सभी
प्रत्यक्ष दुर्बलताओं के बावजूद असीम बल को प्रत्येक का गुण स्वीकार करना
और ऊपरी सतह के सभी विरोधाभासों के बावजूद आत्मा की शाश्वत, अनंत और तात्विक
पवित्रता को स्वीकार करना नीतिशास्त्र का कार्य रहा है और भविष्य में भी
रहेगा, न कि विविधता का विनाश करना और बाह्य जगत् में एकरूपता की स्थापना
करना- जो असंभव है, क्योंकि उससे मृत्यु तथा विनाश हो जाएगा। इसे हमें
स्वीकार करना पड़ेगा। केवल एक पक्ष का ग्रहण और उस पक्ष की अर्द्ध स्वीकृति
खतरनाक है और उससे विवाद की आशंका है। संपूर्ण वस्तु को हमें यथावत् ग्रहण
करना होगा, अपना आधार बनाकर उस पर खड़ा होना होगा तथा व्यक्ति के रूप में एवं
समाज के इकाई-सदस्य के रूप में अपने जीवन के प्रत्येक अंग में उसे चरितार्थ
करना होगा।
सभ्यता का अवयव वेदांत
(एअर्ली लॉज, रिजवे गार्डेन्स, इंग्लैंड में दिए गए एक भाषण का उद्धरण)
जो लोग किसी वस्तु का केवल बाह्य स्थूल स्वरूप ही देखने में समर्थ हैं, वे
भारतीय राष्ट्र को केवल विजितों, पीडि़तों तथा स्वप्नद्रष्टाओं और
दार्शनिकों की जाति समझते हैं। वे इस बात को समझने में असमर्थ हैं कि
आध्यात्मिक क्षेत्र में भारत ने संसार को जीत लिया है। नि:संदेह यह सच है कि
जिस प्रकार अत्यधिक कार्यशील पाश्चात्य बुद्धि प्राच्य अंतर्वीक्षण और
चिंतनशीलता को अपनाने से लाभान्वित होगी, उसी प्रकार प्राच्य बुद्धि भी
किंचित् अधिक कार्यशीलता तथा ऊर्जस्विता के द्वारा लाभाविंत होगी। फिर भी, हम
पूछ सकते हैं कि वह शक्ति क्या है, जिसके कारण सहिष्णु तथा पीड़ित जातियाँ -
हिंदू तथा यहूदी, जिन दो जातियों से विश्व के महान् धर्म निकले, जीवित रहीं,
जबकि अन्य राष्ट्र विनष्ट हो गए? इसका कारण केवल आध्यात्मिक शक्ति हो सकती
है। आज भी हिंदू शांत भाव से जीवित हैं; तथा यहूदी, जब वे फि़लिस्तीन में
रहते थे, तब की अपेक्षा आज अधिक संख्या में पाए जाते हैं। भारतीय दर्शन
समस्त सभ्य संसार में व्याप्त हो गया है और अपनी इस यात्रा में सभ्यताओं
को ओतप्रोत तथा परिमार्जित करता गया है। इसी प्रकार, प्राचीन काल में भी जब
यूरोप अज्ञात था,भारत का वाणिज्य अफ़्रीका के छोर तक पहुँच गया था, विश्व के
अन्य भागों से आवागमन स्थापित कर चुका था, जिससे यह मान्यता निर्मूल सिद्ध
हो जाती है कि भारतीय अपने देश के बाहर कभी नहीं गए।
यह भी ध्यान देने योग्य है कि किसी विदेशी शक्ति का भारत पर आधिपत्य, उस
शक्ति के इतिहास में उसे एक मोड़ देनेवाला बिंदु रहा है, जिससे उसको धन, वैभव,
राज्य तथा आध्यात्मिक विचार प्राप्त होते रहे हैं। जब कि एक पाश्चात्य
मनुष्य यह नापने का प्रयत्न करता है कि उसके लिए कितना अधिक परिग्रह और भोग
कर सकना संभव है, प्राच्य मनुष्य विपरीत दिशा में जाता है और नापता सा है कि
वह कम से कम कितनी भौतिक संपत्ति से काम चला सकता है। उस प्राचीन जाति में
ईश्वर को प्राप्त करने के प्रयत्न का सूत्र हम वेदों में पाते हैं। उस
ईश्वर की प्राप्ति के हेतु उन लोगों ने उपासना के विभिन्न स्तरों को
अपनाया। पितरों की पूजा से आरंभ कर वे लोग अग्नि, अर्थात् अग्निदेवता, इंद्र,
अर्थात् तड़ित के देवता तथा देवाधिदेव वरुण तक पहुँच गए। ईश्वर संबंधी
कल्पना का विश्वास्, अर्थात् बहुदेववाद से एकेश्वरवाद, हम सभी धर्मों में
पाते है। इसका सही अर्थ यह है कि वह ईश्वर वनजातियों के देवताओं में प्रधान
है, विश्व की सृष्टि करता है, शासन करता है तथा प्रत्येक हृदय को देखता रहता
है। इस प्रकार से यह क्रमिक विकास बहुदेयवाद से एकेश्वरवाद की ओर ले जाता है
परंतु ईश्वर की यह मानवीय कल्पना हिंदुओं को संतुष्ट नहीं कर सकी। वह
कल्पना उन लोगों के लिए, जो दिव्य तत्त्व का अन्वेषण कर रहे थे, अत्यधिक
मानवीय थी। अतएव, उन लोगों ने ईश्वर का अन्वेषण इंद्रियजन्य तथा बाह्य
भौतिक जगत् में करना छोड़ दिया और अपना ध्यान अंतर्जगत् के प्रति केंद्रित
किया। क्या कोई अंतर्जगत् है भी? वह है तो क्या है? यह है आत्मा। यह
स्वयंस्वरूप है तथा केवल यही एक ऐसा तत्त्व है, जिसके विषय में कोई व्यक्ति
निश्चित हो सकता है। यदि वह स्वयं अपने को जान ले, तो वह समूचे ब्रह्मांड को
जान सकता है, अन्यथा नहीं। यही प्रश्न दूसरे रूप में काल के प्रारंभ में ही,
ऋग्वेद में पूछा गया था- 'कौन अथवा क्या आदि काल ही से वर्तमान था?' इस
प्रश्न का उत्तर क्रम से वेदांत दर्शन ने दिया कि आत्मा ही आदि काल में
स्थित थी, अर्थात् जिसे हम ब्रह्म, विश्वात्मा तथा स्वयंस्वरूप कहते हैं,
वह शक्ति है जिसके द्वारा प्रारंभ से ही सभी तत्त्व व्यक्त हुए थे, हो रहे
हैं और होंगे।
वेदांत के दार्शनिकों ने उपर्युक्त प्रश्न का हल करते हुए नीतिशास्त्र के
मूल आधार का भी आविष्कार किया। यद्यपि सभी धर्म 'हत्या मत करो; हिंसा मत
करो; अपने पड़ोसियों को अपने ही जैसा प्यार करो' इत्यादि नैतिकतामूलक आचार
की शिक्षा देते हैं, परंतु किसी भी धर्म ने इन शिक्षाओं के मौलिक सिद्धांत पर
प्रकाश नहीं डाला है। 'मैं अपने पड़ोसी को क्यों न हानि पहुँचाऊँ?' इस
प्रश्न का संतोषजनक अथवा निश्चयात्मक उत्तर अब तक नहीं प्राप्त हो सका, जब
तक हिंदुओं ने, जो केवल धार्मिक अंध नियमों से ही संतुष्ट नहीं हो सकते थे,
इसका हल आध्यात्मिक विचारधारा से नहीं किया। अतएव, हिंदुओं का कहना है कि यह
आत्मा संपूर्ण तथा सर्वव्यापी है; अत: अनंत है। दो अनंत तत्त्वों का
अस्तित्व नहीं हो सकता, क्योंकि वे एक दूसरे को सीमित कर देंगे और स्वयं भी
परिमित हो जाएँगे। एक बात और; प्रत्येक जीवात्मा उस विश्वात्मा का, जो कि
अनंत है, एक अंश है। अत: अपने पड़ोसी को हानि पहुँचाकर मनुष्य वस्तुत:
स्वयं अपने आपको हानि पहुँचाता है। यह सभी नीति-संहिताओं का आधारभूत दार्शनिक
सत्य है।
बहुधा यह विश्वास कर लिया जाता है कि एक व्यक्ति पूर्णता प्राप्त करने की
यात्रा में भ्रांति से सत्य की ओर जाता है तथा जब एक विचार से दूसरे विचार पर
पहुँचता है, तो वह पहले वाले विचार को निश्चयात्मक रूप से अस्वीकृत कर देता
है। परंतु कोई भी भ्रांति सत्य की ओर नहीं ले जा सकती। विभिन्न दशाओं के
अतिक्रमण में जीवात्मा एक सत्य से दूसरे सत्य की ओर जाता है, क्योंकि वह
निम्न कोटि के सत्य से उच्चतर कोटि के सत्य की ओर जाती है। यह बात
निम्नांकित उदाहरण से स्पष्ट की जा सकती है। मान लो कि एक मनुष्य सूर्य की
ओर जा रहा है और हर एक पग पर उसका फ़ोटो लेता जाता है। परंतु जब वह सचमुच ही
सूर्यतक पहुँच जाता है, तब उसका लिया हुआ पहला फोटो दूसरे से, और दूसरा तीसरे
से या अंतिम फोटो से कितना भिन्न होगा ! परंतु ये सभी एक दूसरे से अत्यधिक
भिन्न होते हुए भी सत्य हैं। केवल समय तथा स्थान की परिवर्तित दशाओं से वे
विभिन्न दीख पड़ते हैं। इस सत्य की मान्यता ही के कारण एक हिंदू सभी धर्मों
में, निकृष्ट दीख पड़ते हैं। इस सत्य की मान्यता ही के कारण एक हिंदू सभी
धर्मों में, निकृष्ट से उत्कृष्ट में भी उस सार्वभौम सत्य को देखने में
समर्थ होता है। इस दृष्टिकोण के कारण हिंदुओं ने कभी धार्मिक उत्पीड़न का
आश्रय नहीं लिया। (यहाँ तक कि) आज एक मुसलमान संत की दरगाह, जो मुसलमानों
द्वारा निरादृत और विस्मृत कर दी गई है, वह हिंदुओं द्वारा पूजी जाती है ! इस
प्रकार की सहिष्णु प्रवृत्ति के अनेक उदाहरण दिए जा सकते हैं।
प्राच्य बुद्धि तब तक संतुष्ट नहीं हो सकती, जब तक संपूर्ण मानवता द्वारा
ईप्सित लक्ष्य- एकत्व को प्राप्त न कर ले। पाश्चात्य वैज्ञानिक एकत्व को
अणु या परमाणु में खोजता है और जब वह इसे पा लेता है, तब उसको आगे और कुछ
खोजने को नहीं रह जाता। इस प्रकार जब हम आत्मा या स्वयं की एकता प्राप्त कर
लेते हैं, जिसे आत्मा कहते हैं, तब हम आगे नहीं जा सकते। अत: यह स्पष्ट है
कि इस बाह्य जगत् में जो कुछ है, वह उसी एक तत्त्व का व्यक्त स्वरूप है।
फिर भी, वैज्ञानिक को भी अध्यात्म को मान्यता देने की आवश्यकता तब आ पड़ती
है, जब वह कल्पना करता है कि एक परमाणु, जिसकी लंबाई और चौड़ाई नहीं होती, वह
भी संयुक्त होकर, विस्तार, लंबाई तथा चौड़ाई का कारण बन जाता है। जब एक अणु
दूसरे अणु पर क्रियाशील होता है, तो इसका कारण कोई माध्यम होगा ही। वह
माध्यम क्या है? यह (शायद) एक तीसरा परमाणु होगा। यदि ऐसा है, तो भी इस
प्रश्न का हल नहीं हो सकता है, क्योंकि ये दो परमाणु तीसरे पर कसे क्रियाशील
होंगे? यह स्पष्ट ही एक असंगत तथा तर्क-विरुद्ध विचार है। इस प्रकार के
विरोधाभासी पद सभी भौतिक विज्ञानों की आवश्यक परिकल्पनाओं में पाए जाते हैं,
जैसे कि बिंदु वह है, जिसका कोई अंश या विस्तार न हो; या रेखा वह है, जिसमें
चौड़ाईरहित लंबाई हो। परंतु ऐसी कल्पनाएँ न देखी जा सकती हैं और न विचारगम्य
ही हैं। क्यों? इसलिए कि ये इंद्रियों द्वारा बोधगम्य नहीं हैं और ये
दार्शनिक कल्पनाएँ हैं। अत: हम देखते हैं कि बुद्धि ही अंतत: सभी
प्रत्यक्षों को स्वरूप प्रदान करती है। जब मैं एक कुर्सी को देखता हूँ, तब
वह कुर्सी मेरी आँखों के बाहर की असली कुर्सी नहीं होती, जिसका हमें बोध होता
है; परंतु वह (कुर्सी) किसी बाह्य वस्तु तथा तज्जन्य मानसिक प्रतिभा का
संयोग ही होती है। इस प्रकार एक भौतिकवादी भी अंततोगत्वा अध्यात्म की ओर
प्रेरित हो जाता है।
वेदांत का सार तत्त्व तथा प्रभाव
(बोस्टन के ट्वेन्टिएथ सेन्चुरी क्लब में दिया गया भाषण)
इस सांध्यकालीन विषय पर कुछ बोलने के पहले, जब कि मुझे यह अवसर मिला है,
क्या तुम धन्यवाद के कुछ शब्द कहने की अनुमति प्रदान करोगे? मैं तीन वर्षों
तक तुम लोगों के साथ रहा। मैं प्राय: पूरे अमेरिका का भ्रमण कर चुका हूँ, और
चूँकि अब मैं अपने स्वदेश लौट रहा हूँ, यह ठीक होगा कि मैं अमेरिका के इस
एथेन्स में, अपनी कृतज्ञता प्रकट करने के लिए इस अवसर का सदुपयोग करूँ। जब
मैं प्रथम बार इस देश में आया, तो मैंने कुछ दिनों के बाद सोचा कि मैं इस
राष्ट्र पर एक पुस्तक लिखूँगा। परतुं तीन वर्षों के आवास के उपरांत मैं यह
पा रहा हूँ कि मैं एक पृष्ठ भी नहीं लिख सकता। इसके विपरीत, बहुत से देशों के
भ्रमण के बाद मैं यह अनुभव करता हूँ कि वेश-भूषा, खान-पान तथा तौर-तरीक़ों की
छोटी-मोटी सभी बाह्य विभिन्नताओं के नीचे मानव अखिल विश्व में मानव ही है,
सर्वत्र वही अद्भुत मानव प्रकृति विद्यमान है। फिर भी कुछ विशेषताएँ तो होती
ही हैं, अत: मैं थोड़े से शब्दों में यहाँ के अनुभवों को संक्षेप में कहना
चाहूँगा। अमेरिका की इस भूमि में मनुष्य की विशेषताओं के संबंध में कोई
प्रश्न नहीं पूछा जाता। यदि मनुष्य मनुष्य है, तो इतना ही यथेष्ट है और वे
(अमेरिकावासी) उसे अपने हृदय में स्थान दे देते हैं। यह एक ऐसा तथ्य है,
जिसको मैंने विश्व के अन्य किसी देश में नहीं देखा।
मैं यहाँ तक भारतीय दर्शन का, जिसे वेदांत कहते हैं, प्रतिनिधित्व करने आया
था। यह दर्शन अत्यंत प्राचीन है। यह दर्शन उस विशाल पुरातन आर्यसाहित्य से
उद्गत हुआ है, जिसे वेदों के नाम से पुकारते हैं। यह वेदांत दर्शन मानो
शताब्दियों तक संग्रहीत और चयन किए गए उस विशाल साहित्य के अंतर्गत सभी
विचारधाराओं, अनुभवों तथा विवेचनों का सर्वोत्तम पुष्प है। इस वेदांत दर्शन
की कतिपय विशेषताएँ हैं। प्रथमत:, यह पूर्णरूपेण अवैयक्तिक है। इसकी उत्पत्ति
किसी व्यक्ति विशेष या धर्मगुरु से नहीं हुई। एक व्यक्ति विशेष को केंद्र
में रखकर वह अपनी प्रतिष्ठा नहीं करता परंतु जो दर्शन किसी व्यक्ति विशेष को
केंद्रित करके प्रतिपादित हुए हैं, उनके विरुद्ध भी इसको कुछ कहना नहीं।
विचारों की अनंत विविधता को स्वीकार करना चाहिए और हर एक को एक ही विचारधारा
के अंतर्गत लाने का प्रयत्न नहीं करना चाहिए, क्योंकि लक्ष्य तो एक ही है।
जैसा कि एक वेदांती अपनी काव्यमयी भाषा में कहता है- 'जिस प्रकार बहुत सी
नदियाँ, जिनका उद्गम विभिन्न पर्वतों से होता है, टेढ़ी या सीधी बहकर अंत में
समुद्र ही में गिरती हैं, उसी प्रकार ये सभी विभिन्न संप्रदाय तथा धर्म, जो
विभिन्न दृष्टि-बिंदुओं से प्रकट होते हैं, सीधे या टेढ़े मार्गों से चलते
हुए भी अनंत: तुम्हीं को प्राप्त होते हैं।'
इस विचार की अभिव्यक्ति के रूप में, हम देखते हैं कि इस प्राचीनतम दर्शन ने
अपने प्रभाव के द्वारा बौद्ध मत को, जो विश्व का प्रथम प्रचारक धर्म है,
प्रत्यक्षत: प्रेरित किया है। अप्रत्यक्ष रूप से इसने अलेक्जेन्ड्रियनों,
नास्टिकों तथा मध्ययुगीन यूरोपीय विचारकों द्वारा, ईसाई धर्म को भी प्रभावित
किया है। बाद में जर्मन विचारधारा को प्रभावित करते हुए, इसने दर्शन तथा
मनोविज्ञान के क्षेत्र में प्राय: क्रांति उत्पन्न कर दी है। इस पर भी यह
विशाल प्रभाव जो संसार पर पड़ा, वह अलक्ष्य ही रहा। जिस प्रकार रात्रि में ओस
हलके से गिरकर वनस्पतियों के जीवन का पोषण करती है, उसी प्रकार धीरे-धीरे तथा
अलक्ष्य रूप से यह दिव्य वेदांत दर्शन समूचे विश्व में मानव कल्याणार्थ
फैल गया है। इस धर्म के प्रचार के लिए सेनाओं के अभियान का उपयोग नहीं हुआ।
बौद्ध मत में, जो विश्व का एक बहुत बड़ा प्रचारक धर्म है, सम्राट् अशोक के
अवशेष शिलालेख हमें प्राप्त हैं; जिनसे यह पता चलता है कि किस तरह
धर्मप्रचारक अलेक्जेन्ड्रिया, एन्टिओक, ईरान, चीन तथा तत्कालीन सभ्य जगत्
के अन्य बहुत से देशों में भेजे गए थे। ईसा के तीन सौ वर्ष पहले ही उन लोगों
को यह शिक्षा दी गई थी कि किसी धर्म की निंदा नहीं करें- 'सभी धर्मों का आधार
एक है, जहाँ कहीं भी वे हों; जितना तुमसे हो सके, उतना उनकी सहायता करो तथा उन
सबको शिक्षा दो, परंतु उनको हानि नहीं पहुँचाओ।'
अतएव भारत में हिंदुओं द्वारा कभी धार्मिक उत्पीड़न नहीं हुआ, बल्कि
उन्होंने विश्व के सभी धर्मों के प्रति अद्भुत आदर का भाव ही रखा। हिब्रू
जाति के कुछ लोग जब स्वदेश से भगाए गए थे, तब हिंदुओं ने उनको शरण दी, जिसके
फलस्वरूप मलाबार के यहूदी अभी तक हैं। एक अन्य समय में उन्होंने नष्टप्राय
ईरानियों के अवशिष्ट अंश का स्वागत अपने देश में किया; और वे लोग आज भी
हमारे मध्य हमारे एक अग और प्रीति-भाजन, बंबई के आधुनिक पारसियों के रूप में
विद्यमान हैं। ईसा मसीह के शिष्य सेंट थामस के साथ आने का दावा करने वाले
ईसाई लोगों को भी भारत में रहने तथा अपनी विचारधारा सुरक्षित रखने की अनुमति
दी गई। उन लोगों की एक बस्ती अब तक भारत में है। यह सहिष्णुता का भाव वहाँ न
मरा है, न मरेगा, न मर सकता है।
यह वेदांत की महती शिक्षाओं में से एक है। यह जानकर कि ज्ञात या अज्ञात रूप से
हम सब उसी ध्येय को पहुँचने के लिए संघर्षशील हैं, हम अधैर्यवान क्यों हों?
यदि एक मनुष्य दूसरे से मंद है, तो हमें अधीर नहीं होना चाहिए; न उसे अपशब्द
कहना चाहिए और न उसकी भर्त्सना करनी चाहिए। जब हमारे चक्षु उन्मीलित हो जाते
हैं और हृदय पवित्र हो जाता है, उस दिव्य प्रभाव का कार्य, हर मानव हृदय में
प्रस्फुटित होता हुआ वह ईश्वरीय उद्बोधन, अभिव्यक्त हो जाएगा और तभी हम
लोग मनुष्य मात्र के भ्रातृत्व का दावा करने में समर्थ होंगे।
जब मनुष्य उच्चतम को प्राप्त कर लेता है, और वह न पुरुष देखता है, न
स्त्री, न लिंग, न धर्म, न वर्ण, न जन्म, न ऐसे अन्य प्रकार के विभेदों को
देखता है, वरन् वह आगे बढ़ता जाता है और उस दिव्यता का अनुभव करता है, जो
मानव का सत्य स्वरूप है, वह मनुष्यों में अंतर्हित है- केवल तभी वह
विश्वबंधुत्व को प्राप्त कर लेता है और केवल ऐसा ही व्यक्ति वेदांती है।
यह वेदांत के कतिपय व्यावहारिक और ऐतिहासिक परिणाम हैं।
खुला रहस्य
(लाँसएंजिलिस, कैलिफोर्निया में दिया हुआ भाषण)
वस्तुओं को यथार्थ रूप में समझने के प्रयत्न में हम चाहे किसी दिशा में
झुकें, गंभीर चिंता करने पर हमें दिखाई यही देगा कि अंत में हम वस्तुओं की एक
ऐसी अजीब अवस्था पर आ पहुँचते हैं, जो विरोधात्मक सी प्रतीत होती है; हम एक
ऐसी वस्तु पर आ पहुँचते हैं, जो बुद्धि से ग्रहण तो नहीं की जा सकती, परंतु
फिर भी सत्य है। हम एक वस्तु लेते हैं- हम जानते हैं कि वह सांत है। लेकिन
ज्यों ही हम उसका विश्लेषण करने लगते हैं, वह हमें एक ऐसे क्षेत्र में ले
जाती है, जो बुद्धि के अतीत है। उसके गुण-धर्मों का, उसकी संभावनाओं का, उसकी
शक्तियों और उसके संबंधों का हम अंत नहीं पा सकते। वह अनंत बन जाती है।
उदाहरणार्थ, प्रतिदिन के व्यवहार का एक फूल ही ले लो। वह तो सांत ही है लेकिन
ऐसा कौन है, जो कह सकता है कि मैं फूल के बारे में सब कुछ जानता हूँ? उस फूल
से संबंधित ज्ञान के अंत तक पहुँच जाना किसी के लिए भी संभव नहीं है। आरंभ में
फूल सांत प्रतीत होता था, अब वह अनंत बन बैठा है। रेती का एक कण लो। उसका
विश्लेषण करो। हम यह मानकर आरंभ करते हैं कि वह सांत है; पर बाद में हम देखते
हैं कि वह सांत नहीं है, अनंत है। फिर भी हम उसे सांत वस्तु की दृष्टि से ही
देखते आए हैं। इसी तरह फूल को भी हम एक शांत वस्तु की दृष्टि से देखते हैं।
यही विचारों और अनुभवों के विषय में सत्य है, चाहे वह भौतिक हो अथवा मानसिक।
आरंभ में हम वस्तुओं को छोटी समझकर ग्रहण करते हैं, लेकिन शीघ्र ही वे हमारे
ज्ञान को धोखा दे देती हैं और अनंत के गर्त में विलीन हो जाती हैं। महत्तम और
प्रथम वस्तु जिसका बोध हमें होता है, वह हैं हम स्वयं। हमारे स्वयं के
'अस्तित्व' के बारे में भी ठीक ऐसी ही द्विधा है। इसमें संदेह नहीं कि हमारा
अस्तित्व है। हम देखते हैं कि हम सांत जीव हैं। हम जन्म लेते हैं और हमारी
मृत्यु होती है। हमारे जीवन का क्षितिज परिमित है। हम इस विश्व में मर्यादित
अवस्था में विद्यमान हैं। निसर्ग एक क्षण में हमारा अस्तित्व मिटा सकता है।
हमारे छोटे छोटे शरीर जैसे-तैसे संकलित हैं, और किसी भी क्षण टुकड़े-टुकड़े
होने के लिए तैयार से हैं। यह हमें निश्चित मालूम हैं। कर्म के क्षेत्र में हम
कितने असहाय हैं ! हर घड़ी हमारी इच्छा कुंठित होती है। हम कितना करना चाहते
हैं, और कितना कम कर पाते हैं ! हमारी वासना का कोई अंत नहीं। हम किसी भी
वस्तु की वासना कर सकते हैं, कोई भी वस्तु चाह सकते हैं, हम व्याध-नक्षत्र
तक पहुँचने की भी इच्छा कर सकते हैं। परंतु हमारी कितनी कम इच्छाएँ पूर्ण
होती हैं ! शरीर ही हमारी इच्छाएँ पूर्ण न होने देगा। स्वयं प्रकृति ही
हमारी इच्छा-पूर्ति के विरुद्ध है। हम असहाय है, दुर्बल हैं। भौतिक जगत् के
फूल या रेती के कण तथा मानस-जगत् के विचारों के संबंध में लागू हैं। एक ही साथ
सांत और अनंत होने के कारण हम भी अस्तित्व संबंधी इसी दुविधा में हैं। हम
समुद्र पर उठनेवाली लहरों के समान हैं। लहर समुद्र से नितांत पृथक् नहीं है,
फिर भी वह स्वयं समुद्र नहीं है। लहर का ऐसा कोई हिस्सा नहीं है, जिसे हम
ऐसा कह सकें कि 'यह समुद्र नहीं है।' 'समुद्र' यह अभिधान उस पर तथा समुद्र के
प्रत्येक अंग पर समान रूप से लागू है, और फिर भी वह समुद्र से स्वतंत्र है।
इसी तरह इस सत्तारूपी अनंत सागर में हम छोटी छोटी ऊर्मियों के समान हैं परंतु
जब हम स्वयं को सचमुच पकड़ना चाहते हैं, तो हम वैसा नहीं कर पाते, क्योंकि
तब हम अनंत बन जाते हैं।
हम लोग माना स्वप्न-जगत् में चल रहे हैं। स्वप्नावस्था में स्वप्न
सत्य ही होते हैं, लेकिन हम जैसे ही उनमें से किसी एक को पकड़ना चाहते हैं,
वह ग़ायब हो जाता है। ऐसा क्यों? इसलिए नहीं कि वह झूठा था, बल्कि इसलिए कि
वह तर्क और बुद्धि की ग्रहण-शक्ति से परे है। इस दुनिया की प्रत्येक वस्तु
इतनी विशाल है कि उसकी तुलना में हमारी बुद्धि कुछ भी नहीं है, वह बुद्धि के
नियमों से बँधने से इंकार करती है। बुद्धि उसके आसपास जब अपने पाश फैलाना
चाहती है, तो वह हँसती है। मानवात्मा के विषय में तो यह तत्त्व और भी हजार
गुना सत्य है। 'स्वयं हम' ही दुनिया में सबसे बड़ा रहस्य है।
ओह ! यह सब कितना आश्चर्यमय है ! मनुष्य की आँख ही देखो, उसका कितनी आसानी
से नाश हो सकता है। फिर भी, विशाल सूर्यों का अस्तित्व केवल इसलिए है कि
तुम्हारी आँखें उन्हें देख रही हैं। दुनिया इसलिए विद्यमान है कि तुम्हारी
आँखें प्रमाण देती हैं कि वह विद्यमान है। जरा इस रहस्य पर विचार करो। ये
बेचारा छोटी आँखें ! तेज उजाला या एक आलपीन इन्हें नष्ट कर दे सकती है।
लेकिन नाश के बृहत्तम यंत्र, प्रलय काल के बलिष्ठतम साधन, आश्चर्य पूर्ण
घटनाएँ कोटि कोटि तारे, सूर्य, चंद्र, भूमण्डल- इन सबका अस्तित्व इन दो छोटी
आँखों पर अवलंबित है और इन्हें इन दो छोटी आँखों के प्रमाणपत्र की आवश्यकता
होती है। आँखें कहती हैं कि 'हे प्रकृति, तुम विद्यमान हो' और हम विश्वास
करते हैं कि प्रकृति विद्यमान है। हमारी सभी इंद्रियों के संबंध में ऐसा ही
है।
यह क्या है? फिर कमज़ोरी है कहाँ? कौन बलिष्ठ है? कौन बड़ा है और कौन छोटा?
इस जगत् में सब वस्तुएँ अद्भुत भाव से परस्वरावलंबी हैं। यहाँ छोटे से छोटा
परमाणु भी संपूर्ण विश्व के अस्तित्व के लिए आवश्यक है, फिर किसे हम ऊँचा
कह सकते हैं और किसे नीचा? यह अन्वेषण के परे है। भला क्यों? इसलिए कि न कोई
बड़ा है और न छोटा। प्रत्येक वस्तु में वह अनंत सत्तारूपी समुद्र ओतप्रोत
है। वही अनंत उनका सत्य स्वरूप है। और जो कुछ धरातल पर विद्यमान है, वह भी
अनंत ही है। वृक्ष अनंत और इसी तरह प्रत्येक वस्तु, जो तुम देखते या छूते
हो, अनंत है। रेत का प्रत्येक कण, प्रत्येक विचार, प्रत्येक जीव, प्रत्येक
विद्यमान वस्तु अनंत जो सांत है, वही अनंत है और जो अनंत है, वही सांत है।
यही है हमारी सत्ता का स्वरूप।
अब, यह सब सच हो सकता है, लेकिन अनंत की यह प्रतीति वर्तमान अवस्था में हमें
केवल अचेतन ही होती है। यह बात नहीं कि हम अपना अनंत स्वरूप भूल गए हैं। हम
अपना अनंतत्त्व यथार्थत: कभी भूल नहीं सकते। ऐसा कौन सोच सकता है कि उसका
संपूर्ण रूप से नाश हो जाएगा? कौन सोच सकता है कि वह मर जाएगा? ऐसा कोई नहीं
सोच सकता। अनंत से हमारा संबंध हममें अचेतन रूप से काम करता है। इसलिए एक
प्रकार से हम अपने सच्चे स्वरूप को भूल बैठे है। और इसीलिए है यह सारा दु:ख।
प्रतिदिन के व्यवहार में छोटी-छोटी बातें हमें चोट पहुँचाती हैं, छोटे-छोटे
जीव हमें दास बनाए हुए हैं। हम दु:खी इसलिए होते हैं कि हम समझते हैं हम सांत
हैं, हम क्षुद्र जीव हैं परंतु तो भी यह विश्वास होना कि हम अनंत हैं, कितना
कठिन है ! इस सब दु:ख और शोक के बीच जब एक छोटी सी वस्तु मेरे मन को क्षुब्ध
कर देती है, तो मेरा यह कर्तव्य है कि मैं विश्वास करूँ कि मैं अनंत हूँ; और
सत्य तो यही है कि हम अनंत हैं। चाहे जानते हुए, चाहे अनजान में, हम उसी
अज्ञेय के अन्वेषण में लगे हैं, जो अनंत है। हम सदा उसी की खोज में हैं, जो
स्वतंत्र है- जो मुक्त है।
आज तब ऐसी कोई मानव जाति नहीं हुई, जिसने किसी प्रकार के धर्म को अंगीकार न
किया हो, या ईश्वर अथवा देवताओं की पूजा न की हो। ईश्वर या देवता विद्यमान
हैं या नहीं, प्रश्न यह नहीं है। प्रश्न है इस मानसिक घटना के विश्लेषण का।
सारी दुनिया ईश्वर की खोज में- ईश्वर को ढूँढ़ निकालने में क्यों लगी है?
कारण यह है कि यद्यपि हम इन पाशों से बँधे हैं, यद्यपि यह प्रकृति और उसके
नियमों की भयंकर शक्ति हमें पीसे सी डाल रही है और हमें करवट तक लेने नहीं
देती, यद्यपि- हम जहाँ भी जाएँ और जो कुछ भी करने की इच्छा करें- यह नियामक
शक्ति, जो सर्वत्र विद्यमान है, हमारे मार्ग में अड़चन ही डालती रहती है, तो
भी हम अपने स्वतंत्र स्वरूप को कभी नहीं भूलते और सर्वदा उसकी खोज में लगे
रहते हैं। दुनिया के सब धर्मों की खोज एक ही है और वह है मुक्ति की खोज; चाहे
व इसे जानते हों, चाहे नहीं; चाहे इसे अच्छी तरह समझा सकते हों, चाहे नहीं;
पर सत्य तो यही है। क्षुद्रतम मनुष्य, मूर्ख से मूर्ख जीव भी इसी चेष्टा में
लगा हुआ है कि वह ऐसी शक्ति पाए, जो निसर्ग-नियमों पर शासन कर सके। राक्षस,
भूत, देवता अथवा अन्य किसी ऐसी वस्तु का वह दर्शन करना चाहता है, जो निसर्ग
को अपने अधीन कर ले, जिसके लिए निसर्ग सर्वशक्तिमान न हो, और जिसका कोई दूसरा
नियामक न हो। 'किसी ऐसे की चाह है, जो नियम तोड़ सकता हो !' मनुष्य के हृदय
से यही आवाज निकल रही है। हम सदा इसी खोज में हैं कि ऐसा कोई मिल जाए, जो नियम
को तोड़ सके। लोहमार्ग पर दौड़ते हुए तेज इंजन को देख, राह में रेंगनेवाला
कीड़ा दूर हट जाता है। हम एकदम कह उठते हैं, ''इंजन तो निर्जीव वस्तु है, एक
यंत्र है, लेकिन कीड़ा सजीव है"-इसलिए कि कीड़े ने नियम तोड़ने का प्रयत्न
किया। इतनी शक्ति और सामर्थ्य विद्यमान होने पर भी इंजन नियम नहीं तोड़ सकता।
जैसा मनुष्य चाहता है, उसी दिशा में इंजन को जाना पड़ता है। अन्यत्र वह नहीं
जा सकता। कीड़ा यद्यपि छोटा है, तो भी उसने नियम तोड़ने और आपत्ति से बचने का
प्रयत्न किया। नियामक शक्ति पर अपना अधिकार चलाने की उसने चेष्टा की। उसने
अपना स्वातंत्र्य जतलाने का प्रयत्न किया, और यही है उसमें भविष्य में
परमेश्वर से एकरूप होने का लक्षण।
अपनी मुक्ति जताने की यह चेष्टा, आत्मा का यह मुक्त स्वभाव हर जगह
विद्यमान है। यह प्रत्येक धर्म में ईश्वर या देवताओं के रूप में पाया जाता
है परंतु देवताओं को जो अपने बाहर ही देखते हैं, उनके लिए यह मुक्ति केवल
बहिरस्थ वस्तु है। मनुष्य ने स्वयं ही निश्चय कर लिया कि वह बिल्कुल
नगण्य है। उसे यह डर था कि वह कभी मुक्त नहीं हो सकता। इसलिए वह किसी ऐसे की
खोज में घूमने लगा, जो स्वाधीन तथा प्रकृति के अतीत है। फिर उसने सोचा कि ऐसे
स्वतंत्र देवता तो अनेक हैं, और धीरे-धीरे उसने उन सबको एक देवाधिदेव में, एक
परमेश्वर में लीन कर दिया। इससे भी उसे संतोष नहीं हुआ। कालांतर से वह सत्य
के कुछ थोड़ा और निकट आया; और फिर क्रमश: उसे ज्ञात हुआ कि वह चाहे जो कुछ हो,
किसी न किसी तरह उसका उस देवाधिदेव से, उस परमेश्वर से कुछ संबंध है। वह, जो
अपने को सीमित, नीच तथा दुर्बल समझता था, उस परमेश्वर से किसी न किसी तरह
संबंद्ध है। उसे दिव्य दर्शन होने लगे, विचार उठने लगे और ज्ञान की वृद्धि
होने लगी। वह उस परमेश्वर के निकटतर आने लगा, और अंत में उसे पता चला कि
ईश्वर तथा अन्य सब देवता, सर्वशक्तिमान मुक्त पुरुष की प्राप्ति की साधना
में अनुभूत होने वाली मन की विभिन्न अवस्थाएँ --- ये सब अपने ही स्वरूप के
संबंध में क्रमश: विकसित कल्पनाओं का प्रतिबिंब मात्र है। तत्पश्चात् उसने
केवल यह सत्यही नहीं जाना कि 'मनुष्य ईश्वर-निर्मित एवं उसीकी प्रतिमूर्ति
है।' दिव्य मुक्ति की कल्पना इस प्रकार प्रकट हुई। परमेश्वर सर्वदा अपने
भीतर ही था- निकट से भी निकट था। और फिर भी हम उसकी खोज बाहर ही किए जा रहे
थे। अंत में उसे अपने हृदय की गुहा में ही विराजमान पाया। तुमने उस मनुष्य की
कथा सुनी होगी, जिसने अपने हृदय की धड़कन को भूल से ऐसा समझा था कि कोई बाहर
से दरवाज़ा खटखटा रहा है, इसलिए वह उठा और दरवाजा खोलकर देखा कि कोई न था। वह
वापस लौट आया। फिर से वही दरवाज़ा खटखटाने की आवाज़ आती हुई मालूम हुई, किंतु
दरवाज़े पर कोई न था। तब उसने समझा कि यह दरवाजे की खटखटाहट न थी, यह थी उसके
निजी हृदय की धड़कन। इसी तरह, अपनी खोज के बाद मनुष्य देखता है कि वह असीम
मुक्ति, जिसे अपनी कल्पनाशक्ति द्वारा वह अपने से बाहर प्रकृति में
प्रस्थापित कर रहा था, वास्तव में अंत:स्थ विषय है, नित्यस्वरूप
परमात्मा ही है- और यह, वह स्वयं ही है।
इस प्रकार, अंत में इस अद्भुत द्वैत का रहस्य उसकी समझ में आ जाता है। वह जान
जाता है कि यह एक ही द्रष्टा अनंत है और सांत भी। वही अनंत पुरुष यह सांत जीव
भी है। वही बुद्धि के जाल में जकड़ा हुआ सा प्रतीत होता है और सीमित जीवों के
रूप में प्रकट सा होता है परंतु उसका वास्तविक स्वरूप अविकृत ही रहता है।
इसलिए प्रकृत ज्ञान यही है कि सब जीवात्माओं की आत्मा यह अंतर्यामी भगवान्
ही वह सत्य है, जो अविकार्य है, शाश्वत आनंदस्वरूप तथा नित्य मुक्त है।
यही एक अचल पद है, जिसके आधार पर हम खड़े रह सकते हैं।
अतएव, यही मृत्यु का अवसान, अमरत्व की प्राप्ति तथा दु:ख की निवृत्ति है। और
जो इस अनेकता में उस एक को देखता है, इस परिणामी जगत् में उस एक अपरिणामी का
दर्शन करता है और उसका अपनी आत्मा की भी आत्मा के रूप में अनुभव करता है,
उसे ही शाश्वत शांति प्राप्त होती है- दूसरे को नहीं।
दु:ख और अध:पतन के बीच मानो आत्मा अपनी एक किरण भेज देती है और मनुष्य जाग
उठता है और जान लेता है कि जो कुछ वास्तव में उसका है, उसे वह कभी खो नही
सकता। हाँ, जो कुछ हमारा है, उसे हम कभी नहीं खो सकते। कौन अपना अस्तित्व खो
सकता है? अपनी प्रत्यक्ष सत्ता कौन खो सकता है? मैं तो वास्तव में केवल
सत्स्वरूप ही हूँ और बाद में जब उस पर सद्गुण का रंग चढ़ जाता है, तब मैं
'अच्छा' कहलाता हूँ। ऐसा ही बुराई के संबंध में भी है। आदि, मध्य और अंत में
केवल सत् ही विद्यमान है; वह कभी खोता नहीं, वह तो चिर विद्यमान है।
इसीलिए मुक्ति की सबको आशा है। कोई मर नहीं सकता। सदा के लिए कोई पतित नहीं रह
सकता। जीवन तो एक खेल का मैदान है, चाहे जितना ही जंगली क्यों न हो। हम पर
चाहे जितनी चोटें पढ़ें, चाहे जितने धक्के लगे, किंतु नित्य विद्यमान आत्मा
को कभी कोई चोट नहीं पहुँच सकती। हम वही अनंत आत्मा है।
एक वेदांती इस तरह गाता था, "मुझे कभी न संशय था, न डर। मृत्यु मुझे कभी न छू
पाई। मेरे माता-पिता कहाँ? मैं तो अजन्मा हूँ। मैं ही सब कुछ हूँ; फिर मेरा
शत्रु कौन? मैं सच्चिदानन्दस्वरूप हूँ। सोहम्, सोहम्। काम, क्रोध, ईर्ष्या,
कुविचार आदि ने मुझे कभी स्पर्श नहीं किया, क्योंकि मैं तो
सच्चिदानन्दस्वरूप हूँ। सोहम्, सोहम्।"
सब दु:खों का यही एक अमोघ उपाय है। यही वह अमृत है, जो मृत्यु को जीत लेता
है। हम यहाँ दुनिया में विद्यमान हैं और हमारा स्वभाव इस सत्य के विरुद्ध
विद्रोह कर बैठता है। किंतु चलो हम गाएं, सोह्म् सोहम्। मुझे न भय है, न संशय,
न मृत्यु; मैं जाति-लिंग-वर्ण सबके अतीत हूँ। कौन सा संप्रदाय मुझे बाँध सकता
है? कौन सा पंथ मुझे अपना सकता है? सब पंथों में मैं ही अनुस्यूत हूँ !'
शरीर चाहे जितना ही विद्रोह करे, मन लड़ने के लिए चाहे जितना ही उठ खड़ा हो,
इस घने अंधकार में, इस तड़पानेवाली यंत्रणा में, इस घोरतम नैराश्य में एक
बार, दो बार, तीन बार, सर्वदा यही गाओ। प्रकाश मृदुता से आता है, धीरे- धीरे
आता है- पर आता है अवश्य।
अनेक बार मैं मृत्यु-मुख में पड़ा हूँ, क्षुधातुर रहा हूँ, पैर फटे हैं और'
थकावट आई है; लगातार कई दिनों तक मुझे अन्न नहीं मिला और अकसर मैं एक पग भी
नहीं चल सकता था; मैं पेड़ के नीचे बैठ जाता और ऐसा मालूम होता था कि अब प्राण
निकले। बोलना मुझे कठिन हो जाता था और मैं विचार तक नहीं कर सकता था। अंत में
मेरा मन इस विचार पर लौट आया, "मुझे डर कहाँ? मैं कैसे मर सकता हूँ ! मुझे न
कभी भूख लगती है, न प्यास। मैं तो वही हूँ-सोहम्। यह संपूर्ण विश्व मुझे
कुचल नहीं सकता, वह तो मेरा दास है। ऐ परमेश्वर ! ऐ देवाधिदेव ! तू अपनी
हुकूमत चला और हाथ से गया हुआ साम्राज्य फिर से प्राप्त कर ! उठ खड़ा हो, चल
और बीच में ठहर मत !" ऐसा विचार आने पर मैं नव चेतना पा उठ खड़ा होता, और यह
देखो, तुम लोगों के सामने आज जीता-जागता खड़ा हूँ। इस तरह जब जब अंधकार का
आक्रमण हो, तो अपनी आत्मा का प्रतिष्ठापन करो, और जो कुछ प्रतिकूल है, नष्ट
हो जाएगा, क्योंकि आखिर यह सब स्वप्न ही है। आपत्तियाँ पर्वत जैसी भले ही
हों, सब कुछ भयावह और अंधकारपूर्ण भले ही दिखे, पर जान लो, यह सब माया है। डरो
मत, यह भाग जाएगी। इसे कुचलो, और यह लुप्त हो जाती है। इसे ठुकराओ, और यह मर
जाती है। डरो मत; कितनी बार असफलता मिलेगी, यह न सोचो। चिंता न करो। काल अनंत
है। आगे बढ़ो, बारंबार अपनी आत्मा का प्रतिष्ठापन करो। प्रकाश अवश्य ही
आएगा। तुम चाहे किसी की भी प्रार्थना करो, पर कौन तुम्हें आकर सहायता देगा?
जिसने स्वयं मृत्यु से छुटकारा नहीं पाया, उससे तुम किस प्रकार सहायता की
आशा कर सकते हो? स्वयं ही अपना उद्धार करो। भाई, दूसरा कोई तुम्हें मदद न
पहुंचाएगा; क्योंकि तुम स्वयं ही अपने सबसे बड़े शत्रु हो और तुम स्वयं ही
अपने सबसे बड़े मित्र। तो फिर आत्मा का आश्रय लो। उठ खड़े हो, डरो मत। दु:ख
और दुर्बलता के अंधकार के बीच आत्मा को प्रकाशित होने दो, भले ही वह प्रकाश
आरंभ में अस्पष्ट और फीका हो। तुम्हें साहस मिलेगा और अंत में तुम सिंह के
समान गरज उठोगे, मैं वह हूँ, मैं वह हूँ- सोहम्, सोहम्। हमारे एक कवि ने इस
तरह गाया है, "मैं न नर हूँ, न नारी, न देव, न दानव। मैं पशु, वृक्ष, पौधा आदि
कुछ भी नहीं हूँ। न मैं धनिक हूँ, न दरिद्र, न विद्वान्, न मूर्ख। मेरे
वास्तविक स्वरूप की तुलना में ये सब बिल्कुल क्षुद्र हैं, क्योंकि मैं ही
वह परमात्मा हूँ। सोहम् सोहम्। सूर्य, चंद्र तथा तारों की ओर देखो, मैं ही
उनमें प्रकाशित हो रहा हूँ। अग्नि की प्रभा तथा विश्व में खेलनेवाली शक्ति भी
मैं ही हूँ, क्योंकि मैं ही वह परमात्मा हूँ।
"जो कोई यह सोचता है कि मैं क्षुद्र हूँ, भूल कर रहा है, क्योंकि सत्ता केवल
एक आत्मा की ही है। सूर्य का अस्तित्व इसलिए है कि मैं कहता हूँ सूर्य है,
और जब मैं उदघोषित करता हूँ कि दुनिया विद्यमान है, तभी उसे अस्तित्व
प्राप्त होता है। मेरे बिना वे नहीं रह सकते, क्योंकि मैं सत्, चित् और
आनंदस्वरूप हूँ। मैं सदा सुखी हूँ, मैं सदा शुचि हूँ, मैं सदा सुहावना हूँ।
देखो, सूर्य के कारण ही प्राणिमात्र देख सकते हैं, किंतु किसी की भी आँख के
दोष का उस पर कोई प्रभाव नहीं होता। मैं भी इसी तरह हूँ। शरीर की सब इंद्रियों
द्वारा मैं काम करता हूँ, प्रत्येक वस्तु द्वारा मैं काम कर रहा हूँ, किंतु
काम के भले-बुरे गुण का परिणाम मुझ पर नहीं होता। मेरा कोई नियामक नहीं है और
न कोई कर्म। मैं ही कर्मों का नियामक हूँ। मैं तो सदा वर्तमान था और अभी भी
हूँ।
"मेरा सच्चा सुख भौतिक वस्तुओं में कभी न था, न तो बह पति में था, न पत्नी
में, न पुत्रों में और न अन्य किसी वस्तु में। मैं तो अनंत नील आकाश के समान
हूँ। अनेक वर्ण के मेघ उस पर होकर गुजरते हैं, कुछ क्षण क्रीड़ा करते हैं और
चले जाते हैं, और वह विकारहीन नील आकाश वहाँ वैसा ही रह जाता है। सुख और दु:ख,
अच्छा और बुरा मेरी आत्मा को एक क्षण के लिए भले ही ढक लें, पर फिर भी वहाँ
मेरा अस्तित्व है ही। वे इसलिए निकल जाते हैं कि वे बदलनेवाले ही हैं। मैं
इसलिए रह जाता हूँ कि मैं स्वभावत: विकारहीन हूँ। अगर दु:ख आता है, तो मैं
जानता हूँ कि वह सीमित है। अत: उसका अंत अवश्य होगा। अगर बुराई आती है, तो
मैं जानता हूँ कि वह सीमित है। अत: वह अवश्य चली जाएगी। मुझे कोई वस्तु
स्पर्श नहीं कर सकती, क्योंकि मैं अनंत हूँ, शाश्वत और अपरिणामी आत्मा
हूँ।"
आओ, हम इस प्याले को पियें- यह प्याला, जो प्रत्येक अमर एवं विकारहीन
वस्तु की ओर हमें ले जाता है। डरो मत। ऐसा मत सोचो कि हममें बुराई है, हम
सांत हैं या हम कभी मर सकते हैं। यह सच नहीं है।
'इस आत्मा के संबंध में पहले श्रवण करना चाहिए, फिर मनन और उसके उपरांत उसका
निर्दिध्यासन।' जब हाथ काम करते रहें, मन को कहना चाहिए, सोहम्, सोहम्। सोचो
तो वही सोचो, स्वप्न देखो तो इसीका, यहाँ तक कि यह तुम्हारी हड्डियों की
हड्डी और मांस का मांस बन जाएं, यहाँ तक कि क्षुद्रता के, दुर्बलता के, दु:खों
के और बुराइयों के सब भयानक स्वप्न बिल्कुल गायब हो जाएँ। और तब एक क्षण के
लिए भी सत्य तुमसे छिपा न रह सकेगा।
वेदों और उपनिषदों के विषय में विचार
वैदिक यज्ञ-वेदी से ज्यामिति का उद्भव हुआ।
देवों अथवा द्युतिमानों की स्तुति उपासना की नींव बनी। धारणा यह है कि जिसका
आवाहन किया जाता है, उसका श्रेय होता है और वह श्रेय [14] करता भी है !
ऋचाएँ केवल प्रशस्तियाँ नहीं हैं, वरन् शक्तिसंपन्न मंत्र हैं, जिनका
उच्चारण मन की अनुकूल भावना के साथ किया जाता है।
स्वर्ग केवल सत्ता की अन्य अवस्थाएँ हैं, जिनमें इंद्रियभोगों और उच्चतर
सिद्धियों की वृद्धि हो जाती है।
स्थूल शरीर की भाँति सभी उच्चतर इतर शरीर भी नश्वर हैं। इस जीवन तथा अन्य
जीवनों में सभी शरीर मरणधर्मा हैं। देव भी मर्त्य हैं और वे केवल भोग दे सकते
हैं।
इन सभी देवों के पीछे एक सत्ताधारी इकाई है- ईश्वर, ठीक वैसे ही जैसे इस शरीर
के पीछे कोई उच्चतर वस्तु है, जो अनुभव करती है और जो देखती है।
जगत् के सर्जन, पालन और संहार की जिसमें शक्तियाँ हैं और सर्वव्यापक, सर्वज्ञ
तथा सर्वशक्तिमान होने जैसे जिसकी उपाधियाँ हैं, वह देवों का भी देव परमेश्वर
है।
'हे अमृतपुत्रों ! सुनो, हे द्युलोकवासी देवताओ ! सुनो, मैंने एक ऐसी किरण देख
ली है, जो सभी अंधकारों और सभी संशयों के उस पार है। वह पुरातन (ब्रह्म) मुझे
मिल गया।'[15] इसका मार्ग
उपनिषदों में सन्निहित है।
पृथ्वी पर हम मरते हैं, स्वर्गलोक में मरते हैं, ब्रह्मलोक में भी मरते हैं।
ईश्वर के पास पहुँचने पर ही हम जीवन-लाभ करते हैं और अमर हो जाते हैं।
उपनिषद् केवल इसी की विवेचना करते हैं। उपनिषदों का पथ पावन पथ है। बहुत से
व्यवहार, रीति-रिवाज और लोकाचार आज समझ में नहीं आ सकते। किंतु उनके द्वारा
सत्य स्पष्ट झलकने लगता है। प्रकाश में आने के लिए स्वर्ग तथा पृथ्वी
सबको तिलांजलि दे दी जाती है।
उपनिषद् कहते हैं:
'प्रभु ने ब्रह्मांड का भेदन किया है । यह सब उसी का है।'
'जो सर्वव्यापी, अप्रमेय, निर्गुण, निर्विकार और जगत् का महाकवि है, सूर्य,
चंद्र तथा नक्षत्र जिसके छंद हैं, वह प्रत्येक को उसका उचित भाग देता है।'
'जो कर्मकांड द्वारा प्रकाश को प्राप्त करना चाहते हैं, वे घोर अंधकार में
टटोल रहे हैं। जो यह सोचते हैं कि प्रकृति ही सब कुछ है, वे सब भी अंधकार में
हैं। जो इस विचार द्वारा प्रकृति के बाहर आना चाहते हैं, वे उससे भी गहन
अंधकार में टटोल रहे हैं।'
तब क्या कर्मकांड बुरे हैं? नहीं, वे उनके लिए श्रेयस्कर हैं, जो पिछड़े
हैं।
एक उपनिषद् में युवक नचिकेता से यह प्रश्न पूछा गया है, "मरे हुए मनुष्य के
विषय में कोई तो कहते हैं, 'रहता है' और कोई कहते हैं, 'नहीं रहता है'। 'आप
यम, मृत्यु हैं, आप सत्य जानते हैं। आप इसका उत्तर दें।" [16]
यम ने उत्तर दिया, "बहुत से देवगण भी इसे नहीं जानते, मनुष्यों की तो बात ही
क्या है। पुत्र ! यह प्रश्न मुझसे मत पूछो।" [17] लेकिन नचिकेता दृढ़
रहा। फिर यम ने उत्तर दिया, "स्वर्गलोक के भोग भी मैं तुम्हें दे रहा हूँ।
इस प्रश्न के उत्तर के लिए हठ मत करो।" [18] परंतु नचिकेता चट्टान
की भाँति अटल रहा। तब मृत्युदेव ने कहा, "मेरे पुत्र ! तुमने तीसरी बार भी
धन, प्रभुता, दीर्घ जीवन, ख्याति और कुटुंब के सुखों को ठुकरा दिया। तुम चरम
सत्य के विषय में जिज्ञासा करने के पराक्रमी अधिकारी हो। मैं तुमको ज्ञान
दूँगा। दो मार्ग हैं, एक श्रेय मार्ग है और दूसरा मार्ग है। तुमने प्रथम का
वरण किया है ।"[19]
अब इस बात पर ध्यान दो कि सत्य सिखाने को कैसी शर्तें रखी गई हैं। पहली शर्त
है निर्मलता- एक बालक, पवित्र, निर्भ्रान्त आत्मा जगत् के रहस्य के विषय
में प्रश्न पूछ रहा है। दूसरी, सत्य ही के लिए उसे सत्य को ग्रहण करना
चाहिए।
जब तक सत्य किसी ऐसे व्यक्ति से प्राप्त नहीं होता, जिसने सत्य का
साक्षात्कार स्वयं किया है, उसे स्वयं ह्दयंगम किया है, तब तक वह फलदायक
नहीं हो सकता। ग्रंथ उसे नहीं दे सकते, तर्क उसे सिद्ध नहीं कर सकते। सत्य
उसको मिलता है, जिसने उसके रहस्य को समझ लिया।
जब मिल जाए, तो मौन रहें। कुतर्कों से विचलित न हों। आत्मज्ञान स्वयं
प्राप्त करो। इस तुम स्वयं ही कर सकते हो।
यह न तो सुख है, न दु:ख है, न पाप है, न पुण्य है और न ज्ञान है, न अज्ञान
है। इसका साक्षात्कार अवश्य करना चाहिए। इसका वर्णन मैं तुमसे कैसे कर सकता
हूँ?
जो सच्चे हृदय से पुकारता है, "हे प्रभो ! मैं बस तुझे चाहता हूँ"- उसको
प्रभु स्वयं दर्शन देता है। निर्मल रहो, शांत रहो। अशांत मन प्रभु को
प्रतिबिंबित नहीं कर सकता।
'जिसका गुणगान वेद करते हैं, जिसके पास पहुँचने के लिए स्तुति और यज्ञ से हम
सेवा करते हैं, उस वर्णनातीत का वाचक पवित्र ऊँ है।' [20] सभी शब्दों में यह
सर्वाधिक पवित्र है। जो इस शब्द का रहस्य जान गया, उसको वे सभी वस्तुएँ
प्राप्त होती हैं जिनके लिए वह मनोरथ करता है। इस शब्द की शरण में जाओ। जो
कोई इस शब्द की शरण में जाता है, उसके लिए मार्ग खुल जाता है।
मानव का भाग्य
(१७ जनवरी, १८९४ ई. को मेमफि़स में दिया गया व्याख्यान : 'अपील एवलांश' पत्र
में प्रस्तुत विवरण)
श्रोताओं की संख्या सामान्यत: अधिक थी। उनमें नगर के सर्वोत्कृष्ट
साहित्यकार तथा संगीतज्ञ थे। क़ानूनी पेशे और वित्तीय प्रतिष्ठानों के भी
कुछ विशिष्टतम व्यक्ति उपस्थित थे।
कुछ अमेरिकी वक्ताओं से यह वक्ता विशेष रूप से एक विषय में भिन्न हैं। जिस
प्रकार गणित का प्राध्यापक अपने छात्रों को बीजगणित का कोई उदाहरण समझाता है,
उसी प्रकार के विवेचनात्मक ढंग से वे अपने विचारों को प्रस्तुत करते हैं।
सभी तर्कों के विरुद्ध अपने विषय का सफलतापूर्वक अडिग प्रतिपादन करने में अपनी
शक्ति और योग्यता पर पूरा विश्वास रखते हुए कानंद [21] भाषण करते हैं। जिसकी
तार्किक ढंग से पुष्टि न की जा सके, एसा कोई विचार न तो यह पेश करते हैं और न
उस पर बल देते हैं। उनकी वक्तृता का अधिकांश कुछ इंगरसोल के दर्शन के ढरें पर
है। भविष्य में दंड मिलने अथवा ईश्वर के प्रति जिस प्रकार का विश्वास
ईसाइयों का है; उस प्रकार का विश्वास उनका नहीं है। उन्हें यह विश्वास नहीं
है कि मन अविनाशी है, क्योंकि वह पराश्रित है और जब तक किसी वस्तु की
बिल्कुल स्वतंत्र सत्ता न हो, तब तक वह अविनाशी नहीं हो सकता। वे कहते हैं,
"ईश्वर कोई राजा नहीं है, जो जगत् के किसी कोने में बैठकर पृथ्वी के
मनुष्यों को उनकी करनी के अनुसार दंड अथवा पुरस्कार देता है; और वह समय
आएगा, जब मानव को इस सत्य का बोध होगा, तब वह उठेगा और कहेगा मैं ब्रह्मा
हूँ' (अहं ब्रह्मास्मि) और मैं उसके जीवन का जीवन हूँ। जब हमारा वास्तविक
रूप, हमारा अमर सिद्धांत ईश्वर है, तब यह शिक्षा क्यों दी जाए कि ईश्वर
बहुत दूर है?
"आदि पाप की अपने धर्म की शिक्षा से तुम भ्रम में न पड़ो, क्योंकि वही धर्म
आदि पवित्रता की भी शिक्षा देता है। जब आदम का पतन हुआ, तब तुम पूछ सकते हो कि
धर्मों में इतना भेद क्यों है? जवाब यह है- छोटी-छोटी नदियाँ हजारों पहाड़ी
कगारों से टकराती हुई अनंत: महासागर में आती हैं। यही बात विभिन्न धर्मों पर
लागू होती है। वे सब हम लोगों को भगवान् के ह्देश में ले जाने को हैं। १९००
वर्षों तक तुम लोग यहूदियों के दमन की कोशिश करते रहे। क्यों तुम उनका दमन न
कर सके? प्रतिध्वनि उत्तर देती है; 'अज्ञानता और धर्मांधता कभी सत्य का दमन
नहीं कर सकतीं।"
वक्ता ने लगभग दो घंटे तक इसी प्रकार की तार्किक शैली में भाषण जारी रखा और
इस कथन के साथ उसका उपसंहार किया,'हम सहायता करें, विनाश नहीं।' [22]
लक्ष्य-१
(२७ मार्च, १९०० ई. को सैनफ्रांसिस्को में दिया गया व्याख्यान [23])
हम देखते हैं कि मनुष्य सदैव किसी ऐसी वस्तु से आवृत्त प्रतीत होता है, जो
उससे महत्तर है और वह उसका अभिप्राय समझने का प्रयत्न कर रहा है। मनुष्य सदा
उच्चतम आदर्श की (खोज) करेगा। वह जानता है कि उसका अस्तित्व है और धर्म उस
उच्चतम आदर्श की खोज है। पहले उसकी सभी खोजें बाह्य धरातल पर थीं- स्वर्ग
में, भिन्न भिन्न स्थानों में आरोपित थीं- मनुष्य की संपूर्ण प्रकृति के
(अपनी ग्रहण शक्ति के) ठीक अनुरूप थीं।
(बाद में), मनुष्य कुछ और बारीकी से आत्म-निरीक्षण करने लगा और उसे पता लगने
लगा कि उसका वास्तविक 'मैं' वह 'मैं' नहीं है, जिसे वह साधारणत: अपने को मान
बैठा है। इंद्रियों को उसका जो स्वरूप भासित होता है, वह वस्तुत: है नहीं।
उसने अपने अंतर में पैठकर (खोज) शुरू की और उसे पता लगा कि ... उसने अपने बाहर
जो आदर्श (स्थापित कर) रखा है, वह सतत भीतर ही विद्यमान है; वह बाहर जिसकी
उपासना कर रहा था, वह उसीका वास्तविक आंतरिक स्वरूप है। द्वैतवाद और
अद्वैतवाद में अंतर यह है कि जब उपास्य को (अपने से) बाहर मान लिया जाता है,
उसे द्वैतवाद कहते हैं। जब ईश्वर (को पाने की खोज) भीतर की जाती है, तो उसे
अद्वैतवाद कहते हैं।
पहले वह पुराना सवाल कि क्यों और किसलिए।... मनुष्य ससीम कैसे हो गया? वह
पूर्ण अपूर्ण कैसे हो गया, नित्य शुद्ध माया लिप्त कैसे हुआ? प्रथम तो तुमको
यह कभी नहीं भूलना चाहिए कि इस प्रश्न का उत्तर द्वैत सिद्धांत (द्वारा) नहीं
दिया जा सकता। ईश्वर ने दोषमय विश्व की सृष्टि क्यों की? जब अशेप पूर्ण,
दयानिधान परम पिता परमेश्वर ने मनुष्य की रचना की, तो वह इतना दु:खी क्यों
है? यह स्वर्ग और धरती, जिनका अवलोकन कर हम नियम संबंधी कल्पनाकरते हैं,
क्यों हैं? कोई व्यक्ति किसी ऐसी वस्तु की कल्पना नहीं कर सकता, जिसे उसने
देखा न हो।
इस जीवन में हमें जो यातनाएँ भोगनी पड़ती हैं, उनका समुच्चय हमने अन्यत्र
आरोपित कर दिया और वह हम लोगों का नरक है।...
उस अनादि, अनंत परब्रह्म ने इस विश्व की सृष्टि क्यों की? (द्वैतवादी कहता
है कि) जैसे कुम्हार बरतन बनाता है। परब्रह्म कुम्हार है, हम वरतन हैं...।
अधिक दार्शनिक भाषा में प्रश्न यों समझना चाहिए इसे ध्रुव सत्य कैसे मान
लिया जाए कि मनुष्य का वास्तविक स्वरूप नित्य शुद्ध, अशेष और पूर्ण है?
किसी भी अद्वैती व्यवस्था में यह एक कठिनाई है। अन्य प्रत्येक बात
स्वच्छ और स्पष्ट है। इस प्रश्न का उत्तर नहीं दिया जा सकता। अद्वैतवादी
कहता है कि यह प्रश्न स्वत: अंतर्विरोधी है।
द्वैत मत लो, सवाल है कि परब्रह्म ने विश्व की सृष्टि क्यों की? यह
अंतर्विरोध है। क्यों? क्योंकि ब्रह्म से आशय क्या है? वह ऐसी सत्ता है, जो
किसी विजातीय वस्तु द्वारा क्रियमाण नहीं हो सकता।
मैं और तुम स्वतंत्र नहीं हैं। मैं प्यासा हूँ। प्यास नाम की एक चीज़ है,
जिस पर मेरा नियंत्रण नहीं है, (वह) मुझे पानी पीने को बाध्य करती है। मेरे
शरीर की प्रत्येक क्रिया यहाँ तक कि मन में उठने वाला प्रत्येक विचार, कहीं
बाहर से मुझ पर लादा जाता है। मुझे वह करना ही पड़ता है इसीलिए मैं बंधन में
हूँ... मैं इसे करने, इसे पाने आदि के लिए बाध्य किया जाता हूँ। और क्यों तथा
किसलिए का अभिप्राय क्या है? (बाह्य शक्तियों के प्रभाव में रहकर) तुम पानी
क्यों पीते हो? क्योंकि प्यास तुमको विवश करती है। तुम दास हो। तुम अपनी
इच्छा से कभी कुछ नहीं करते, क्योंकि प्रत्येक काम को तुमसे जबरदस्ती
कराया जाता है। कर्म करने का एकमात्र हेतु कोई बल है।...
पृथ्वी स्वत: कभी नहीं हिलती-डुलती, यदि उसे कोई चीज चलने के लिए विवश नहीं
करती। बत्ती जलती क्यों है? वह तब तक नहीं जलती, जब तक कोई दियासलाई घिसकर
नहीं जलाता। समस्त प्रकृति की प्रत्येक वस्तु बंधन में जकड़ी है। गुलामी !
गुलामी ! प्रकृति से सामंजस्य का अर्थ है (गुलामी)। प्रकृति का दास बनकर सोने
के पिंजरे में रहने में क्या सार है? (मनुष्य को इसका ज्ञान हो जाना ही कि
वह तत्त्वत: मुक्त और दिव्य है) सर्वोच्च नियम तथा व्यवस्था है। अब हम
समझ गए कि क्यों तथा किसलिए जैसे प्रश्न (अज्ञानवश) पूछे जाते हैं। किसी
विजातीय तत्त्व द्वारा ही मुझे कुछ करने के लिए बाध्य किया जा सकता है।
(तुम कहते हो) ईश्वर मुक्त है। फिर तुम पूछते हो कि वह सृष्टि क्यों करता
है। तुम स्वयं अपनी बातों का खंडन करते हो। ईश्वर शब्द से अभिप्राय है,
पूर्ण स्वतंत्र इच्छा। तार्किक भाषा में प्रश्न का यह रूप होगा- जिसे कभी
कोई बाध्य नहीं कर सकता, उसे विश्व की सृष्टि करने को किसने विवश किया?
प्रश्न मूर्खतापूर्ण है। वह तो स्वत: पूर्ण है। वह मुक्त है। जब तुम इन
प्रश्नों को तर्क की भाषा में पूछोगे, तब हम उनका जवाब देंगे। मुक्ति तुमको
बताएगी कि सत् केवल एक है और कुछ नहीं। जहाँ भी द्वैत मत उदय हुआ, वहीं अद्वैत
मत ने आगे बढ़कर उसको मार भगाया।
उसे समझने में केवल एक कठिनाई है। धर्म सामान्य बुद्धि और नित्य प्रति की
वस्तु है। यदि उसकी भाषा में पूछा जाए और दार्शनिक की भाषा में न (पूछा जाए),
तो राह चलता भी यह जानता है। मानव की प्रकृति का यह सामान्य गुण है कि वह
(अपना विस्तार चाहती है)। बच्चे के साथ अपने भाव को मिलाओ। (तुम उसके साथ
तादात्म्य स्थापित करते हो, तब) तुम्हारे दो शरीर होते हैं। (इसी प्रकार)
तुम अपने पति के मन द्वारा भावानुभूति कर सकती हो। तुमको रूकावट कहाँ है?
असंख्य पिडों में तुमको अनुभूति हो सकती है।
मानव प्रकृति पर नित्य विजय प्राप्त करता है। एक जाति के रूप में वह अपनी
शक्ति व्यक्त कर रहा है। मनुष्य की इस शक्ति को सीमा में बाँधने की कल्पना
करो। तुम इसे मानोगे कि एक जाति के रूप में मानव के पास असीम शक्ति और असीम
शरीर है। प्रश्न बस एक है कि तुम कौन हो? तुम जाति हो या एक (व्यक्ति)? जिस
क्षण तुम अपने की पृथक् कर लेते हो, प्रत्येक वस्तु तुमको कष्ट देती है।
जिस क्षण तुम अपना विस्तार करते हो और दूसरों से आत्मभाव स्थापित करते हो,
तुमको सहायता मिलती है। स्वार्थी व्यक्ति दुनिया में सबसे दु:खी प्राणी है।
सबसे दुखी वह आदमी है, जो लेशमात्र स्वार्थी नहीं है। वह समस्त सृष्टिमय और
समस्त जातिमय है और उसमें ईश्वर का निवास है।... इस प्रकार द्वैतवाद, ईसाई,
हिंदू और सभी धर्मों की नीति-संहिता है, स्वार्थी मत बनो... नि:स्वार्थ बनो।
परोपकार करो ! विस्तार करो !
जो अज्ञानी हैं, उन्हें (यह) बड़ी आसानी से बोध कराया जा सकता है और जो
विद्वान् हैं, उन्हें तो और अधिक आसानी से समझाया जा सकता है। परंतु जिन्हें
छिछली विद्या मिली है, उन्हें ब्रह्मा भी नहीं समझा सकते। (सत्य यह है कि)
तुम (इस जगत् से) पृथक् नहीं हो, (ठीक वैसे ही जैसे तुम्हारी आत्मा)
तुम्हारे शेष भाग से अलग नहीं है। यदि ऐसा (न) होता, तो तुम न तो कुछ देख
सकते और न अनुभूति प्राप्त कर सकते। जड़तत्त्व के महासागर में हमारे शरीर
छोटी छोटी भँवरें मात्र हैं। जीवन मोड़ ले रहा है, चला जा रहा है, दूसरे रूप
में...। सूर्य, चंद्र, नक्षत्र, तुम, मैं, सब मात्र भँवरें हैं। मैंने (एक
विशेष प्रकार के मन को) क्यों अपनाया? (यह) मन के महासमुद्र में एक मामूली
मानस भँवर (है)।
अन्यथा मेरे कंपन का तत्काल तुम्हारे पास पहुँच जाना कैसे संभव हो पाता?
अगर तुम झील में एक पत्थर फ़ेंकते हो, तो उससे एक कंपन उठता है और (वह) पानी
को कंपन में (चलायमान करता है)। मैं अपने मन को आनंद की अवस्था में लाता हूँ,
तुम्हारे मन में भी वैसा ही आनंद पैदा करने की प्रवृत्ति होती है। कितनी बात
अपने मन या हृदय में (तुम कुछ सोचते हो) और बिना (वाणी के) संचार के (अन्य
लोगों के पास तुम्हारे विचार पहुँच जाते हैं)? हर जगह हम सब एक हैं.... यह
ऐंसी वस्तु है, जिसे हम कभी समझ नहीं पाते। समस्त (जगत्) देश, काल और
निमित्त से निर्मित्त है। और परमेश्वर (ब्रह्मांडवत् प्रतीत होता है)।...
प्रकृति का आदि कब से है? जब तुम (सच्चे स्वरूप को भूल गए और देश, काल तथा
निमित्त के बंधन में पड़ गए)।
यह तुम्हारे शरीरों का (घूर्णित) चक्र है और फिर भी यही तुम्हारी अनादि
प्रकृति है।... यह निश्चय ही प्रकृति हैं- देश, काल और निमित्त। प्रकृति का
अर्थ बस इतना ही है। जब से तुमने विचार करना आरंभ किया, तभी से काल का उद्भव
हुआ। जब तुमको शरीर मिला, तब देश (आकाश) का प्रादुर्भाव हुआ, अन्यथा देश हो
नहीं सकता। जब तुम सीमाबद्ध हुए, तब निमित्त आरंभ हुआ। हमें किसी न किसी
प्रकार का उत्तर रखना पड़ेगा। यह है उत्तर। (हमारी ससीमता) खेल है। केवल
विनोदार्थ। कोई वस्तु तुमको बाँधती नहीं, कोई (तुमको) बाध्य नहीं करता।
(तुम) कभी बँधे नहीं (थे)। हम लोग स्वयं अपने ही द्वारा रचित (नाटक) में अपना
अपना अभिनय कर रहे हैं।
अब हम जीवों के व्यक्तित्व के प्रश्न पर विचार करें। कुछ लोग अपने
व्यक्तित्व के लोप के भय से इतने त्रस्त रहते हैं। यदि शूकर को अपना
शूकरत्व खोकर ब्रह्मत्व प्राप्त हो जाए, तो क्या यह श्रेयस्कर नहीं? हाँ,
है। परंतु बेचारा शूकर उस समय यह नहीं सोचता। कौन सा व्यक्तित्व मेरा अपना
है? जब मैं शिशु था और फ़र्श पर हाथ-पैर पसारे अपना अँगूठा निगल जाने की
चेष्टा करता था? क्या अपने उस व्यक्तित्व को खोकर मुझे शोक करना चाहिए?
पचास वर्ष बाद मैं अपनी इस वर्तमान अवस्था पर दृष्टिपात कर इस पर ठीक उसी
प्रकार हँसूँगा, जिस प्रकार (आज) शैशवावस्था पर हँसता हूँ। इनमें से अपने किस
व्यक्तित्व को मैं रखूँगा?.....
हमें इस व्यक्तित्व का अर्थ समझना होगा।... (दो विरोधी प्रवृत्तियाँ है,) एक
व्यक्तित्व की रक्षा की और दूसरा व्यक्तित्व के उत्सर्ग की उत्कृष्ट
इच्छा की। आवश्यकता ग्रस्त बच्चे के निमित्त माता अपनी सभी अभिलाषाओं का
बलिदान कर देती है।... जब वह बच्चे को गोद में लेती है, तब उसकी अपने
व्यक्तित्व की रक्षा, अस्तित्व-रक्षा की प्रेरणाएँ नहीं रह जातीं। वह
निकृष्टतम भोजन कर लेगी, लेकिन बच्चों को अच्छा से अच्छा भोजन देगी। इस
प्रकार जिन्हें हम प्यार करते हैं, उनके लिए मर मिटने को तैयार रहते हैं।
(एक ओर तो) हम लोग यह व्यक्तित्व बनाए रखने के लिए कठिन संघर्ष कर रहे हैं,
दूसरी ओर, उसके विनाश का प्रयत्न भी कर रहे हैं। परिणाम क्या होता है? टाम
ब्राउन कठिन संघर्ष कर सकता है। वह अपने व्यक्तित्व के लिए (लड़ रहा) है।
टाम मर जाता है और धरती पर उसका वहीं चिन्ह तक नहीं रहता। उन्नीस सौ वर्ष
पूर्व एक यहूदी का जन्म हुआ और उसने व्यक्तित्व बनाए रखने के लिए अँगुली तक
नहीं हिलायी।.... ज़रा उस पर भी विचार करो ! उस यहूदी ने व्यक्तित्व की
रक्षा के लिए कभी संघर्ष नहीं किया। इसीसे वह दुनिया में सबसे महान् बना। यही
दुनिया को ज्ञात नहीं है।
काल के अंतर्गत हमें व्यक्तित्वधारी बनना पड़ता है। पर किस अर्थ में? टाम
ब्राउन नहीं, वरन् नर रूप में नारायण। वही (सच्चा) व्यक्तित्व है। मनुष्य
जितना उसके समीप पहुँचता है, उतना ही वह अपने मिथ्या व्यक्तित्व को त्याग
देता है। जितना ही वह अपने लिए संग्रह और लाभ के लिए प्रयत्न करता है, उतना
ही उसका व्यक्तित्व होता है। जितनी ही कम वह (अपनी) चिंता करता है, उतना ही
अधिक वह जीवन-काल में अपने व्यक्तित्व का उत्सर्ग कर देता है।... उतना ही
अधिक वह व्यक्तित्वधारी होता है। यह एक ऐसा रहस्य है, जिसे दुनिया नहीं
समझती।....
हमें पहले व्यक्तित्व का अर्थ समझना चाहिए। इसका अर्थ है ध्येय तक पहुँचना।
इस समय तुम पुरुष (या) स्त्री हो। तुम सदैव परिवर्तित होते रहोगे। क्या तुम
रुक सकते हो? क्या तुम अपने मन को वैसे ही रखना चाहते हो, जैसा वह इस समय है-
क्रोध, घृणा, द्वेष, विवाद तथा अन्य हजारों दिमागी बातें? क्या तुम्हारा
अभिप्राय यह है कि तुम उन्हें पाल रखोगे?... जब तक तुम पूर्ण जय प्राप्त कर
लोगे, जब तक तुम पवित्र तथा पूर्ण नहीं हो जाओगे..... तब तक तुम कहीं रुक नहीं
सकते।
जब तुम अखंड प्रेम, आनंद और पूर्ण सत् ही जाओगे, तब तुममें क्रोध न रहेगा।...
तुम अपने किस शरीर को बनाए रखोगे? जब तक तुम अनंत जीवन तक नहीं पहुँचोगे, तब
तक तुम कहीं नहीं रुक सकते। पूर्ण जीवन ! तुम वहाँ रुकते हो। इस समय तुमको
अल्प ज्ञान है और तुम उसे बढ़ाने के लिए सतत प्रयत्नशील हो। तुम कहाँ
रुकोगे? कहीं नहीं, जब तक जीवन से तुम्हारा एकीकरण नहीं हो जाता।...
बहुत से लोग सुख (को) लक्ष्य बनाना चाहते हैं। उस सुख के लिए वे इंद्रियभोगों
को ही ढूँढ़ते हैं। उच्चतर धरातलों पर बहुत सुख-लाभ करना है। फिर आध्यात्मिक
धरातलों पर। फिर आत्माराम बनकर - अपने ही भीतर भगवान् में। जिस मनुष्य का
सुख (उसके) बाहर है, वह बाह्य वस्तु के चले जाने पर दु:खी होता है। इस जगत्
की किसी वस्तु पर तुम सुख के लिए आश्रित नहीं रह सकते। यदि मेरे सारे सुख
मेरी आत्मा में हैं, तो वे सुख मुझे निरंतर मिलते रहेंगे, क्योंकि आत्मा से
वियोग कभी नहीं हो सकता।... माता, पिता, बच्चे, पत्नी, शरीर, धन- आत्मा के
अतिरिक्त हर वस्तु मुझसे बिछुड़ सकती है... आत्मा में आनंद। आत्मा में ही
सारी इच्छाएँ विद्यमान हैं। यह वह व्यक्तित्व है, जो कभी परिवर्तित नहीं
होता और पूर्ण है।
....और उसकी उपलब्धि कैसे हो? इस विश्व के सभी महात्माओं ने- सभी महान्
पुरुषों और स्त्रियों ने- जिसे (दीर्घकालीन विवेक से) प्राप्त किया, वही
उन्हें मिलता है। बीस देव और तीस देव होने के ये द्वैतवादी सिद्धांत क्या
हैं? कोई बात नहीं। उन सबमें एक सत्य है कि मिथ्या व्यक्तित्व समाप्त
हो... उसी प्रकार यह अहंकार भी- जितना ही यह कम होगा, उतना ही मैं अपने
वास्तविक स्वरूप, उस विश्व-शरीर के अधिक समीप रहूँगा। मैं अपने निजी मन का
जितना ही कम ख्याल करूँगा, उतना ही उस विश्व-मन से मेरा सामीप्य होगा। मैं
अपनी आत्मा के विषय में जितना ही कम सोचूँगा, उतना ही अधिक सान्निध्य
विश्वात्मा से होगा।
हम एक शरीर में निवास करते हैं। हमें कुछ दु:ख मिलता है, कुछ सुख। बस इसी
स्वल्प सुख के लिए, जो हमें इस काया में रहने के कारण मिलता हैं, हम अपने को
बनाए रखने के निमित्त संसार में प्रत्येक का संहार करने को उद्यत हैं। यदि
हमारे दो शरीर होते, तो क्या इससे अधिक उत्तम न होता? इस प्रकार परमानंद
पर्यंत हम बढ़ते जा रहे हैं। मैं प्रत्येक शरीर में हूँ। सभी हाथों से मैं
कर्म करता हूँ, सभी पैरों मैं चलता हूँ। प्रत्येक मुख से मैं बोलता हूँ,
प्रत्येक शरीर में मैं निवास करता हूँ। अनंत मेरे शरीर, अनंत मेरे मन। नाजरथ
के ईसा मसीह, बुद्ध, मुहम्मद- भूतकाल के सभी महान् तथा उत्तम पुरुषों में
मेरा निवास था और वर्तमान काल के पुरुषों में भी है। भविष्य में जो
(होनेवाले) हैं, उनमें भी मेरा निवास होगा। क्या यह कोरा सिद्धांत है? (नहीं,
यह सत्य है।)
यदि इसे तुम सिद्ध कर सको, तो यह कितना आनंददायक होगा। कितना अपार हर्ष ! वह
कौन सा शरीर इतना महान् है, जिसकी हमें यहाँ कोई आवश्यकता हो?... अन्य सभी
लोगों के शरीरों में रहने, इस दुनिया में विद्यमान सभी शरीरों का भोग कर लेने
के बाद, हमारा क्या होता है? (हम अनादि अनंत में समा जाते हैं। और) वही हमारा
लक्ष्य है। बस वही एक मार्ग है। एक (व्यक्ति) कहता है, "यदि मैं सत्य को
जान लूँ, तो मैं मक्खन की भाँति पिघल जाऊँगा।" मेरी अभिलाषा है कि लोग ऐसे ही
हों, पर वे इतने सख्त हैं कि इतनी जल्दी पिघलनेवाले नहीं !
मुक्त होने के लिए हमें क्या करना होगा? मुक्त तो (तुम) हो ही।... जो
मुक्त है, वह कभी बंधन में कैसे पड़ सकता है? यह मिथ्या है। (तुम) कभी बंधन
में नहीं (थे)। जो पूर्ण है, वह किसी के द्वारा कभी अपूर्ण कैसे हो सकता है?
'पूर्ण (असंख्य) में पूर्ण का भाग दो, पूर्ण जोड़ो, पूर्ण से गुणा करो, पूर्ण
ही (रहेगा)।'[24] तुम पूर्ण
हो। ईश्वर पूर्ण है। तुम सब पूर्ण हो। सत्ता एक ही हो सकती है, दो नहीं।
पूर्ण को कभी अपूर्ण नहीं बनाया जा सकता। तुम कभी बंधन में नहीं जकड़े जा
सकते। बस।... तुम मुक्त ही हो। तुम लक्ष्य तक पहुँच चुके हो-जो भी गंतव्य
है। मन को कदापि न सोचने दो कि तुम लक्ष्य तक नहीं पहुँच पाए हो।...
हम जो कुछ (सोचते) हैं, वही बन जाते हैं। यदि तुम अपने को हीन पापी सोचते हो,
तो तुम अपने को सम्मोहित करते हो; 'मैं दु:खी, रेंगनेवाला कीट हूँ।' जो नरक
में विश्वास रखते हैं, वे मृत्यु के उपरांत उसी नरक में पड़ते हैं, जो
स्वर्ग जाने को कहते हैं, वे (स्वर्ग जाते हैं)।
यह सब कौतुक है... (तुम कह सकते हो।) हमें कुछ करना है, इसलिए पुण्य कर्म
करें। (किंतु) पाप-पुण्य की परवाह कौन करता है? लीला ! सर्वशक्तिमान ईश्वर
लीला करता है। बस... तुम सर्वशक्तिमान ईश्वर लीला कर रहे हो। यदि तुम
पार्श्व अभिनय करना चाहते हो और किसी भिक्षुक की भूमिका अदा करना चाहते हो,
तो (अपनी उस चाह के लिए किसी अन्य को दोष) नहीं दे सकते। भिक्षुक बनने में
तुमको रस मिल रहा है। तुम अपने वास्तविक स्वभाव को जानते हो (दिव्य बनना)।
तुम हो तो राजा और स्वाँग रचते हो भिखमंगे का।... यह सब खिलवाड़ है। इसे जानो
और लीला करो। इसका बस यही मर्म है। तब इसे करो। सारा जगत् विराट् लीला है। सब
कुछ अच्छा है, क्योंकि सब खिलवाड़ है। यह नक्षत्र टूटता है और हमारी पृथ्वी
से टकराता है, और हम सब मर जाते हैं। (यह भी खिलवाड़ ही है।) जिन क्षुद्र
वस्तुओं से तुम्हारी इंद्रियों को सुख मिलता है, उन्हींको तुम खिलवाड़
मानते हो !....
(हम लोगों से कहा जाता है कि) यहाँ एक अच्छा देवता और वहाँ एक खराब देवता है,
जो बराबर इस ताक में रहता है कि मुझसे ज्यों ही कोई भल हो त्यों ही मुझे
दबोच ले...। जब मैं बालक था, तो मुझसे किसी ने कहा कि भगवान् सब कुछ देखता है।
मैं बिस्तरे पर सोया तो ऊपर निहारने लगा और इस आशा में था कि कमरे की छत
खुलेगी। (हुआ कुछ नहीं।) हमारे अलावा दूसरा कोई हमें नहीं देख रहा है। अपनी
(आत्मा के) अतिरिक्त और कोई प्रभु नहीं; हमारी अनुभूति के अतिरिक्त और कोई
प्रकृति नहीं। आदत हमारी दूसरी प्रकृति है; वही पहली प्रकृति भी है। बस
प्रकृति का अर्थ यही है। मैं (किसी चीज़ को) दो या तीन बार दुहराता हूँ, वह
मेरी प्रकृति बन जाती है। दु:खी न हो ! पश्चाताप न करो ! जो हो गया, सो हो
गया। यदि तुम अपने को जलाओगे (तो उसका फल भोगोगे)।
...समझदार बनो। हम भूल करते हैं, इससे क्या? यह सब तो खिलवाड़ में है। अपने
पूर्वकृत पापों पर वे पागल से होकर कराहते हैं, रोते हैं और क्या क्या करते
हैं। पश्चाताप मत करो ! काम कर लेने के बाद उसे ध्यान में मत लाओ। बढ़े चलो
! रुको मत। पीछे मुड़कर मत देखो ! पीछे देखने से लाभ क्या होगा? तुमको न तो
कुछ हानि होती है और न लाभ। तुम मक्खन की भाँति गलने नहीं जा रहे हो। स्वर्ग
और नरक और शरीर-धारण - सब मूर्खतापूर्ण !
कौन पैदा होता है और कौन मरता है? तुम खिलवाड़ कर रहे हो। लोकों के साथ लीला
कर रहे हो, आदि। तुम जब तक चाहते हो, तब तक इस शरीर को धारण करते हो। यदि इसे
नहीं चाहते, तो इसे धारण भी नहीं करते। जो पूर्ण है, वह सत् है; जो अपूर्ण है,
वह लीला है। पूर्ण शरीर और अपूर्ण शरीर दोनों की एक में प्रतिष्ठा तुम्हारे
रूप में हुई है। इसे जानो ! किंतु जानने से कोई अंतर न पड़ेगा, लीला होती
रहेगी।.... दो शब्दों - आत्मा और शरीर - का संगम हुआ है। (अधूरा) ज्ञान इसका
कारण है। समझो कि तुम नित्य मुक्त हो। ज्ञानाग्नि सभी (मलों और सीमाओं) को
भस्म कर देती है। मैं वहीं पूर्ण हूँ।....
आरंभ में तुम कितने मुक्त थे, उतने ही अब भी हो और सदा रहोगे। जो अपने को
मुक्त जानता है, वह मुक्त है; जो अपने को बंधन में समझता है, वह बंधन में
है।
ईश्वर और उपासना आदि का क्या होगा? उनका अपना स्थान है। मैंने अपने को
ईश्वर और अहं में विभक्त कर रखा है; मैं उपास्य बन जाता हूँ और मैं अपनी ही
उपासना करता हूँ। क्यों न हो? अहं ब्रह्मास्मि। अपनी ही आत्मा की उपासना
क्यों न की जाए? परमेश्वर -वह भी मेरी आत्मा है। यह सब खिलवाड़ और कोई
अभिप्राय नहीं है।
जीवन का अंत और उद्देश्य क्या है? कुछ नहीं, क्योंकि मैं (जानता हूँ कि मैं
पूर्ण हूँ)। यदि तुम भिक्षुक हो, तो तुम्हारे उद्देश्य हो सकते हैं। मेरा
कोई उद्देश्य नहीं, कोई चाह नहीं, कोई अभिप्राय नहीं। मैं तुम्हारे देश में
आता हूँ, व्याख्यान देता हूँ- केवल कौतुकवश। अन्य कोई अभिप्राय नहीं। क्या
अभिप्राय हो सकता है? केवल दास दूसरों के लिए काम करते हैं। तुम किसी अन्य के
लिए कर्म नहीं करते। जब तुम्हारे अनुकूल होता है, तो तुम पूजा करते हो। तुम
ईसाइयों, मुसलमानों, चीनियों और जापानियों के साथ शरीक हो सकते हो। तुम
प्राचीन काल के सभी देवताओं की और भविष्य की और भविष्य के भी किसी देवता की
उपासना कर सकते हो।....
मैं सूर्य, चंद्र और तारों में हूँ। मैं परमात्मा के साथ हूँ और सभी देवों
में हूँ। मैं अपनी आत्मा की पूजा करता हूँ।
इसका दूसरा पक्ष भी है। मैंने इसे रोक रखा है। मैं वह आदमी हूँ जो फाँसी पर
चढ़ने जा रहा है। मैं महादुष्ट हूँ। मैं नरकों में दंड भोग रहा हूँ। वह (भी)
लीला है। दर्शन का यही लक्ष्य है (यह जानना कि मैं पूर्ण हूँ)। उद्देश्य,
नीयत, अभिप्राय और कर्तव्य सब पृष्ठभूमि में रहते हैं।....
यह सत्य पहले श्रवणीय है, फिर मननीय है। बुद्धि से विचार करो और तर्क की
कसौटी पर उसे अच्छी तरह कसो। जो सम्बुद्ध हैं, वे उससे अधिक नहीं जानते। इसे
तुम निश्चित मानो कि तुम सर्वव्यापी हो। इसी कारण तुम किसी को कष्ट मत दो,
क्योंकि दूसरों को कष्ट देने में तुम स्वयं अपने को कष्ट देते हो।....
अनंत: यह मननीय है। इस पर मनन करो। क्या तुमको यह बोध हो सकता है कि एक समय
ऐसा आएगा, जब प्रत्येक वस्तु चकनाचूर होकर धूल में मिल जाएगी और केवल
तुम्हारी सत्ता रह जाएगी? उस समय का निरतिशय आनंद तुमसे कभी दूर न होगा। तब
सचमुच तुमको प्रतीत होगा कि तुम विदेह हो। शरीर तुम्हारे कभी न थे।
अनंत काल में मैं एक और अकेला हूँ। मैं किससे डरूँ? सब कुछ तो मैं ही हूँ।
इसका निरंतर चिंतन करना चाहिए। उसके द्वारा साक्षात्कार होता है।
ईश्वर-साक्षात्कार द्वारा तुम दूसरों के लिए (आशीर्वाद) बन जाते हो।...
'तेरा मुखमंडल उस व्यक्ति के (मुखमंडल की) तरह चमक रहा है, (जो) ब्रह्म का
ज्ञान प्राप्त कर लेता है।' [25] यही लक्ष्य है। मेरी
तरह यह उपदेश देने की वस्तु नहीं है। 'एक वृक्ष के नीचे मैंने षोडश वर्षीय
बालक गुरु को देखा, शिष्य अस्सी वर्ष का वृद्ध था। गुरु मौन भाव से शिक्षा
दे रहा था और शिष्य के संशय मिट गए।' [26] तब कौन बोलता है? सूर्य
को देखने के लिए कौन दीप जलाता है? जब तत्त्व (ज्ञान) होता हैं, तब साक्षी की
आवश्यकता नहीं पड़ती। तुम जानते हो।... वही तो तुम करने जा रहे हो...
तत्त्वज्ञान। पहले उसका चिंतन करो। तर्क करो। अपनी जिज्ञासा संतुष्ट करो। तब
किसी भी अन्य वस्तु का चिंतन न करो। मैं तो चाहता हूँ, हम कुछ प पढ़ें।
प्रभो ! हम सबकी सहायता करो ! जरा देखो कि (विद्वान) पुरुष क्या बन जाता है।
'यह कहा जाता है, वह कहा जाता है।'
'तुम क्या कहते हो, मेरे मित्र?'
'मैं कुछ नहीं कहता।' वह तमाम दूसरों के विचारों को उद्धृत करता हैं, पर
स्वयं कुछ नहीं सोचता। यदि यही शिक्षा है, तो पागलपन क्या है? सभी लेखको पर
ध्यान दो !... ये आधुनिक लेखक, अपने दो वाक्य भी नहीं ! सब उद्धरण।...
पुस्तकों की सामग्री का अधिक मूल्य नहीं, और (उच्छिष्ट) धर्म में तो कुछ भी
मूल्य नहीं है। वह तो भोजन करना जैसा है। तुम्हारे धर्म से मुझे संतोष न
होगा। ईसा और बुद्ध ने भगवान् का दर्शन किया। यदि तुमने भगवान् को नहीं देखा,
तो तुम नास्तिक से अच्छे नहीं। अंतर यह है कि वह तो चुप रहता है और तुम बकवास
कर उससे दुनिया में झमेला मचाते हो। ग्रंथों, बाइबिलों और धर्मशास्त्रों से
कोई लाभ नहीं। जब बालक था, मैं एक वृद्ध से मिला, (उन्होंने कोई शास्त्र
नहीं पढ़ा था, लेकिन स्पर्श मात्र से मुझमें ईश्वर-सत्य का संचार कर दिया)।
विश्व के उपदेश को, तुम मौन हो जाओ। ग्रंथों, तुम चुप हो जाओ। प्रभु, तू ही
बोल और तेरा सेवक सुनता है। यदि सत्य न होता, तो जीवन का क्या प्रयोजन? हम
सभी सोचते हैं कि पा जाएँगे, पर पाते नहीं। हममें से अधिकांश के हाथ धूल लगती
है। ईश्वर नहीं मिलता। यदि ईश्वर ही न मिला, तो जीवन किस काम का? क्या जगत्
में कोई विश्रामस्थल है? (उसका पता लगाना हमारा काम है), कभी यह है कि हम
(उसकी गहरी खोज) नहीं करते। (हम) मझधार में पड़े बहते हुए तिनके के समान
(हैं)।
यदि यहाँ यह सत्य है, यदि यहाँ ईश्वर है, तो उसे निश्चय ही हमारे उद्देश्य
में होना चाहिए। (यह कहने में मुझे, निश्चय समर्थ होना चाहिए,) "मैंने उसे
अपनी आँखों से देखा है।" अन्यथा मेरा कोई धर्म नहीं है। विश्वास, धार्मिक
व्यवस्थाएँ, धर्मादेश धर्म की रचना नहीं करते। तत्त्वज्ञान, ईश्वर का
साक्षात्कार (यही धर्म है)। जिन्हें दुनिया पूजती है, उन सब पुरुषों का गौरव
क्या है? (उनके लिए) ईश्वर कोई धार्मिक व्यवस्था नहीं था। (क्या उनका
विश्वास इसलिए था) कि उनके पितामह विश्वास करते थे? नहीं। शरीर, मन तथा
अन्य सबसे परे जो परमेश्वर है, उसका उन्हें बोध हुआ। जिस किंचित् अंश तक यह
संसार उस परमेश्वर से प्रतिबिंबित हैं, उस अंश तक वह सत् है। हम साधु पुरुष
से प्रेम करते हैं, क्योंकि उसके मुखमंडल में वह प्रतिबिंब कुछ अधिक चमकता
है। हमें उसको स्वयं ग्रहण करना चाहिए। दूसरा कोई मार्ग नहीं है।
यही लक्ष्य है। इसके लिए पुरुषार्थ करो ! तुम अपनेपास अपनी निजी बाइबिल रखो।
अपना निजी ईसा रखो। अन्यथा तुम धार्मिक नहीं हो। धर्म की बातें मत करो। लोग
गप्पें हाँकते रहते हैं। 'उनमें से कुछ, अंधकार में पड़े रहकर, अपने गर्वीले
हृदय में सोचते हैं कि उन्हें प्रकाश मिल गया। (इतना) ही नहीं, वे दूसरों का
बोझ अपने कंधों पर ले लेते हैं और दोनों गड्ढे में गिरते हैं।' [27]
कोई धर्म स्वयं अकेले कभी उद्धार नहीं कर पाया। किसी मंदिर में पैदा होना
अच्छा है, लेकिन धिक्कार है मंदिर या गिरजाघर में मरनेवाले को। उससे बाहर आ
जाओ।... श्रीगणेश शुभ था, पर उसे छोड़ो। वह बाल्यकाल का स्थान था... लेकिन
उसे रहने दो !... परमेश्वर के पास सीधे पहुँचो। कोई सिद्धांत नहीं, कोई मतवाद
नहीं। 'तभी सब संशय छिन्न होंगे। तभी सारी कुटिलता सीधी हो जाएगी।' [28]
'नानात्व में जो उस एक का दर्शन करता है, अनंत मृत्यु में जो उस एक जीवन को
देखता है, बहुलता के बीच जो अपनी अंतरात्मा में उस अव्यय को देखता है-उसी को
शाश्वत शांति मिलती है।' [29]
लक्ष्य-2
द्वैतवाद ब्रह्म और प्रकृति को नित्य पृथक् मानता है; जगत् और प्रकृति ब्रह्म
में नित्य आश्रित हैं।
चरम अद्वैतवादी इस प्रकार का भेद नहीं करते। उनका दावा है कि अंतिम विश्लेषण
में सब ब्रह्म हैं; जगत् ब्रह्म में अध्यस्त हो जाता है; ब्रह्म जगत् का
नित्य जीवन है।
उनके लिए अनंत तथा सांत केवल शब्द मात्र हैं। जगत्, प्रकृति आदि का अस्तित्व
भेद-वृत्ति के कारण है। प्रकृति स्वयं भेद-वृत्ति है।
इस प्रकार के प्रश्न कि, "ब्रह्म ने इस जगत् की सृष्टि क्यों की?' पूर्ण ने
अपूर्ण की सृष्टि क्यों की?' आदि का कभी उत्तर नहीं दिया जा सकता, क्योंकि
इस प्रकार के प्रश्न तार्किक दृष्टि से असंगत हैं। युक्ति का अस्तित्व
प्रकृति में है। उसके परे उसका अस्तित्व नहीं। ईश्वर सर्वशक्तिमान है, इसलिए
यह पूछना कि उसने ऐसा ऐसा क्यों किया, उसको सीमित बनाना हुआ; क्योंकि यह
अंतर्निहित है कि जगत् की सृष्टि करने में उसका कोई अभिप्राय है। यदि उसका कोई
अभिप्राय है, तो वह किसी साध्य का साधन होगा और इसका अर्थ यह होगा कि साधन के
बिना उसके पास साध्य नहीं हो सकता। किसी ऐसी ही वस्तु के लिए क्यों तथा
किसलिए का प्रश्न पूछा जा सकता है, जो किसी अन्य वस्तु पर आश्रित हो।
वेदांत पर टिप्पणियाँ
हिंदू धर्म के आधारभूत सिद्धांत विविध वेदों में अंतर्निहित मनप्रवण और
कल्पनाशील दर्शन एवं नैतिकता की शिक्षा पर प्रतिष्ठित हैं। वेद इस बात पर बल
देते हैं कि जगत् विस्तार में अनंत है और उसकी सत्ता शाश्वत है। उसका न तो
कभी आरंभ हुआ और न कभी अंत होगा। जड़-जगत् में आत्मा की शक्ति की और ससीम के
क्षेत्र में असीम़ की शक्ति की असंख्य अभिव्यक्तियाँ हुई हैं, परंतु स्वयं
असीम स्वयंभू, शाश्वत और अपरिवर्तनशील है। कालक्रम शाश्वत की काया पर कोई
चिन्ह नहीं छोड़ता। ज्ञान की अति संवेद्य भूमिका में, जो मानव बुद्धि के
नितांत परे है, न भूत है, न भविष्यत्।
वेद हमें बताते हैं कि मनुष्य की आत्मा अमर है। जन्म-मरण शरीर के धर्म
हैं-जिसका जन्म होता है, उसकी मृत्यु निश्चित है (जातस्य हि ध्रुवो
मृत्यु:)। लेकिन प्रत्यगात्मा असीम और शाश्वत जीवन से संबंधित है, न तो
उसका आदि है और न अंत। वैदिक तथा ईसाई धर्म में एक प्रमुख अंतर यह है कि ईसाई
धर्म के अनुसार इस दुनिया में पैदा होने पर प्रत्येक जीवात्मा का आरंभ होता
है; जब कि वैदिक धर्म दावे के साथ कहता है कि जीवात्मा उस सनातन परमात्मा से
ही नि:सृत हुआ है और उसी की भाँति जन्म-मरण से परे है। देहांतर प्राप्ति
द्वारा इस आत्मा की असंख्या अभिव्यक्तियाँ हो चुकी हैं और असंख्य
अभिव्यक्तियाँ होंगी। यह क्रम तब तक आध्यात्मिक विकास के उस महान् नियम के
अनुसार चलता रहेगा, जब तक वह पूर्णत्व तक नहीं पहुँच जाती। तब फिर कोई
परिवर्तन न होगा।
आधुनिक संसार पर वेदांत का दावा
(रविवार, २५ फरवरी, १९०० को ओकलैंड में दिए गए व्याख्यान की 'दी ओकलैंड
एनक्वायरर' की संपादकीय टिप्पणी सहित रिपोर्ट)
इस घोषणा से कि पूर्व के मनीषी स्वामी विवेकानंद गत सायंकाल 'यूनिटेरियन
चर्च' में 'पार्लामेंट ऑफ़ रिलिजन्स' में वेदांत दर्शन की व्याख्या करेंगे,
भारी भीड़ आकृष्ट हुई। मुख्य श्रोता-भवन और वहाँ तक पहुँचने के बीच के कमरे
भरे थे, वेंड्ट हॉल का संलग्न श्रोता-भवन खोल दिया गया और वह भी ठसा-ठस भर
गया और ऐसा अनुमान है कि पूरे 500 व्यक्तियों को, जिन्हें बैठने की या खड़े
रहने की भी ऐसी जगह न मिल सकी, जहाँ से वे सुविधापूर्वक सुन सकते, हटा दिया
गया।
स्वामी जी ने उल्लेखनीय प्रभाव डाला। व्याख्यान के समय बार बार हर्षध्वनि
हुई और उसकी समाप्ति के बाद उन्होंने उत्साह भरे प्रशंसकों को मिलने का अवसर
दिया। 'आधुनिक संसार पर वेदांत का दावा' विषय पर उन्होंने अशंत: निम्नलिखित
भाषण किया:
आधुनिक संसार से वेदांत अपेक्षा करता है कि वह उस पर विचार करे। मानव जाति की
महत्तम संख्या इसके प्रभाव की परिधि में है। भारत में इसके अनुयायियों पर
बारंबार कोटि कोटि लोगों ने धावा किया हैं और अपनी प्रचंड शक्ति से उन्हें
कुचला है, फिर भी यह धर्म जीवित है।
संसार के सभी राष्ट्रों में क्या इस प्रकार का दर्शन मिल सकता है? इसकी
छत्र-छाया में अपने के लिए अन्य दर्शन उत्पन्न हुए हैं। कुकुरमुत्तों की
भाँति उनकी उत्पत्ति हुई है, आज वे जीवित हैं तथा लहलहा रहे हैं और कल से
विलुप्त हो गए हैं। क्या यह योग्यतम के ही जीवित बच रहने की बात नहीं है?
यह ऐसा दर्शन है, जो अभी पूर्ण नहीं है। हजारों वर्षों से वह विकसित ही रहा है
और आज भी वर्द्धमान है। इसलिए एक घंटे के थोड़े समय में मैं जो कुछ कहूँगा,
उससे तुम्हारे समक्ष एक आभास मात्र ही प्रस्तुत कर सकता हूँ।
पहले में तुम़को वेदांत के उदय का इतिहास बताऊँगा। इसके उद्भव के पूर्व ही
भारत ने एक धर्म को पूर्ण विकसित कर लिया था। उसके स्थिर होने की प्रक्रिया
बहुत वर्षों से चल रही थी। विधि-विधानपूर्ण संस्कार पहले से ही मनाए जाने लगे
थे। आश्रम-धर्म की आचार-पद्धति परिपक्व हो चुकी थी। लेकिन कालांतर में अनेक
धर्मों में आडंबरपूर्ण कर्मकांड और हास्यास्पद कुरीतियाँ घुस ही जाती हैं।
इनके विरुद्ध विद्रोह हुआ और महान् पुरुष वेदों के माध्यम से सत्य धर्म का
उद्धोष करने के लिए आगे आए। हिंदुओं ने इन्हीं वेदों के प्रकटीकरण से अपना
धर्म पाया। उन्हें बताया गया कि वेद अनादि और अनंत हैं। इस श्रोतामंडली को यह
हास्यास्पद प्रतीत हो सकता है-एक ग्रंथ अनादि-अनंत कैसे हो सकता है; किंतु
वेदों से आशय किन्हीं ग्रंथों का नहीं है। उनका अर्थ है आध्यात्मिक नियमों
का संचित कोष, जिनकी खोज विभिन्न व्यक्तियों ने विभिन्न कालों में की।
जब तक इन पुरुषों का आविर्भाव नहीं हुआ था, तब तक लोगों में यह आम धारणा थी कि
ईश्वर जगत् का शास्ता है और मनुष्य अमर है। लेकिन वहीं वे रुक गए। ऐसा समझा
जाने लगा कि उससे और अधिक कुछ नहीं जाना जा सकता। तभी वेदांत के साहसी
व्याख्याकारों का आविर्भाव हुआ। वे जानते थे कि बच्चों के लिए जो धर्म
अभिप्रेत है, वह विचारकों के लिए उपयोगी नहीं हो सकता और मनुष्य तथा ईश्वर
के विषय में कुछ और भी सत्य हैं।
नैतिक अज्ञेयवादी केवल बाह्य निर्जीव प्रकृति को ही जानता है। उसीसे वह जगत्
के नियम का निरूपण करने की चेष्टा करता है। उनकी चले तो वे मेरी नाक काट लें
और कहें कि तुम्हारा पूरा शरीर बस यही है और उसीके समर्थन में बहस करें।
उसे अपने भीतर देखना चाहिए। आकाश में जो नक्षत्र विचरण करते हैं, यहाँ तक कि
ब्रह्मांड भी, बाल्टी में एक बूँद के समान हैं। तुम्हारा अज्ञेयवादी उस
महत्तम को तो देखता नहीं और जगत् को देखकर भयभीत हो जाता है।
यह अध्यात्म जगत् सबसे बढ़कर है। विश्वेश्वर जो शासन करता है- हमारा पिता,
हमारी माता। संसार कहा जानेवाला यह अबोधों का कर्मकांड है क्या? सर्वत्र दु:ख
ही दु:ख है। ओठों पर क्रंदन लेकर शिशु जन्म लेता है; वही उसका प्रथमोच्चार
है। यही शिशु प्रौढ़ व्यक्ति बन जाता है और दु:खों का ऐसा अभ्यस्त हो जाता
है कि हृदय की वेदना ओठों पर मुस्कान से छिपी रहती है।
इस संसार का हल कहाँ है? जिनकी दृष्टि बहिर्मुख है, वे उसे कभी नहीं पा सकते;
उन्हें दृष्टि को अंतर्मुख कर सत्य का पता लगाना चाहिए। धर्म का निवास
अभ्यंतर में है।
एक व्यक्ति उपदेश देता है कि यदि तुम अपना सिर काट डालो, तो तुम्हारा उद्धार
हो जाएगा। पर क्या उसे कोई अनुयायी मिलता है? स्वयं तुम्हारे ईसा का कथन
है, गरीबों को सब कुछ दे दो और मेरा अनुसरण करो। तुम लोगों
में से कितनों ने ऐसा किया है? तुमने इस आदेश का पालन नहीं किया है, फिर भी
ईसा तुम्हारे धर्म के महान् गुरु हैं। तुममें से प्रत्येक अपने जीवन में
व्यावहारिक हो, लेकिन यह तुमको अव्यावहारिक लगता है।
परंतु वेदांत तुम्हारे समक्ष कोई ऐसी वस्तु नहीं रखता, जो अव्यावहारिक हो।
प्रयोग-कार्य के लिए प्रत्येक विज्ञान के पास अपनी सामग्री होना चाहिए।
प्रत्येक व्यक्ति को कुछ विशेष परिस्थितियों और प्रचुर प्रशिक्षण तथा
ज्ञानार्जन की आवश्यकता पड़ती है; किंतु सड़क पर फिरनेवाला कोई जैक भी तुमको
धर्म के बारे में सब कुछ बता सकता है। तुम धर्म का अनुसरण करना चाह सकते हो और
किसी विशेषज्ञ का अनुसरण कर सकते हो, लेकिन जैक से केवल उस पर बातें ही कर
सकते हो, क्योंकि वह इस पर सिर्फ़ बातें ही कर सकता है।
तुम जैसा विज्ञान के प्रति करते हो, वैसा ही तुमको धर्म के प्रति करना चाहिए।
तथ्यों के प्रत्यक्ष संपर्क में आओ, और उस नींव पर आश्चर्यजनक भवन का
निर्माण कर डालो।
सच्चा धर्म पाने के लिए तुम्हारे पास साधन अवश्य होने चाहिए। विश्वास का
प्रश्न नही उठता; श्रद्धा से तुम कुछ बना नहीं सकते, क्योंकि विश्वास तो
तुम कुछ भी कर सकते हो।
विज्ञान में हम यह जानते हैं कि जब हम वेग बढ़ाते हैं, तब पदार्थ-पिंड घट जाता
है, और ज्यों ज्यों पदार्थ-पिंड बढ़ाते हैं, त्यों त्यों वेग घटता जाता
है। इस प्रकार हमारे पास दो वस्तुएँ हैं, पदार्थ और शक्ति। हमें मालूम नहीं
कि पदार्थ कैसे शक्ति में विलीन हो जाता है और शक्ति पदार्थ में विलीन हो जाती
है। इसलिए कोई एक ऐसी वस्तु है, जो न शक्ति है और न पदार्थ, क्योंकि ये
दोनों एक दूसरे में विलीन हो नहीं सकते। यह वही है जिसे हम मन कहते हैं-
विश्व मन।
तुम कहते हो कि तुम्हारा शरीर और मेरा शरीर भिन्न-भिन्न हैं। सार्वभौम मानव
जातिरूपी महासागर में मैं एक लघु भँवर मात्र हूँ। सच है कि यह एक भँवर मात्र
है, पर है उस बृहत् महासागर का ही एक भाग।
तुम ऐसे बहते जल में किनारे खड़े होते हो, जिसका प्रत्येक सीकर परिवर्तित हो
रहा है और फिर भी उसे सरिता कहते हैं। जल बदल रहा है, यह सत्य है, लेकिन तट
वे ही रहते हैं। मन नहीं बदल रहा है, परंतु शरीर- कितने शीघ्र उसकी आकारवृद्धि
! मैं शिशु था, किशोर था, तरुण हूँ और शीघ्र ही वृद्ध हो जाऊँगा, शरीर झुक
जाएगा और जराग्रस्त हो जाऊँगा। शरीर परिवर्तित हो रहा है और तुम पूछते हो कि
क्या मन भी नहीं परिवर्तित हो रहा है? जब मैं बालक था, तो सोचता था, मैं
बृहत्तर हो गया हूँ, क्योंकि मेरा मन संस्कारों का समुद्र है।
प्रकृति के पीछे एक विश्व-मन है। जीवात्मा एक इकाई मात्र है और वह जड़
वस्तु नहीं है क्योंकि मनुष्य जीवात्मा है। 'मृत्यु के उपरांत आत्मा
कहाँ जाती है?' इस प्रश्न का उत्तर वैसे ही देना चाहिए, जैसे जब कोई लड़का
पूछता है, 'पृथ्वी नीचे क्यों नहीं गिर जाती?' प्रश्न एक जैसे हैं और उनके
हल भी एक से, हैं; क्योंकि आत्मा जा कहाँ सकती है?
तुम जो अमरता की बात करते हो, तो मैं तुमसे कहूँगा कि जब घर जाओ तो यह कल्पना
करने का प्रयत्न करो कि तुम मृत हो। द्रष्टा बनकर मृत शरीर का स्पर्श करो।
तुम कर नहीं सकते, क्योंकि तुम अपने से बाहर नहीं निकल सकते। प्रश्न अमरत्व
के विषय में नहीं है, बल्कि यह है कि मृत्यु के उपरांत जैक अपनी जेनी से मिल
सकता है या नहीं।
धर्म का एक भारी रहस्य यह स्वयं जानना है कि तुम आत्मा हो। यह प्रलाप मत
करो, 'मैं कीट हूँ, अकिंचन हूँ !' कवि यों कहता है, 'मैं सत्ता हूँ, ज्ञान हूँ
और सत्य हूँ।' कोई आदमी दुनिया में यह कहकर कुछ भला नहीं कर सकता, 'मैं उसके
पापियों में से एक हूँ।' जितने ही अधिक तुम पूर्ण होगे, उतनी ही कम अपूर्णता
देखोगे।
मनुष्य अपना भाग्य-विधाता
दक्षिण भारत में एक बहुत शक्तिशाली राजवंश था। समय समय पर जो प्रमुख व्यक्ति
होते थे, उनकी जन्मकुंडलियों को, जिनकी गणना उनके जन्मकाल से की गई होती थी,
ले लेने का उन्होंने नियम बना दिया था। इस प्रकार भविष्यवाणी का मुख्य
मुख्य बातों का एक लेखा वे प्राप्त कर लेते थे और बाद में जो घटनाएँ घटित
होती थीं, उनसे उनका मिलान करते थे। सहस्त्र वर्ष पर्यंत यह उस समय तक किया
गया, जब उन्हें कतिपय सर्वसम्मत तथ्य मिल गए। फिर उन्हें नियमबद्ध किया गया
और लिख लिया गया और एक बृहत् ग्रंथ रच डाला गया। राजवंश नष्ट हो गया, लेकिन
ज्योतिषियों का कुल बना रहा और ग्रंथ उनके पास रहा। यह संभव प्रतीत होता है
कि इस प्रकार से फलित ज्योतिष का आविभाँव हुआ। फलित ज्योतिष की सूक्ष्म
बातों में भी अत्यधिक ध्यान देना, उन अंधविश्वासों में से एक है, जिससे
हिंदुओं को अत्यधिक क्षति पहुँची है।
मेरा खयाल है कि सर्वप्रथम यूनानी भारत में फलित ज्योतिष लाए और उन्होंने
हिंदुओं से ज्योतिर्विज्ञान (गणित ज्योतिष) सीखा तथा उसे अपने साथ यूरोप ले
गए। चूँकि भारत में तुमको प्राचीन यज्ञवेदियाँ ज्यामिति की कुछ विशेष
आकृतियों के अनुसार मिलेंगी और कुछ कार्य नक्षत्रों की विशेष स्थिति में ही
किए जाते थे, इसलिए मेरा खयाल है कि यूनानियों ने हिंदुओं को फलित ज्योतिष
और हिंदुओं ने यूनानियों को ज्योतिर्विज्ञान दिया।
मैंने कुछ ऐसे ज्योतिषियों को देखा है, जो आश्चर्यजनक भविष्यवाणियाँ करते
हैं, लेकिन यह विश्वास करने के लिए मेरे पास कोई कारण नहीं है कि वे केवल
ग्रहों के या वैसी किसी वस्तु के आधार पर भविष्यवाणी करते हैं। कुछ
दृष्टांतों में तो भविष्यवाणी केवल दूसरे के मन के भावों को पढ़ लेना मात्र
रहता है। कभी-कभी आश्चर्यजनक भविष्यवाणियाँ की जाती हैं, परंतु अनेक
दृष्टांतों में ये बिल्कुल बेकार होती हैं।
लंदन में एक युवक मेरे पास आकर पूछा करता था, "अगले साल मेरी दशा कैसी होगी?"
मैंने प्रश्न किया कि तुम मुझसे ऐसा क्यों पूछते हो। "मेरे सब पैसे नष्ट हो
गए और मैं निर्धन हो गया हूँ।" पैसा ही बहुतेरे लोगों का एकमात्र ईश्वर होता
है। निर्बल व्यक्ति, जब सब गँवाकर अपने को कमजोर महसूस करते हैं, तब पैसे
बनाने की बेसिर-पैर की तरकीबें अपनाते हैं और ज्योतिष एवं इन सब चीजों का
सहारा लेते हैं। संस्कृत में कहावत है: 'जो का पुरुष और मूर्ख है, वह कहता है
यह भाग्य है।" लेकिन वह बलवान पुरुष है, जो खड़ा हो जाता है और कहता है, 'मैं
अपने भाग्य का निर्माण करूँगा।' जो लोग बूढ़े होने लगते हैं, वे भाग्य की
बातें करते हैं। साधारणत: जवान आदमी ज्योतिष का सहारा नहीं लेते। हम लोग
ग्रहों के प्रभाव में हो सकते हैं, लेकिन इसका हमारे लिए अधिक महत्व नहीं है।
बुद्ध का कहना है, 'जो लोग नक्षत्रों की गणना या उस प्रकार की कला और अन्य
मिथ्या-प्रपंचों से जीविकोपार्जन करते हैं, उन्हें दूर रखना चाहिए।' और उनको
इसका यथार्थ ज्ञान होना ही चाहिए, क्योंकि आज तक जितने हिंदू जन्मे हैं,
उनमें वह सबसे महान् थे। नक्षत्रों को अपने दो, हानि क्या है? यदि कोई
नक्षत्र मेरे जीवन में उथल-पुथल करता है, तो उसका मूल्य एक कौड़ी भी नहीं है।
तुम अनुभव करोगे कि ज्योतिष और ये सब रहस्यमयी वस्तुएँ बहुधा दुर्बल मन की
द्योतक है; इसलिए जब हमारे मन में इनका उभार हो, तब हमें किसी डॉक्टर के यहाँ
जाना चाहिए, उत्तम भोजन ग्रहण करना चाहिए और विश्राम करना चाहिए।
यदि किसी गोचर घटना की व्याख्या उसकी प्रकृति के ही घटकों से हो जाती है, तो
बाहर से कोई व्याख्या ढूँढ़ना मूर्खता है। अगर संसार स्वयं ही अपनी
व्याख्या कर दे, तो व्याख्या के लिए बाहर जाना मूर्खता है। क्या तुमने
किसी मनुष्य के जीवन में कोई भी ऐसी घटना घटती देखी है, जिसकी व्याख्या
स्वयं मनुष्य के सामर्थ्य के भीतर न हो? इसलिए ग्रह-नक्षत्रों या दुनिया की
अन्य किसी वस्तु को टटोलने से क्या लाभ? मेरी वर्तमान अवस्था के
स्पष्टीकरण के लिए मेरा निज का कर्म पर्याप्त है। साक्षात् ईसा पर भी यही
लागू होता है। हम जानते हैं कि उनके पिता एक बढ़ई मात्र थे। उनकी शक्ति की
व्याख्या कराने के लिए हमें दूसरे किसी के पास जाने की आवश्यकता नहीं है।
वह अपने ही अतीत के परिणाम थे, और वह समग्र अतीत उस ईसा के लिए तैयारी था।
बुद्ध एक एक कर पशु-योनियों के अपने पूर्व शरीरों का हाल बताते हैं और कहते
हैं कि अंत में वह कैसे बुद्ध बने। इसलिए व्याख्या के लिए ग्रह-नक्षत्रों के
पास जाने की क्या आवश्यकता है? उनका कुछ प्रभाव हो सकता है, किंतु उनकी
उपेक्षा कर देना हमारा कर्तव्य है, न कि उनकी सुनना औ रअपने को उद्विग्न
करना। मैं जो भी शिक्षा देता हूँ, उसके लिए यह मेरी पहली अनिवार्य शर्त है-
जिस किसी वस्तु से आध्यात्मिक, मानसिक या शारीरिक दुर्बलता उत्पन्न हो,
उसे पैर की अँगुलियों से भी मत छुओ। मनुष्य में जो स्वाभाविक बल है, उसकी
अभिव्यक्ति धर्म है। असीम शक्ति का स्प्रिंग इस छोटी सी काया में कुंडली मारे
विद्यमान है और वह स्प्रिंग अपने को फैला रहा है। और ज्यों-ज्यों यह फैलता
है, त्यों-त्यों एक के बाद दूसरा शरीर अपर्याप्त होता जाता है; वह उनका
परित्याग कर उच्चतर शरीर धारण करता है। यही है मनुष्य का धर्म, सभ्यता या
प्रगति का इतिहास। वह भीमकाय बद्धपाश प्रोमीथियस' अपने को बंधन-मुक्त कर रहा
है। यह सदैव बल की अभिव्यक्ति है और फलित ज्योतिष जैसी समस्त कल्पनाओं को,
यद्यपि उनमें सत्य का एक कण हो सकता है, दूर ही रखना चाहिए।
किसी ज्योतिषी के बारे में एक प्राचीन कथा है कि एक राजा के यहाँ जाकर उसने
कहा, "छ: महीने में आपकी मृत्यु हो जाएगी।" राजा डरकर हतबुद्धि हो गया और
भयवश वहीं तत्काल प्राय: मरणासन्न हो गया। किंतु उसका मंत्री चतुर व्यक्ति
था। उसने राजा से कहा कि ये ज्योतिषी मूर्ख होते हैं। उस पर राजा का विश्वास
नहीं जमा। इससे मंत्री को इसके अतिरिक्त अन्य कोई उपाय न सूझा कि वह
ज्योतिषी को राजप्रासाद में पुन: बुलाए और राजा को समझाए कि ये ज्योतिषी
मूर्ख होते हैं। तब उसने उससे पूछा कि क्या तुम्हारी गणना सही है। ज्योतिषी
ने कहा कि कोई गलती नहीं हो सकती। परंतु मंत्री को संतुष्ट करने के लिए उसने
पूरी गणना फिर से की और तब कहा कि वह बिल्कुल ठीक है। राजा का चेहरा फीका पड़
गया। मंत्री ने ज्योतिषी से पूछा, "और आपकी मृत्यु कब होगी, इसके बारे में
आप क्या सोचते हैं?"[30]
'बारह वर्ष में", जवाब मिला। मंत्री ने तलवार खींच ली और ज्योतिषी का सिर धड़
से अलग कर दिया और राजा से कहा, "इस मिथ्यावादी को तो आप देख रहे हैं? यह इसी
क्षण मर गया।"
यदि तुम अपने राष्ट्र को जीवित रखना चाहते हो, तो इन सब चीजों से दूर रहो।
शुभ वस्तुओं की एक ही परख यह है कि वे हमें सबल बनाती हैं। शुभ जीवन है, अशुभ
मृत्यु है। तुम्हारे देश में ये अंधविश्वास कुकुरसुत्तों की भाँति उग रहे
हैं और जिन स्त्रियों में तार्किक विश्लेषण की योग्यता नहीं है, वे उन पर
विश्वास करने के लिए उद्यत हैं। इसका कारण यह है कि स्त्रियाँ मुक्ति के लिए
यत्नशील हैं और स्त्रियाँ अभी तक बौद्धिक स्तर पर अपने को प्रतिष्ठित नहीं
कर पाई हैं। एक महिला किसी उपन्यास के सिरे पर अंकित किसी कविता की कुछ
पंक्तियों को कंठस्थ कर लेती है और कहती है कि ब्राउनिंग के पूरे कृतित्व का
उसे ज्ञान है। दूसरी महिला तीन व्याख्यानों को सुनती है और सोचती है कि
दुनिया की सारी जानकारी उसको है। कठिनाई यह है कि महिलाओं में जो स्वाभाविक
अंधविश्वास होते हैं, उनका परित्याग करने में दे असमर्थ हैं। उनके पास
प्रचुर द्रव्य है और थोड़ी बौद्धिक विद्वत्ता भी, लेकिन जब वे इस
संक्रमणकालीन अवस्था के पार हो जाएँगी और दृढ़ भूमि पर पाँव जमा लेंगी, तब वे
बिल्कुल ठीक हो जाएँगी। किंतु अभी वे धूर्तों द्वारा ठगी जा रही हैं। दु:खी न
हो; किसी का जी दु:खाना मेरा अभिप्राय नहीं है, लेकिन सत्य मुझे कहना है।
क्या तुम देखते नहीं, इन सब वस्तुओं के लिए तुम कितने खुले हो? क्या तुम
देखते नहीं कि ये महिलाएँ कितनी निश्छल हैं, और वह दिव्यता, जो सबमें गुप्त
रूप से विद्यमान है, कभी नष्ट नहीं होती? केवल यही जानना है कि उस दिव्यता
के प्रति आवेदन किस प्रकार किया जाए।
मेरे जीवन की अवधि जितनी अधिक होती जाती है, दिनानुदिन उतना ही मेरा यह
विश्वास दृढ़तर होता जा रहा है कि प्रत्येक मानव दिव्य है। किसी भी स्त्री
या पुरुष में, चाहे वह कितना भी जघन्य क्यों न हो, वह दिव्यता विनष्ट नहीं
होती। उस स्त्री या पुरुष को केवल इतना ही नहीं मालूम है कि वहाँ तक कैसे
पहुँचा जाए और वह सत्य की प्रतीक्षा में है। और दुष्ट जन सब प्रकार की
बेवकूफि़यों से उस स्त्री या पुरुष को ठगने की कोशिश कर रहे हैं। यदि पैसे के
लिए एक आदमी दूसरे को ठगता है तो तुम कहते हो कि वह बेवकूफ और बदमाश है। तो वह
जो दूसरों को आध्यात्मिक मूर्ख बनाना चाहता है, उसकी यह कितनी और अधिक बड़ी
दुष्टता है ! यह बहुत बुरा है। केवल एक ही कसौटी है, सत्य तुमको अवश्य
बलवान बनाएगा और कुसंस्कार से ऊपर उठाएगा। दार्शनिक का कर्तव्य है कि वह
तुमको अंधविश्वास से ऊपर उठाये। यहाँ तक कि यह संसार, यह शरीर और मन
अंधविश्वास हैं। तुम हो कितनी असीम आत्मा ! और टिमटिमाते हुए तारों से छले
जाना ! यह लज्जास्पद दशा है। तुम दिव्य हो; टिमटिमाते हुए तारों का
अस्तित्व तो तुम्हारे कारण है।
एक बार मैं हिमालय के अंचल में यात्रा कर रहा था और सामने लंबी संड़क का
विस्तार था। हम ग़रीब साधुओं को कोई ढोनेवाला नहीं मिल सकता था, इसलिए पूरा
मार्ग पैदल चलकर पार करना था। हम लोगों के साथ एक वृद्ध था। रास्ता सैकड़ों
मील का है, जिसमें चढ़ाव और उतार है और जब उस वृद्ध साधु ने देखा कि उसके
सामने क्या है, तब उसने कहा, "ओह, महाशय, इसे कैसे पार किया जाए, मैं अब जरा
भी नहीं चल सकता, मेरी छाती फट जाएगी।" मैंने उससे कहा, "नीचे अपने पाँवों को
देखिए।" उसने ऐसा ही किया, और मैंने कहा, "आपके पाँवों के नीचे जो सड़क है,
उसे आप पार कर चुके हैं और आपके सामने जो सड़क दिखाई पड़ रही है वह भी वही है;
और वह भी शीघ्र आपके पावों के नीचे आ जाएगी।" उच्चतम वस्तुएँ तुम्हारे
पाँवों के तले हैं, क्योंकि तुम दिव्य नक्षत्र हो। यदि तुम चाहो तो
मुट्ठियों नक्षत्र चबा सकते हो। ऐसा है तुम्हारा वास्तविक स्वरूप। बलवान
बनो, सब अंधविश्वासों से ऊपर उठो और मुक्त हो जाओ।
वेदांत दर्शन और ईसाई मत
(२८ फरवरी, १९०० को यूनिटैरियन चर्च, ओकलैंड, कैलिफोर्निया में दिए गए
व्याख्यान का लिखित विवरण)
विश्व के सभी महान् धर्मों में कई बातों में समानता होती है और कहीं-कहीं तो
समानता इतनी विस्मयकारी होती है कि मन में भाव उठता है कि बहुत सी बातों में
एक धर्म ने दूसरे की नक़ल की है।
विभिन्न धर्मों पर यह आरोप लगाया गया है कि उन्होंने दूसरों का अनुकरण किया
है, किंतु निम्नलिखित तथ्यों से इस आरोप की निस्सारता स्पष्ट हो जाती है-
धर्म मानवता की आत्मा में ही आधारभूत रूप में है और चूँकि जो भीतर है, समस्त
जीवन उसीका विकास है, इसलिए विभिन्न जातियों और राष्ट्रों के माध्यम से
धर्म अपने को अनिवार्यत: प्रकट करता है।
आत्मा की भाषा एक है, राष्ट्रों की भाषाएँ अनेक हैं, उनके रीति-रिवाज और
जीवन-प्रणाली एक दूसरे से बहुत भिन्न हैं। धर्म आत्मा की वस्तु है और वह
विभिन्न राष्ट्रों, भाषाओं तथा रीति-रिवाजों के माध्यम से अपने को प्रकट
करता है। अत: यह निष्कर्ष निकलता है कि विश्व के धर्मों में अंतर
अभिव्यंजना का है, तत्त्व का नहीं, और उनमें जो समानता तथा एकरूपता है, वह
आत्मा की है और उसमें अंतर्निहित है, क्योंकि आत्मा की भाषा, चाहे जिन
राष्ट्रों तथा चाहे जिन परिस्थितियों में अपने को अभिव्यक्त करे, एक है।
अनेक तथा विभिन्न प्रकार के वाद्ययंत्रों से जो एक ही मधुर झंकार सुनायी
पड़ती है, वही वहाँ भी झंकृत होती है।
विश्व के सभी महान् धर्मों की प्रथम समानता यह है कि सबका एक एक प्रामाणिक
ग्रंथ है। जिन धर्मों के पास ऐसा कोई ग्रंथ नहीं रहा, वे लुप्त हो गए।
मिस्त्र के धर्मों की यही गति हुई। इसे हम यों कह सकते हैं कि प्रत्येक
महान् धर्म का प्रामाणिक ग्रंथ अग्निकुंड का वह पत्थर है, जिसके चतुर्दिक् उस
धर्म के अनुयायी एकत्र होते हैं और उससे उक्त धर्म की शक्ति एवं संजीवनी
विकीर्ण होती है।
फिर, प्रत्येक धर्म का दावा है कि उसका अपना ग्रंथ ही प्रामाणिक ब्रह्मवाक्य
है; अन्य सब धर्मग्रंथ झूठे हैं और दीन-हीन मानव के विश्वास पर जबरदस्ती
थोपे गए हैं, तथा अन्य धर्म को मानना अज्ञानता एवं आध्यात्मिक अंधता है।
सभी धर्मों के कट्टरपंथियों में इस प्रकार की धर्मांधता पाई जाती है।
उदाहरणार्थ, कट्टर वैदिकमार्गियों का दावा है कि वेद ही ईश्वर की प्रामाणिक
वचन है; ईश्वर ने वेदों के द्वारा ही विश्व को उपदेश दिया है; इतना ही नहीं,
वरन् वेदों के ही प्रताप से यह लोक टिका है। विश्व की सृष्टि के पूर्व वेद
थे। विश्व में सबका अस्तित्व इसलिए है कि वेदों में उनकी विद्यमानता है। गाय
का अस्तित्व इसलिए है कि वेदों में गाय का नाम आया है, अर्थात् जिस पशु को हम
गाय नाम से जानते हैं, उसका उल्लेख वेदों में है। वैदिक भाषा ईश्वर की आदि
भाषा है; अन्य सभी भाषाएँ केवल बोलियाँ हैं और वे ईश्वरीय नहीं हैं। वेदों
के प्रत्येक शब्द और मात्रा का उच्चारण सही सही करना चाहिए, प्रत्येक
ध्वनि का स्वर ठीक होना चाहिए तथा इस कठोर शुद्धता का किंचित् भी स्खलन
भयानक पाप है और अक्षम्य है।
इस प्रकार, ऐसी धर्मांधता सभी धर्मों के कठमुल्लों में प्रबल रूप से
व्याप्त है। लेकिन जो अनभिज्ञ हैं, जो आध्यात्मिक अंधे हैं, वे ही शब्दों
के पीछे लड़ते हैं। जो लोग वास्तव में धार्मिक प्रवृत्ति के हो गए हैं, वे
विभिन्न धर्मों के बाह्य शाब्दिक स्वरूप पर झगड़ा नहीं करते। वे जानते हैं
कि सब धर्मों का प्राण एक ही है। परिणामस्वरूप, वे किसी से इस कारण झगड़ा
नहीं करते कि वह उनकी भाषा नहीं बोलता।
वस्तुत: वेद विश्व के सबसे प्राचीन धर्मग्रंथ हैं। कोई नहीं जानता कि वे कब
लिखे गए और किसके द्वारा लिखे गए। वे कई खंडों में हैं और मुझे संदेह है कि
कभी किसी एक व्यक्ति ने सभी वेदों को पढ़ा हो।
वैदिक धर्म हिंदुओं का धर्म है और समस्त प्राच्य धर्मों का वह आधार है,
अर्थात् सभी प्राच्य धर्म वेदों की शाखाएँ हैं; पूर्व के सभी धार्मिक वेदों
को प्रमाण मानते हैं।
ईसा मसीह की वाणी में आस्था रखना और साथ ही यह मानना कि उनकी वाणी का अधिकांश
आज के युग में व्यवहार में नहीं लाया जा सकता, युक्तिसंगत नहीं है। यदि तुम
यह कहो कि जो उनके वचनों में आस्था रखते हैं, उनको सिद्धियाँ न मिल पाने का
(जब कि ईसा ने कहा था कि वे मिलेंगी) कारण यह है कि उनमें पर्याप्त निष्ठा
नहीं है और वे पर्याप्त पवित्र नहीं हैं-तो यह ठीक होगा। लेकिन यह कथन
हास्यास्पद है कि वर्तमान काल में वे अव्यवहार्य हैं।
मैंने ऐसा आदमी कभी नहीं देखा है, जो कम से कम मेरी बराबरी का न रहा हो। मैंने
दुनिया भर की यात्रा की है; बुरे से बुरे लोगों के बीच गया हूँ- नर-भक्षियों
के बीच भी - लेकिन मुझे कोई ऐसा आदमी नहीं दिखाई पड़ा, जो कम से कम मेरी
बराबरी का न रहा हो। वे जो आज कर रहे हैं, वह मैं कर चुका हूँ - जब मैं मूर्ख
था। उस समय मुझे उसकी अपेक्षा अधिक अच्छे का ज्ञान नहीं था, परंतु अब है। इस
समय उन्हें उससे अधिक अच्छे का ज्ञान नहीं है, कुछ समय बाद उन्हें हो
जाएगा। प्रत्येक व्यक्ति अपने स्वभाव के अनुसार कार्य करता है। हम सभी
विकास की प्रक्रिया के मध्य हैं। इस दृष्टि से एक आदमी दूसरे की अपेक्षा अधिक
श्रेष्ठ नहीं है।
प्रकृति और मानव
आजकल के लोगों की धारणा है कि प्रकृति के अंतर्गत जगत् का केवल वही भाग आता
है, जो भौतिक स्तर पर अभिव्यक्त है। साधारणत: जिसे मन समझा जाता है, उसे
प्रकृति के अंतर्गत नहीं मानते।
इच्छा की स्वतंत्रता सिद्ध करने के प्रयास में दार्शनिकों ने मन को प्रकृति
से बाहर माना है क्योंकि जब प्रकृति कठोर और दृढ़ नियम से बँधी और शासित है,
तब मन को यदि प्रकृति के अंतर्गत माना जाए, तो वह भी नियमों में बँधा होना
चाहिए। इस प्रकार के दावे से इच्छा की स्वतंत्रता का सिद्धांत ध्वस्त हो
जाता है, क्योंकि जो नियम में बँधा है, वह स्वतंत्र कैसे हो सकता है?
भारतीय दार्शनिकों का मत इसके विपरीत है। उनका मत है कि सभी भौतिक जीवन, चाहे
वह व्यक्त हो अथवा अव्यक्त, नियम से आबद्ध है। उनका दावा है कि मन तथा
बाह्य प्रकृति दोनों नियम से, एक तथा समान नियम से आबद्ध हैं। यदि मन नियम के
बंधन में नहीं है, हम जो विचार करते हैं, वे यदि पूर्व विचारों के परिणाम नहीं
हैं, यदि एक मानसिक अवस्था दूसरी पूर्वावस्था के परिणामस्वरूप उसके बाद ही
नहीं आती, तब मन तर्कशून्य होगा, और तब कौन कह सकेगा कि इच्छा स्वतंत्र है
और साथ ही तर्क या बुद्धिसंगतता के व्यापार को अस्वीकार करेगा? और दूसरी ओर,
कौन मान सकता है कि मन कारणता के नियम से शासित होता है और साथ हो दावा कर
सकता है कि इच्छा स्वतंत्र है?
नियम स्वयं कार्य-कारण का व्यापार है। कुछ पूर्व घटित कार्यों के अनुसार कुछ
परवर्ती कार्य होते हैं। प्रत्येक पूर्ववर्ती का अपना अनुवर्ती होता है।
प्रकृति में ऐसा ही होता है। यदि नियम की यह क्रिया मन में होती है, तो मन
आबद्ध है और इसलिए यह स्वतंत्र नहीं है। नहीं, इच्छा स्वतंत्र नहीं है। हो
भी कैसे सकती है? किंतु हम सभी जानते हैं, हम सभी अनुभव करते हैं कि हम
स्वतंत्र हैं। यदि हम मुक्त न हों, तो जीवन का कोई अर्थ ही नहीं रह जाएगा और
न वह जीने लायक ही होगा।
प्राच्य दार्शनिकों ने इस मत को स्वीकार किया, अथवा यों कहो कि इसका
प्रतिपादन किया कि मन तथा इच्छा देश, काल एवं निमित्त के अंतर्गत ठीक उसी
प्रकार हैं, जैसे तथाकथित जड़ पदार्थ हैं। अतएव, वे कारणता के नियम में आबद्ध
हैं। हम काल में सोचते हैं, हमारे विचार काल में आबद्ध हैं; जो कुछ है, उन
सबका अस्तित्व देश और काल में है। सब कुछ कारणता के नियम से आबद्ध है।
इस तरह जिन्हें हम जड़ पदार्थ और मन कहते हैं, वे दोनों एक ही वस्तु हैं।
अंतर केवल स्पंदन की मात्रा में है। अत्यंत गति से स्पंदनशील मन को जड़
पदार्थ के रूप में जाना जाता है। जड़ पदार्थ में जब स्पंदन की मात्रा का कम
अधिक होता है, तो उसे मन के रूप में जाना जाता है। दोनों एक ही वस्तु हैं, और
इसलिए जब जड़ पदार्थ देश, काल तथा निमित्त के बंधन में है, तब मन भी जो उच्च
स्पंदनशील जड़ वस्तु है, उसी नियम में आबद्ध है।
प्रकृति एकरस है। विविधता अभिव्यक्ति में है। 'नेचर' के लिए संस्कृत शब्द
है प्रकृति, जिसका व्युत्पत्यात्मक अर्थ है विभेद। सब कुछ एक ही तत्त्व
है, लेकिन वह विविध रूपों में अभिव्यक्त हुआ है।
मन जड़ पदार्थ बन जाता है और फिर क्रमानुसार जड़ पदार्थ मन बन जाता है। यह
केवल स्पंदन की बात है।
इस्पात का एक छड़ लो और उसे इतनी पर्याप्त शक्ति से आघात करो, जिससे उसमें
कंपन आरंभ हो जाए। तब क्या घटित होगा? यदि ऐसा किसी अँधेरे कमरे में किया जाए
तो जिस पहली चीज का तुमको अनुभव होगा, वह होगी ध्वनि, भगभनाहट की ध्वनि।
शक्ति की मात्रा बढ़ा दो, तो इस्पात का छड़ प्रकाशमान हो उठेगा तथा उसे और
अधिक बढ़ाओ, तो इस्पात बिल्कुल लुप्त हो जाएगा। वह मन बन जाएगा।
एक अन्य दृष्टांत लो- यदि मैं इस दिनों तक निराहार रहूँ, तो मैं सोच न
सकूँगा। मन में भूले-भटके, इने-गिने विचार आ जाएँगे। मैं बहुत अशक्त हो
जाऊँगा और शायद अपना नाम भी न जान सकूँगा। तब मैं थोड़ी रोटी खा लूँ, तो कुछ
ही क्षणों में सोचने लगूँगा। मेरी मन की शक्ति लौट आएगी। रोटी मन बन गई। इसी
प्रकार मन अपने स्पंदन की मात्रा कम कर देता है और शरीर में अपने को
अभिव्यक्त करता है, तो जड़ पदार्थ बन जाता है।
इनमें पहले कौन हुआ - जड़ वस्तु या मन, इसे मैं सोदाहरण बताता हूँ। एक मुर्गी
अंड़ा देती है। अंडे से एक और मुर्गी पैदा होती है औ फिर इस क्रम की अनंत
श्रृंखला बन जाती है। अब प्रश्न उठता है कि पहले कौन हुआ, अंडा या मुर्गी?
तुम किसी ऐसे अंडे की कल्पना नहीं कर सकते, जिसे किसी मुरगी ने न दिया हो और
न किसी मुरगी की कल्पना कर सकते हो, जो अंडे से न पैदा हुई हो। कौन पहले हुआ,
इससे कोई अंतर नहीं पड़ता। करीब करीब हमारे सभी विचार मुरगी और अंडे के
गोरखधंधे जैसे हैं।
अत्यंत सरल होने के कारण महान् से महान् सत्य विस्मृत हो गए। महान् सत्य
इसलिए सरल होते हैं कि उनकी सार्वभौमिक उपयोगिता होती है। सत्य स्वयं सदैव
सरल होता है। जटिलता मनुष्य के अज्ञान से उत्पन्न होती है।
मनुष्य में स्वतंत्र कर्ता मन नहीं है, क्योंकि वह तो आबद्ध है। वहाँ
स्वतंत्रता नहीं है। मनुष्य मन नहीं है, वह आत्मा है। आत्मा नित्य
मुक्त, असीम और शाश्वत है। मनुष्य की मुक्ति इसी आत्मा में है। आत्मा
नित्य मुक्त है, किंतु मन अपनी ही क्षणिक तरंगों से तद्रूपता स्थापित कर
आत्मा को अपने से ओझल कर देता है और देश, काल तथा निमित्त की भूलभुलैया- माया
में खो जाता है।
हमारे बंधन का कारण यही है। हम लोग सदा मन से तथा मन के क्रियात्मक
परिवर्तनों से अपना तादात्म्य कर लेते हैं।
मनुष्य का स्वतंत्र कर्तृत्व आत्मा में प्रतिष्ठित है और मन के बंधन के
बावजूद आत्मा अपनी मुक्ति को समझते हुए बराबर इस तथ्य पर बल देती रहती है,
'मैं मुक्त हूँ ! मैं हूँ, जो मैं हूँ ! मैं हूँ, जो मैं हूँ !' यह हमारी
मुक्ति है। आत्मा - नित्य मुक्त, असीमा और शाश्वत - युग युग से अपने उपकरण
मन के माध्यम से अपने को अधिकाधिक अभिव्यक्त करती आई है।
तब प्रकृति से मानव का क्या संबंध है? निकृष्टतम प्राणियों से लेकर
मनुष्यपर्यंत आत्मा प्रकृति के माध्यम से अपने को अभिव्यक्त करती है।
व्यक्त जीवन के निकृष्टतम रूप में भी आत्मा की उच्चतम अभिव्यक्ति
अंतर्भूत है और विकास कही जानेवाली प्रक्रिया के माध्यम से वह बाहर प्रकट
होने का उद्योगकर रही है।
विकास की सभी प्रक्रिया अपने को अभिव्यक्त करने के निमित्त आत्मा का संघर्ष
है। प्रकृति के विरुद्ध यह निरंतर चलते रहनेवाला संघर्ष है। मनुष्य आज जैसा
है, वह प्रकृति से अपनी तद्रूपता का नहीं, वरन् उससे अपने संघर्ष का परिणाम
है। हम यह बहुत सुनते हैं कि हमें प्रकृति के साथ सामंजस्य करके और उससे
समस्वरित होकर रहना चाहिए। यह भूल है। यह मेज़, यह घड़ा, खनिज पदार्थ, वृक्ष
सभी का प्रकृति से सामंजस्य है। पूरा सामंजस्य है, कोई वैषम्य नहीं।
प्रकृति से सामंजस्य का अर्थ है, गतिरोध, मृत्यु। आदमी ने यह घर कैसे बनाया?
प्रकृति से समन्वित होकर? नहीं। प्रकृति से लड़कर बनाया। मानवीय प्रगति
प्रकृति के साथ सतत संघर्ष से निर्मित हुई है, उसके अनुसरण द्वारा नहीं।
नियम और मुक्ति
मुक्त पुरुष के लिए संघर्ष का कोई अर्थ नहीं। किंतु हमारे लिए उसका अर्थ है,
क्योंकि नाम-रूप ही जगत् की सृष्टि करता है।
वेदांत में संघर्ष के लिए स्थान है, पर भय के लिए नहीं। जब तुम अपने
वास्तविक स्वरूप को जान लोगे, तब सब भय दूर हो जाएगा। यदि तुम अपने को बद्ध
सोचो तो बद्ध ही बने रहोगे; और यदि तुम अपने को मुक्त सोचो, तो मुक्त हो
जाओगे।
प्रपंचमय जगत् में हम जिस स्वतंत्रता का अनुभव कर सकते हैं, वह सच्ची
स्वतंत्रता की झलक मात्र है, सच्ची स्वतंत्रता नहीं।
मैं इससे सहमत नहीं कि 'प्रकृति के नियमों का आज्ञापालन स्वतंत्रता है।' मैं
नहीं जानता कि इस कथन का तात्पर्य क्या है। यदि हम मानव जाति की उन्नति के
इतिहास का अध्ययन करें, तो मालूम हो जाएगा कि वह प्रकृति के नियमों का
उल्लंघन ही है, जो उस उन्नति का कारण है। यह कहा जा सकता है कि निम्नतर
नियमों पर उच्चतर नियमों द्वारा विजय प्राप्त की गई। पर वहाँ भी, विजयेच्छु
मन केवल मुक्त होने का ही प्रयत्न कर रहा था; और ज्यों ही उसे ज्ञात हुआ कि
संघर्ष भी नियम ही के अंतर्गत है, उससे उसे भी जीतने का प्रयत्न किया। अत:
प्रत्येक दशा में मुक्ति ही अभीष्ट थी - आदर्श थी। वृक्ष कभी भी नियम का
उल्लंघन नहीं करते। मैंने गाय को चोरी करते कभी नहीं देखा, घोंघे को झूठ
बोलते कभी नहीं सुना। किंतु तो भी वे मानव से बढ़कर नहीं हैं। यह जीवन मानो
मुक्ति की - स्वतंत्रता की - एक महान् घोषणा है। यदि नियमों की
आज्ञानुवर्तितता पर्याप्त मात्रा में की जाए, तो वह हमें केवल जड़ बना देगी,
निर्जीव कर देगी - वह चाहे समाज के क्षेत्र में हो, राजनीति के या धर्म के।
बहुत से नियमों का होना मृत्यु का निश्चित लक्षण है। किसी समाज में यदि
नियमों की संख्या आवश्यकता से अधिक बढ़ जाए, तो वह उसके शीघ्र विनाश का
निश्चित चिन्ह है। यदि तुम भारत की विशेषताओं का अध्ययन करो, तो देखोगे कि
हिंदुओं के समान किसी भी जाति में इतने अधिक नियम नहीं हैं, और इसका परिणाम
हुआ है राष्ट्रीय मृत्यु। पर हिंदुओं में एक विशेष बात रही है- उन्होंने
धर्म के क्षेत्र में लोगों को किसी विशेष मत या सिद्धांत में जकड़ने की
चेष्टा नहीं की; और इसीलिए उनके धर्म का सबसे अधिक विकास हुआ है। शाश्वत
नियम स्वतंत्रता नहीं हो सकता, क्योंकि यह कहना कि शाश्वत भी नियम के
अंतर्गत है, उसे अशाश्वत -सीमित - बना देना है।
सृष्टि-कार्य में ईश्वर का कोई हेतु नहीं है, क्योंकि यदि हो तो उसमें और
मनुष्य में फिर अंतर ही क्या रहा? उसे किसी हेतु की आवश्यकता ही क्या? यदि
होती, तो वह उससे बद्ध हो जाता; और तब तो हमें उसके अतिरिक्त उससे भी बड़ी
कोई वस्तु माननी पड़ती। उदाहरणार्थ, गलीचा बुनने वाला एक गलीचा तैयार करता
है। गलीचा बुनने का जो विचार था, वह उसके बाहर और उससे अधिक ऊँचा था। पर अब यह
बताओ कि ऐसा विचार कहाँ है, जिसका कि ईश्वर अनुसरण करे? जिस प्रकार एक महान्
सम्राट् भी कभी कभी गुड़ियों से खेल लेता है, उसी प्रकार ईश्वर भी इस प्रकृति
के साथ खेल कर रहा है। इसे ही हम नियम कहते हैं। क्यों? इसलिए कि हम इस खेल
के निर्विघ्न घटित होने वाले केवल छोटे- छोटे अंशों को ही देख सकते हैं। नियम
की हमारी समस्त धारणाएँ एक छोटे से अंश में ही प्रतिबद्ध हैं। यह कहना
बुद्धिहीनता है कि नियम अनंत है, या सदैव पत्थर नीचे की ही ओर गिरता रहेगा।
यदि तर्क-बुद्धि का आधार अनुभव हो, तो पचास लाख वर्ष पहले यह देखने के लिए कौन
था कि पत्थर गिरते हैं या नहीं? अतएव, नियम मनुष्य में स्वभावसिद्ध नहीं
है। मनुष्य के संबंध में यह एक विज्ञानसिद्ध बात है कि हम जहाँ से प्रारंभ
करते हैं, वहीं समाप्त भी होते हैं। वास्तव में, हम क्रमश: नियम के बाहर
होते जाते हैं और अंत में हम उससे पूर्णतया मुक्त हो जाते हैं, पर हमें पूरे
जीवन के अनुभव भी साथ ही मिल जाते हैं। हमारा प्रारंभ परमात्मा और मुक्ति से
होता है, और लय भी इन्हीं में होगा। ये नियम बीच की स्थिति के ही लिए हैं,
जहाँ से होकर हमें मार्ग तय करना है। हमारा वेदांत सदैव मुक्ति की ही घोषणा
करता है। नियम का विचार मात्र ही वेदांती को डरा देता है; और शाश्वत नियम तो
उसके लिए एक बड़ी ही भयानक बात है, क्योंकि यदि नियम शाश्वत हो, तो उससे
छुटकारे की संभावना ही नहीं। यदि उसे चिरकाल के लिए बंधन में जकड़ देनेवाला
कोई शाश्वत नियम हो, तो फिर उसमें और एक तृण में अंतर ही क्या रहा? हम नियम
के इस अमूर्त विचार में विश्वास नहीं करते।
हम कहते हैं कि हमें मुक्ति की ही खोज करनी है, और वह मुक्ति है परमात्मा। यह
वही आनंद है, जो हर वस्तु में निहित है; किंतु जब मनुष्य उसे किसी ससीम
वस्तु में ढूँढ़ता है, तो उसका कण मात्र पाता है। चोर को चोरी करने में वही
आनंद मिलता है, जो भक्त को भगवान् में; किंतु चोर उस आनंद का केवल कण मात्र
पाता है और साथ ही दु:ख का ढेर भी। यथार्थ आनंद परमात्मा है। ईश्वर
आनंदस्वरूप है, प्रेमस्वरूप है, मुक्तिस्वरूप है; और जो कुछ भी बंधनकारक
है, वह ईश्वर नहीं है।
मनुष्य तो मुक्त ही है, किंतु उसे इस सत्य को खोजना पड़ेगा। वह प्रति क्षण
इसे भूल जाता है। जाने या बिना जाने अपने इस मुक्तस्वरूप को पहचान लेना- यही
प्रत्येक मानव का संपूर्ण जीवन है। ज्ञानी और अज्ञानी में भेद यही है कि
ज्ञानी इसको जान-बूझकर करता है और अज्ञानी बिना जाने। अणु से लेकर नक्षत्र तक-
सभी मुक्त होने का ही प्रयत्न कर रहे हैं। अज्ञानी पुरुष एक छोटी सी परिधि
में स्वतंत्र होने से ही भूख-प्यास के बंधनों से मुक्त होने से ही -
संतुष्ट हो जाता है। किंतु ज्ञानी अनुभव करता है कि इनसे भी दृढ़तर बंधन हैं,
जिन्हें छिन्न करना है। वह रेड इंडियनों [31] की स्वतंत्रता को
स्वतंत्रता समझेगा ही नहीं।
हमारे दार्शनिकों के मतानुसार, मुक्ति ही जीवन का चरम लक्ष्य है। ज्ञान
लक्ष्य नहीं हो सकता, क्योंकि ज्ञान एक मिस्रण या यौगिक पदार्थ है। वह शक्ति
और स्वतंत्रता - इन दोनों का योग है, पर अभीष्ट केवल स्वतंत्रता ही है।
मनुष्य इसीके लिए प्रयत्न करता है। केवल शक्ति का होना ही ज्ञान नहीं कहा जा
सकता। उदाहरणार्थ, वैज्ञानिक विद्युत-शक्ति के धक्के को कुछ मीलों तक ही भेज
सकता है, परंतु प्रकृति तो उसे अपरिमित दूरी तक भेज सकती है। तो फिर, प्रकृति
की मूर्ति स्थापित कर हम उसकी पूजा क्यों नहीं करते? हम नियम नहीं चाहते, हम
चाहते हैं नियम को तोड़ने का सामर्थ। हम नियमों से बाहर चले जाना चाहते हैं।
यदि तुम नियमों से बँधे हो, तो मिट्टी के ढेले की भाँति निर्जीव हो। प्रश्न
यह नहीं है कि तुम नियमातीत हो या नहीं; किंतु यह धारणा कि हम नियमातीत हैं,
समस्त मानव इतिहास की आधारशिला है। उदाहरणार्थ, कोई मनुष्य जंगल में रहता
है, उसकी न कोई शिक्षा हुई है और न उसे कुछ ज्ञान है। वह एक पत्थर के गिरने
की प्राकृतिक घटना को देखता है, और समझता है कि यह स्वतंत्रता है। वह समझता
है कि पत्थर में जीव या आत्मा है, और इसका केंद्रीय भाव है स्वतंत्रता। पर
ज्यों ही उसे पता लगता है कि पत्थर का गिरना उसके वश की बात न होकर
अवश्यंभावी है, त्यों ही वह उसे प्राकृतिक व्यापार -निर्जीव यांत्रिक कार्य
- कहने लगता है। मैं चाहूँ तो सड़क पर जाऊँ - यह मेरे मन की बात है। मनुष्य
होने के नाते मेरी यही महानता है। पर यदि यह बात हो कि मुझे वहाँ जाना ही
पड़े, तो मैं अपनी स्वतंत्रता खो बैठता हूँ और एक यंत्र सा बन जाता हूँ। अनंत
शक्ति संपन्न होते हुए भी प्रकृति केवल एक यंत्र ही है। एकमात्र स्वतंत्रता
ही - मुक्ति ही - चेतन जीवन का सार है।
वेदांत कहता है कि जंगल में रहनेवाले उस मनुष्य का विचार ठीक है; उसकी सूझ
ठीक है, यद्यपि उसकी व्याख्या ठीक नहीं। वह प्रकृति को स्वतंत्रता के रूप
में देखता है, नियमबद्ध नहीं। हम भी इन सब मानवी अनुभवों के पश्चात् वैसा ही
सोचने लगेंगे, पर एक अधिक दार्शनिक अर्थ में। उदाहरणार्थ, मैं सड़क पर जाना
चाहता हूँ। मुझे अपनी इच्छा-शक्ति से प्रेरणा मिलती है, और मैं रुक जाता हूँ।
अब, सड़क पर जाने की इच्छा और वहाँ पहुँचने के बीच की अवधि में मैं एक
समरूपता से कार्य कर रहा हूँ। व्यापार (कार्य) की समरूपता को ही नियम कहा
जाता है। मैं देखता हूँ कि मेरे व्यापारों की यह एकरूपता समय के अत्यंत
छोटे-छोटे टुकड़ों में बँटी हुई है, और इसलिए मैं अपने कार्यों को नियमाधीन
नहीं कहता। मुझे प्रतीत होता है कि मैं स्वतंत्र रूप से कार्य करता हूँ। मैं
पाँच मिनट तक चलता हूँ; किंतु उस पाँच मिनट चलने के कार्य के पहले - जो कि
एकरूप व्यापार है - इच्छा-शक्ति का व्यापार हुआ था, जिसने मुझे चलने की
प्रेरणा दी। यही कारण है कि मनुष्य अपने को मुक्त समझता है, क्योंकि उसके
सभी कार्य समय के छोटे-छोटे टुकड़ों में विभक्त किए जा सकते हैं; और यद्यपि
इन छोटे-छोटे टुकड़ों में से प्रत्येक के भीतर समरूपता है, उसके बाहर वह
समरूपता नहीं। इस असमरूपता के अनुभव में ही स्वतंत्रता का भाव निहित है।
प्रकृति में हम एक समान रूप से घटने वाले कार्यों के अति दीर्घ खंडों को देखते
हैं; पर इन खंडों में से प्रत्येक के आरंभ और अंत में स्वतंत्र प्रेरणाएँ
अवश्य होनी चाहिए। यह स्वतंत्र प्रेरणा प्रारंभ में ही दी गई, और तब से वह
कार्य करती रही है; पर ये समय-खंड हमारे समय-खंडों से कहीं अधिक दीर्घ होते
हैं। दार्शनिक रूप से विश्लेषण करने पर हम देखते हैं कि हम स्वतंत्र नहीं
हैं। फिर भी, हमारे भीतर यह भाव बना ही रहता है कि हम स्वतंत्र हैं - मुक्त
हैं। अब हमें यह समझाना है कि यह भाव आता कैसे है। हम देखते हैं कि हममें ये
दो प्रेरणाएँ हैं। हमारी बुद्धि बतलाती है कि हमारे प्रत्येक कार्य का कुछ
कारण होता है; और साथ ही साथ, प्रत्येक मन:स्पंदन के साथ हम अपने स्वतंत्र
स्वभाव की घोषणा भी कर रहे हैं। इस पर वेदांत का समाधान यह है कि अंदर तो
स्वतंत्रता है - आत्मा वास्तव में मुक्त है -पर इस आत्मा के कार्य शरीर
और मन के द्वारा होते हैं, जो स्वतंत्र नहीं हैं।
ज्यों ही हम प्रतिक्रिया करते हैं, हम दास बन जाते हैं। कोई व्यक्ति मुझे
दोष देता है, तो मैं तुरंत क्रोध के रूप में प्रतिक्रिया करता हूँ। यह जो
थोड़ी सी उत्तेजना उसने मुझमें उत्पन्न कर दी, मुझे गुलाम बना लेती है। अत:
हमें अपनी स्वतंत्रता प्रमाणित करनी पड़ेगी। महात्मा वे ही हैं, जो श्रेष्ठ
महाविद्वान् व्यक्ति, या नीच, दुष्ट मनुष्य, या क्षुद्रतम पशु में न तो
महात्मा देखते हैं, न मनुष्य, न पशु, किंतु सभी में उसी एक ईश्वर को देखते
हैं। इस जीवन में ही उन्होंने संसार पर विजय प्राप्त कर ली है, और वे इस
समता में दृढ़ रूप से प्रतिष्ठित हो गए हैं। ईश्वर पवित्र और सबके लिए समान
है। अत: ऐसा महात्मा मनुष्य देह में प्रकट प्रत्यक्ष ईश्वर ही है। हम सब
इसी लक्ष्य की ओर बढ़ रहे हैं; और प्रत्येक प्रकार की उपासना, मानव का
प्रत्येक कार्य इसी की प्राप्ति का साधन है। धनार्थी की उपासना, मानव का
प्रत्येक कार्य उपासना हैं, क्योंकि निहित भाव है मुक्ति की प्राप्ति; और
सभी कार्यों का उद्देश्य, अपरोक्ष या परोक्ष रूप से, वही होता है। केवल यह
बात ध्यान में रखनी होगी कि उसमें बाधा पहुँचाने वाले सभी कार्यनिषिद्ध हैं।
समस्त विश्व ज्ञातया अज्ञात रूप से उपासना ही कर रहा है - उसे केवल इस बात
का ज्ञान नहीं है कि जब वह गाली देता है, तो भी उसी भगवान् की एक प्रकार से
उपासना ही कर रहा है, जिसे उसने गाली दी; क्योंकि जो लोग गाली दे रहे हैं, वे
भी मुक्ति के लिए ही प्रयत्न कर रहे हैं। वे कभी यह नहीं सोचते कि किसी
वस्तु की प्रतिक्रिया करने से वे अपने आप को उसका दास बना रहे है। किसी
प्रकार की प्रतिक्रिया न होने देना एक कठिन बात है।
यदि हम अपनी ससीमता के विश्वास को दूर कर सकें, तो हमारे लिए सब कुछ करना अभी
संभव हो जाए। यह केवल समय का प्रश्न है। शक्ति बढ़ाओ, तो समय कम लगेगा। उस
प्रोफेसर की बात याद रखो, जिसने संगमरमर के बनाने का रहस्य जानकर बारह वर्ष
में ही संगमरमर तैयार कर लिया,जब कि प्रकृति उसको बनाने में शताब्दियाँ लगा
देती है।
बौद्ध मत और वेदांत
वेदांत दर्शन बौद्ध एवं अन्य सभी भारतीय मतों का आधार है; किंतु हम जिसे
आधुनिक पंडितों का अद्वैत दर्शन कहते हैं, उसमें बौद्धों के भी अनेक सिद्धांत
मिले हुए हैं। अवश्य ही, हिंदू - अर्थात् सनातनी हिंदू - इस बात को स्वीकार
नहीं करेंगे, क्योंकि उनके विचार में बौद्ध नास्तिक हैं। परंतु वेदांत दर्शन
को जान-बूझकर ऐसा व्यापक रूप देने की चेष्टा की गई है कि उसमें नास्तिकों के
लिए भी स्थान रहे।
वेदांत का बौद्ध मत से कोई झगड़ा नहीं। वेदांत का उद्देश्य ही है, सभी का
समन्वय करना। उत्तर के बौद्धों के साथ हमारा तनिक भी झगड़ा नहीं है। किंतु
ब्रह्मदेश, स्याम तथा अन्य दक्षिण देशों के बौद्ध कहते हैं कि
इंद्रियग्राह्य परिदृश्यमान जगत् का ही अस्तित्व है, और वे हमसे पूछते हैं,
'इस परिदृश्यमान जगत् के पीछे एक शाश्वत और अपरिवर्तनशील सत्ता की - एक
अतींद्रिय जगत् की कल्पना करने का तुम्हें क्या अधिकार है?' इसके
प्रत्युत्तर में वेदांत कहता है कि यह आरोप मिथ्या है। वेदांत का कभी भी यह
मत नहीं रहा कि इंद्रियग्राह्य तथा अतींद्रिय ये दो जगत् हैं। उसका कहना है कि
जगत् केवल एक है। इंद्रियों द्वारा देखे जाने पर वही प्रपंचमय और अनित्य
भासता है, किंतु वास्तव में वह सर्वदा अपरिवर्तनशील और नित्य ही है। जैसे
मान लो, किसी को रस्सी से सर्प का भ्रम हो गया। जब तक उसे सर्प का बोध है, तब
तक उसे रस्सी दिखेगी ही नहीं -वह उसे सर्प ही समझता रहेगा। पर यदि उसे ज्ञात
हो जाए कि वह सर्प नहीं रस्सी है, तो फिर वह रस्सी में सर्प कभी नहीं देख
सकेगा - उसे केवल रस्सी ही दिखेगी। वह या तो रस्सी है, या सर्प ही; किंतु
दोनों का बोध एक साथ कभी नहीं होगा। अतएव, बौद्धों का हम लोगों पर यह जो आरोप
है कि हम दो जगत् में विश्वास करते हैं, सर्वथा मिथ्या है। यदि उनकी इच्छा
हो, तो वे इतना कह सकते हैं कि वह जगत् इंद्रियग्राह्य है - परिदृश्यमान है;
किंतु वे यह नहीं कह सकते कि दूसरों को उसे अतींद्रिय कहने का अधिकार नहीं।
बौद्ध लोग इंद्रियग्राह्य प्रपंचमय जगत् के अतिरिक्त और कुछ नहीं मानते। इस
प्रपंचमय जगत् में ही कामना है। कामना ही इन सबकी सृष्टि कर रही है। आधुनिक
वेदांती इसे बिल्कुल नहीं मानते। हम लोगों का मत है कि कोई ऐसी वस्तु है, जो
इच्छा के रूप में परिणत हुई है। इच्छा एक परिणाम है, एक यौगिक पदार्थ है
-'मौलिक' नहीं। बिना किसी बाह्य पदार्थ में इच्छा हो ही नहीं सकती। अत: यह
सिद्धांत कि जगत् की उत्पत्ति इच्छा से हुई है, असंभव है। यह कैसे हो सकता
है? क्या तुमने किसी बाह्य उत्तेजना के बिना कभी इच्छा का अनुभव किया है?
बाह्य उत्तेजना के बना - या आधुनिक दार्शनिक भाषा में कहें तो स्नायविक
उत्तेजना के बिना - कभी इच्छा या कामना का उदय नहीं होता। इच्छा मस्तिष्क
की एक प्रकार की प्रतिक्रिया है, जिसे सांख्य के मतानुयायी दार्शनिक 'बुद्धि'
कहते हैं। इस प्रतिक्रिया के पहले किसी क्रिया का होना आवश्यक है, और क्रिया
या कार्य के लिए बाह्य जगत् का होना जरूरी है। यदि बाह्य जगत् न हो, तो इच्छा
भी नहीं हो सकती; किंतु फिर भी, तुम्हारे (बौद्धों के) सिद्धांत के अनुसार
इच्छा ने जगत् की सृष्टि की ! अच्छा, इच्छा को कौन उत्पन्न करता है?
इच्छा तो जगत् की सहवर्तिनी है। जिस शक्ति ने जगत् की सृष्टि की, उसीने
इच्छा का भी सर्जन किया है। किंतु दर्शन को यहीं नहीं रुक जाना चाहिए।इच्छा
बिल्कुल व्यक्तिगत वस्तु है; अत: हम शापेनहाँवर [32] से सहमत नहीं हो सकते।
इच्छा बाह्य और आंतरिक का योग है - एक मिस्रण है। मान लो, एक आदमी ने बिना
किसी इंद्रिय के जन्म लिया, तो उसमें कुछ भी इच्छा न होगी। इच्छा के लिए
पहले कोई बाह्य वस्तु आवश्यक है, और मस्तिष्क अंदर से कुछ शक्ति लेकर उसमें
योग देता है; अत: इच्छा एक समवाय या सम्मिश्रण है, ठीक वैसे ही, जैसे दीवाल
या अन्य कोई वस्तु। इन जर्मन दार्शनिकों के इच्छा के सिद्धांत से हम
बिल्कुल सहमत नहीं। इच्छा स्वयं प्रपंचमय है - सापेक्ष है, वह निरपेक्ष
नहीं हो सकती। वह अनेक प्रक्षेपणों में से एक है। मैं यह समझ सकता हूँ कि कोई
ऐसी वस्तु है, जो इच्छा नहीं है, परंतु उसके रूप में अभिव्यक्त हो रही है
- यह देखते हुए कि जगत् से अलग इच्छा की हम कल्पना ही नहीं कर सकते।
देश,काल, निमित्त के कारण ही वह 'पूर्ण स्वतंत्र' वस्तु इच्छा का रूप धारण
कर लेती है। कान्ट के विश्लेषण को लो। इच्छा देश, काल और निमित्त के
अंतर्गत है। तब वह निरपेक्ष कैसे हो सकती है? यदि कोई इच्छा प्रकट करे, तो
उसकी यह क्रिया समय के अंदर ही संभव है - समय के बहिर्भूत नहीं।
यदि हम अपने समस्त विचारों का उपशमन कर सकें - अपनी समस्त चित्तवृत्ति शांत
कर सकें, तो हम जान जाएँगे कि हम विचार से परे हैं। हम 'नेति-नेति' के द्वारा
इस अनुभव पर पहुँचते हैं। जब 'नेति-नेति' कहकर समस्त प्रपंच का त्याग कर
दिया जाता है, तब जो कुछ बच रहता है वही 'वह' है। उसका वर्णन नहीं किया जा
सकता, उसे प्रकट नहीं किया जा सकता, क्योंकि प्रकटीकरण पुन: इच्छा हो जाएगी।
[1]
वेद दो अंशो में विभक्त है - कर्मकाण्ड के अंतर्गत ब्राह्मणों के
प्रख्यात मंत्र तथा अनुष्ठान आते हैं । जिन ग्रथों में अनुष्ठानादि से
भिन्न आध्यात्मिक विषयों का विवरण हैं, उन्हें उपनिषद् कहते हैं ।
उपनिषद् ज्ञानकाण्ड के अंतर्गत हैं । सभी उपनिषदों की रचना वेदों से
पृथक् हुई हो, ऐसा नहीं है । कुछ उपनिषद् तो ब्राह्मणों के अंतर्गत
हैं । कम से कम एक उपनिषद् तो संहिता भाग या ऋचाओं के ही अंतर्गत है ।
कभी कभी उपनिषद् शब्द उन ग्रंथों के लिए भी प्रयुक्त होता है, जो वेद
के अंतर्गत हैं । कभी कभी उपनिषद् शब्द अन्य ग्रंन्थों के लिए भी
प्रयुक्त होता है, जो वेद के अंतर्गत नहीं हैं, जैसे गीता । किंतु
साधारणत: उपनिषद् शब्द का प्रयोग वेदों के मध्य विकीर्ण दार्शनिक
प्रकरणों के लिए ही होता है । इन दार्शनिक प्रकरणों का संकलन हुआ हैं
और उसे वेदांत कहते हैं ।
[2]
'श्रुति' का अर्थ है 'जो सुना हुआ है ।' यद्यपि श्रुति के अंतर्गत
समस्त वैदिक साहित्य आ जाता हैं, फिर भी टीकाकर श्रुति शब्द का
मुख्यत: उपनिषदों के लिए ही प्रयोग करते हैं ।
[3]
उपनिषदों की संख्या १०८ मानी जाती है । निश्चित रूप से इनका समय -
निर्धारण नहीं किया जा सकता किंतु यह तो निश्चित है कि वे बौद्ध मत से
प्राचीन हैं । यह ठीक है कि कुछ गौण उपनिषदों में ऐसे निर्देश हैं,
जिनसे उनके अर्वाचीन होने का संकेत मिलता हैं । किंतु इससे यह नहीं
सिद्ध होता कि वे उपनिषद् अर्वाचीन है । संस्कृत साहित्य के प्राचीन
मूल ग्रंथों को संप्रदायवादी अपने अपने मतों की उत्कृष्ठता स्थापित
करने के लिए परिवर्तित करते रहे हैं ।
[4]
व्याख्याएँ कई प्रकार की होती है - भाष्य, टीका, टिप्पणी, चूर्णिका
आदि । भाष्य को छोड़ अन्य सबों में मूल ग्रंथ या उसके कठिन शब्दों की
व्याख्या की जाती है । भाष्य सही अर्थ में व्याख्या नहीं है ।
इसमें मूल ग्रंथ के आधार पर एक विचार-पद्धति का स्पष्टीकरण किया
जाता है । भाष्य का उद्देश्य शब्दों की व्याख्या नहीं, वरन् किसी
विचार-पद्धति का प्रतिपादन करना होता है । भाष्यकार मूल ग्रंथों को
प्रमाण मानकर अपनी विचार-पद्धति को स्पष्ट करता हैं ।
[5]
वेदांत की अनेक व्याख्याएँ हुई हैं । इसके विचारों की अन्तिम
अभिव्यक्ती व्यास के दार्शनिक सूत्रों में हुई हैं । वेदांत मत का
प्रामाणिक ग्रन्थ उत्तर भीमांसा है । उत्तर भीमांसा हिन्दू
धर्मशास्त्र का सबसे अधिक प्रामाणिक ग्रंथ है । कट्टर विरोधी धर्म -
संप्रदायो ने भी विविश होकर व्यास की उक्तियों को अपनी विचार पद्धती
के साथ मिलाने का प्रयत्न किया है । अति प्राचीन काल में ही वेदांत के
व्याख्याकार तीन प्रसिद्ध हिन्दू संप्रदायों में विभक्त हो गये । इन
संप्रदायों के नाम द्वैत, विशिष्टद्वैत तथा अद्वैत हैं । अति प्राचीन
व्याख्याएँ तो शायद लुप्त हो गयी हैं, किन्तु अर्वाचीन काल में बौद्ध
के उत्थान के बाद शंकर, रामानुज तथा मध्व ने उनका पुनरूद्धार किया है
। शंकर ने अद्वैत को, रामानुज ने विशिष्टाद्वैत को तथा मध्व ने
द्वैत को पुन: संस्थापित किया है । भारतीय संप्रदायों के पारस्परिक
भेद का कारण उनकी विचार - पद्धति है । कर्मानुष्ठान के बारे में उनकें
कम भेद है, क्योंकि उनके धर्मशास्त्र का आधार एक ही है ।
[6]
अंग्रेजी भाषा का क्रियेशन (creation) तथ संस्कृत का प्रक्षेपण
(projecti) समानार्थक शब्द हैं । भारत का कोई भी मत पाश्चात्य देशों
के उस स्ष्टीवाद को नहीं मानता, जिसके अनुसार असत् के अनुसार सत् की
उत्पत्ति मानी जाती हैं । हम सृष्टी से जो अर्थ समझते है, वह उसीका
प्रक्षेपण है, जो पहले से ही विद्यमान था ।
[7]
वेदांत और सांख्य में परस्पर विरोध बहुत कम है । वेदांत की ईश्वर
कल्पना सांख्य की पुरूष - कल्पना से निकली है । सभी दर्शन सांख्य के
मनोविज्ञान को मानते है । वेदांत और सांख्य दोनों ही शाश्वत पुरूष को
मानते है । भेद केवल इतना है कि सांख्य अनेक पुरूषों को मानता है ।
सांख्य के अनुसार विश्व के अस्तित्व के लिए किसी अन्य सत्ता की
आवश्यकता नहीं है । वेदांत के अनुसार आत्मा एक है, जो अनेक जैसी
प्रतिभासित होती है । इस एक विचार को छोड़कर वेदांत के अन्य विचार तो
प्राय: सांख्य पर ही आधारित हैं ।
[8]
छान्दोग्योपनिषद् ॥६।१।४॥
[9]
छान्दोग्योपनिषद् ॥७।२३-४।१॥
[10]
यहूदियों का एक पूर्वपुरूष ।
[11]
न वा अरे पत्थु: कामाय पति: प्रियो भवत्सात्मनस्तु कामाय पति:
प्रियो भवति ।।बृहदारण्यकोपनिषद्।।२।४।४।।
[12]
विद्याविनयसंपन्न ब्राह्यणे गवि हस्तिनि।
शुनि चैव श्वपाके च पण्डिता: समदर्शिन:।।
इहैव तैर्जित: सर्गो येषां साम्ये स्थितं मन:।
निर्दोषं हि समं ब्रह्म तस्माद्बह्मणि ते स्थित:।।
- गीता ।।5।18-19।।
[13]
समं पश्यन्हि सर्वत्र समवस्थितमीश्वरम्।
न हिनस्त्यात्मनात्मानं ततो याति परां गतिम् ।।गीता।। 13।28।।
इहैव तैर्जित: सर्गो येषां साम्ये स्थितं मन:।
निर्दोषं हि समं ब्रह्म तस्माद्ब्रह्मणि ते स्थिता:।।गीता।।5।19।।
[14]
देवान्भावयतानेन ते देवा भावयन्तु व:।
परस्परं भावयंत: श्रेय: परमवाप्स्पथ ।।गीता।।३।११।।
[15]
श्वेताश्वतरोपनिषद् ।।२।५; ३।८।।
[16]
कठोपनिषद् ।।१।१।२०।।
[21]
उन दिनों पत्रों के संवाददाता स्वामी जी को आम तौर से विवेकानंद
लिखते थे।
[22]
लभते सिकतासु तैलमपि यत्नत: परिपीडयन्।
पिवेच्च् मृगतृष्णिकासु सलिलं पिपासार्द्रित:।।
कदाचिदपि पर्यटन्शशविषाणमासादयेत्।
न तू प्रतिनिविष्टमूर्खजनचिंत्तमारावयेत्।। भर्तूहरिदीतिशतकम्
।।३।४।।
[23]
'वेदांत एण्ड दी वेस्ट' के सन् १९५८ के मई-जून के अंक से लेकर इसे
पुन: मुद्रित किया गया। पत्रिका के संपादकों ने इसे उसी रूप में
प्रकाशित किया, जिस रूप में उसे लिखकर उतारा गया था। विचार तथा काल का
तारतम्य बनाए रखने के लिए कुछ शब्द जोड़ दिए गए हैं, जिन्हें
कोष्ठों में रखा गया है। व्याख्यान उतारने में जो शब्द छूट गए
होंगे, उन्हें ये इंगित करते हैं।
[24]
ऊँ पूर्णमद: पूर्णमिदं पूर्णात्पूर्णमुदच्यते।
पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते।।
[25]
छान्दोग्योपनिषद् ।।४।९।२।।
[26]
दक्षिणामूर्तिस्तोत्रम् ।।१२।।
[28]
मुण्डकोपनिषद् ।।२।२।८।।
[29]
कठोपनिषद् ।।२।२।१३।।
[30]
प्रोमीथियस - यूनानियों का पौराणिक पुरूष विशेष, जिसने मृतिका से
मनुष्य की रचना की, ओलिम्पस से चुरायी हुई अग्नि उन्हें दी,
उन्हें कला आदि सिखायी और दण्ड रूप में जंज़ीर द्वारा एक चट्टान से
बाँधा गया।
[31]
अमेरिका की एक आदिवासी जाति।
[32]
एक प्रसिद्ध जर्मन दार्शनिक ।